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बृजेश कुमार 'ब्रज''s Blog (108)

ग़ज़ल...ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी शाम से-बृजेश कुमार 'ब्रज'

मुतदारिक सालिम मुसम्मन बहर

212 212 212 212

आपकी याद आने लगी शाम से

ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी शाम से



गुनगुनाती हुई चल रही है हवा

शाम भी गीत गाने लगी शाम से



चाँदनी रात से क्यों करें हम गिला

हर ख़ुशी झिलमिलाने लगी शाम से



बड़ रही प्यार की तिश्नगी हर घड़ी

हसरतें सिर उठाने लगी शाम से



ताल बेताल थे सुर बड़े बेसुरे

रागनी वो सुनाने लगी शाम से



आस दिल में लिये चल पड़ी बावरी

रात सपने सजाने लगी शाम से

(मौलिक एवं… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 8, 2017 at 7:00pm — 18 Comments

ग़ज़ल....कितने घावों को सिल डाला शब्दों के पैबंदों से-बृजेश कुमार 'ब्रज'

622 22 22 22 22 22 22 2

भावों के धागे चुन चुन कर अरमानों के बंधों से

कितने घावों को सिल डाला शब्दों के पैबंदों से



साँसों से जीवन जैसा फूलों से तितली का रिश्ता

कुछ ऐसा ही नाता अपना कविता गीतों छंदों से



जन्मों जन्मों का बंधन है डरना क्या इनसे बन्धू

दुख चलते हैं बनके साथी इनसे हैं अनुबंधों से



अक्सर सच की नीलामी भी चौराहों पे होती है

उसकी हालत बद से बदतर लूले बहरे अंधों से



मजहब को जीने वाले वो मजहब को ही खाते हैं

कोने में… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 29, 2017 at 5:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल....धीरे धीरे रीत गया - बृजेश कुमार 'ब्रज'

22 22 22 22 22 22 22 2

यादों के गलियारे होकर जब मैं आज अतीत गया

लाख सँभाला आँखों ने पर धीरे धीरे रीत गया



नाम पुकारा कुछ ने मेरा कुछ के अश्क़ छलक आये

कुछ तस्वीरें मुस्काईं तो गूँज कहीं संगीत गया



ख्वाब सुहाने कुछ बचपन के टूट गये कुछ रूठ गये

कैसे जी को समझाऊँ मैं क्या गुजरी क्या बीत गया



ऐसा क्या माँगा था उनसे ऐसी क्या मज़बूरी थी

बीच भँवर क्यों हाथ छुड़ाकर बेदर्दी मनमीत गया



खेल रचा क्या भावों का हाथों की चन्द लकीरों ने

हार गया… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 16, 2017 at 8:25pm — 27 Comments

गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल..मेरे दीदा ए नम में तू ही तू-बृजेश कुमार 'ब्रज'

गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल
2122 1212 22
तेरी आँखें ज़हान की खुशबू
मेरे दीदा ए नम में तू ही तू

गीत ग़ज़लों में तू नुमायाँ है
तेरा ही चर्चा नज़्म में हर सू

याद किसकी शुरुर है किसका
किसलिये आँखों से रवां आँसू

तेरी जुल्फों की खुशबुएँ लेकर
कोई झोंका सबा का जाये छू

धर्म मजहब से ये हुआ हासिल
जल रहे हैं बशर यहाँ धू धु

राज है 'ब्रज' तेरी उदासी में
बेसबब आज फिर बहे आँसू
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 6, 2017 at 3:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल....दुआयें साथ हैं माँ की वगरना मर गये होते-बृजेश कुमार 'ब्रज'

1222 1222 1222 1222

रगों को छेदते दुर्भाग्य के नश्तर गये होते

दुआयें साथ हैं माँ की नहीं तो मर गये होते



वजह बेदारियों की पूछ मत ये मीत हमसे तू

हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते



नज़र के सामने जो है वही सच हो नहीं मुमकिन

हो ख्वाहिशमंद सच के तो पसे मंज़र गये होते



अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की

हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते



शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम

न होती आँख 'ब्रज' शबनम अगर कह कर गये…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 28, 2017 at 11:00am — 18 Comments

ग़ज़ल...वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

१२२२   १२२२ ​   १२२२    १२२२​

वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है

तेरी यादों का मौसम है लबों पे इक तराना है



तुझी को याद करता हूँ तेरा ही नाम लेता हूँ

यही इक काम है बाकी तुझे अपना बनाना है



कभी जाये न ये मौसम बहे नैंनो से यूँ सावन

दिखाऊँ किस तरह जज्बात​ राहों में जमाना है



रही बस याद बाकी है यही फरियाद बाकी है

सुनाऊँ क्या जमाने को खुदी को आजमाना है



मिलन होता न उल्फत में कटेगी जिन्दगी पल में

ये साँसें हैं बिखर जायें अमर… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 22, 2017 at 5:00pm — 23 Comments

ग़ज़ल...हर कदम पर जह्न मेरा आजमाता कौन है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

2122 2122 2122 212
वेदना के तार झंकृत,गीत गाता कौन है
दर्द की ये रागनी आखिर सुनाता कौन है

कौन है ये रात के आगोश में सिमटा हुआ
चाँदनी की ओट लेकर मुस्कुराता कौन है

बादलों के पार से आवाज थी किसकी सुनी
ओढ़कर घूँघट घटा का ये लजाता कौन है

गुँजतीं हैं आहटें खामोशियों को चीरती
हर कदम पर जह्न मेरा आजमाता कौन है

चल रही पुरवा बसन्ती मुस्कुरा कर झूमती
लेके थाली आरती की गुनगुनाता कौन है
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 9, 2017 at 4:30pm — 16 Comments

ग़ज़ल....यार तुम भी कमाल करते हो-बृजेश कुमार 'ब्रज

2122 1212 22
रहबरों से सवाल करते हो
तौबा ये क्या मजाल करते हो

रस्मे उल्फत की बात कर बैठे
काम सब बेमिसाल करते हो

हीर समझा हुई ग़लतफ़हमी
खुद क्यों रांझे सा हाल करते हो

आइने में ये किसकी सूरत है
किसपे दिल ये निहाल करते हो

किसने साये को साथ रक्खा है
किस लिये 'ब्रज' मलाल करते हो
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 4, 2017 at 4:30pm — 14 Comments

ग़ज़ल...नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे-बृजेश कुमार 'ब्रज'

22 22 22 22
फिरते हैं बन वन बंजारे
नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे

जब भी होंट खुले तो पाया
नाम तुम्हारा साँझ सकारे

जाने वाले आ भी जा अब
तुझको मेरी आह पुकारे

दर्द जुदाई आहें आँसू
जीवन है या कोइ सजा रे

कितने अरसे बाद मिले हो
ओ मेघा मनमीत सखा रे
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 31, 2017 at 8:51am — 14 Comments

ग़ज़ल....जो दिल को घेर कर बैठी उदासी क्यों नहीं जाती

1222 1222 1222 1222

जो दिल को घेर कर बैठी उदासी क्यों नहीं जाती

नदारद नींद आँखों से उबासी क्यों नहीं जाती



चलीं जायेगीं बरसातें ये मौसम भी न ठहरेगा

हमारे दिल की बैचैनी जरा सी क्यों नहीं जाती



तुम्हारे साथ ही ये ज़िन्दगी तैयार जाने को

दिलों के दरमियाँ काबिज़ अना सी क्यों नहीं जाती



सुना है उसके दर पे सब मुरादें पूरी होतीं हैं

ये व्याकुल रूह जन्मों से है प्यासी क्यों नहीं जाती



ग़मों में मुस्कुराना सीख 'ब्रज' लोगों ने समझाया

बसी… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 10, 2017 at 5:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल...गमे दिल अब मुझे आराम दे दो

1222 1222 122
मेरी बेचैनियों को नाम दे दो
बहुत टूटा हूँ अब अंजाम दे दो

उन्हें मैं याद कर के थक चुका हूँ
गमे दिल अब मुझे आराम दे दो

पुरानी बात है आहें, तड़पना
मुहब्बत को नये आयाम दे दो

कि जिसको सोचते ही मुस्कुरा दूँ
तसव्वुर के लिए वो शाम दे दो

कहाँ है मीत वो किस हाल में है
हवाओ कोई तो पैगाम दे दो
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 5, 2017 at 8:48am — 16 Comments

ग़ज़ल...कौन भरे इस खालीपन को

22 22 22 22
याद करे वीरान चमन को
कौन भरे इस खालीपन को

मुझमें है ये कौन समाया
आँखों ने टोका दर्पन को

हाथ बढ़ाकर कौन सँभाले
सड़कों पे मरते बचपन को

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई
खाने को तैयार वतन को

अबके सावन ऐसे बरसे
ले आये सुख चैन अमन को

प्रभु बसते दुखिया आहों में
हम बैठे संगीत भजन को

कितने अरमानों से सींचा
'ब्रज' ने अपने फक्खड़पन को
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 27, 2017 at 11:54am — 11 Comments

ग़ज़ल...मगरूर है वो हमसफ़र

गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल..बहरे रजज़ मुरब्बा सालिम
मुस्तफ्इलुन मुस्तफ्इलुन
2212 2212
मगरूर है वो हमसफ़र
हैरान हूँ ये जानकर

अपनी जड़ों से टूटकर
क्यूँ आदमी है दर-ब-दर

जाना कहाँ थे आ गये
ये पूँछती है रहगुजर

सब आहटें खामोश हैं
चुपचाप सी है हर डगर

आसान है अब तोड़ना
बिखरे हुये हैं सब बशर

बेआबरू ऐ इश्क़ के
हम भी बड़े थे मोतबर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 11, 2017 at 5:59pm — 8 Comments

एक ग़ज़ल देश के वीर सैनिकों के नाम

मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

221 2121 1221 212

दुख दर्द आह दिल की खलिश को लताड़ कर

हम चल दिये बदन पे पड़ी धूल झाड़ कर



दिल दुश्मनों के हिल गये इक पल न टिक सके

हमने नजर उठा उन्हें देखा दहाड़ कर



आवाज दी चमन ने पुकारा बहार ने

हम आ गये हसीन जहाँ छोड़ छाड़ कर



माँ भारती तरफ बढ़े नापाक जो कदम

रख देंगे तेरे दौनों जहाँ को उजाड़ कर



है रूह जिस्म जान तलक हिन्द के लिये

ओ माँ सपूत से तेरे इतना न लाड़ कर

(मौलिक एवं… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 4, 2017 at 5:25pm — 11 Comments

ग़ज़ल...क्या क्रांति की है दुन्दभि या सिर्फ ये उफान है

मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन

1212 1212 1212 1212

सुदूर उस तरफ जहाँ झुका वो आसमान है

वहीँ उसी दयार में गरीब का मकान है



ये आजकल जो शोर है शहर शहर गली गली

क्या क्रांति की है दुन्दभि या सिर्फ ये उफान है



चढ़ाव ज़िन्दगी का ज्यूँ मचलती है कुई लहर

कदम जरा सँभल के रख बहुत खड़ी ढलान है



जड़ों से जो जुदा हुये जमीन भी न पा सके

​​बिखर गये वो टूटकर समय का ये बयान है



ये प्यार की छुअन हुई या कसमकस ए ज़िन्दगी

बृजेश के ललाट पे जो चोट… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 28, 2017 at 6:26pm — 12 Comments

ग़ज़ल.. जला दो दीप उल्फत के कभी काशी मदीने में

1222 1222 1222 1222

उठा लो हाथ में खंज़र लगा दो आग सीने में

धरा है क्या नजाकत में नफासत में करीने में



बड़े खूंरेज कातिल हो जलाया खूब इन्सां को

जला दो दीप उल्फत के कभी काशी मदीने में



उठी लहरें हजारों नागिनें फुफकारती जैसे

न कोई बच सका जिन्दा समंदर में सफीने में



न सर पे आशियाँ जिनके न खाने को निवाले हैं

उन्हें क्या फर्क पड़ता है यूँ मरने और जीने में



हुये मशहूर किस्से जब अदाए कातिलाना के

सहेजूँ किस तरह तुमको अँगूठी के नगीने… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 18, 2017 at 8:05pm — 12 Comments

ग़ज़ल....रूप लम्हों में बदलती ज़िन्दगी का क्या करूँ

2122 2122 2122 212

रूप लम्हों में बदलती ज़िन्दगी का क्या करूँ

हौसलों का क्या करूँ चीने जबीं का क्या करूँ



रंग लाती ही नहीं अश्कों दफ़न की कोशिशें

आँख में आती नज़र रंजो ग़मी का क्या करूँ



​​रो रही है रात गुमसुम चाँद तारे मौन है

आग अंतस में लगाये चाँदनी का क्या करूँ



ओढ़ चादर कोहरे की कपकपाते होंसले

हर कदम पे थरथराते आदमी का क्या करूँ



हों इरादे आसमां तो जुगनुओं से रोशनी

आप घर खुद ही जलाये रोशनी का क्या करूँ



गुनगुनायें… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 14, 2017 at 11:52am — 18 Comments

हिन्दी ग़ज़ल...जब सूर्य चले अस्ताचल को

22 22 22 22
जब सूर्य चले अस्ताचल को
गहराय तिमिर घेरे तल को

इक दीप जलाओ अंतस में
जगमग कर दो भूमण्डल को

आवाज बनो तुम गूंगों की
तूफान बना दो हलचल को

जब चलना है, तो साथ चलें
पग से नापें नभ जल थल को

दुःख दुनिया का पी लेंगें 'ब्रज'
रक्खो तैयार हलाहल को
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 9, 2017 at 7:00pm — 17 Comments

ग़ज़ल...कई शम्स उसने सँभाले हुये हैं

122 122 122 122
कई शम्स उसने सँभाले हुये हैं
वो जिसके करम से उजाले हुये हैं

चला जो सदा सत्य की लौ जलाये
उसी शख्स के पांव छाले हुये हैं

ये जिनकी तपिश से जले आशियाने
वो मुददे नहीं बस उछाले हुये हैं

कहीं दूध मेवा कहीं आदमी को
बमुश्किल मयस्सर निवाले हुये हैं

विसाले सनम के हसीं ख्वाब दिल से
कई साल पहले निकाले हुये हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 4, 2017 at 6:38pm — 14 Comments

ग़ज़ल...जहर से भरी वादियों में हवा है

कश्मीर के हालातों को लेकर मन की उपज
122 122 122 122
दवा काम आये न लगती दुआ है
जहर से भरी वादियों में हवा है

यहाँ आदमी मुख़्तलिफ़ है खुदी से
न मुददा है कोई न ही माज़रा है

रुको मत लहू आखरी तक निचोड़ो
अभी जिस्म में जान बाकी जरा है

कहीं उड़ न जाये वफ़ा का परिंदा
अभी और मारो अभी अधमरा है

सरे राह घर है औ धरती बिछौना
भला मुफलिसों की जरुरत भी क्या है
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 23, 2017 at 4:30pm — 18 Comments

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