आस का पंछी
मन इक् आस का पंछी
मत क़ैद करो इसे
क़ैद होंने के लिए
क्यां इंसान के
तन कम हैं
Added by rajni chhabra on June 19, 2010 at 1:00am —
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तुम्हें दिखाउगा आइना, क्योकि वह केवल सच बोलता है
उनके लिए कौन लडेगा , जो केवल अपना हक मांगता है ॥
क्या मेरा इधर -उधर झाकना , तुम्हें नागबार लगता है
तो खुद ही बता दो वे बातें , जो हमें ख़राब लगता है ॥
सूरज तो निकलेगा एक दिन ,बादलों की उम्र ही क्या है
सच्चाई वय़ा करेंगे वे लोग , जिन्हें आज डर लगता है ॥
वो परेशां है इसलिए क़ि उनकी झूठ पकड़ ली गई है
इधर देखें ,उधर देंखें वे कही देखें , अब शर्म लगता है ॥
वे नंगे थे शुरू से ही ,नंगापन…
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Added by baban pandey on June 21, 2010 at 6:10am —
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स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल'
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 20, 2010 at 7:49pm —
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भोजपुरी के संग: दोहे के रंग
संजीव 'सलिल'
भइल किनारे जिन्दगी, अब के से का आस?
ढलते सूरज बर 'सलिल', कोउ न आवत पास..
*
अबला जीवन पड़ गइल, केतना फीका आज.
लाज-सरम के बेंच के, मटक रहल बिन काज..
*
पुड़िया मीठी ज़हर की, जाल भीतरै जाल.
मरद नचावत अउरतें, झूमैं दै-दै ताल..
*
कवि-पाठक के बीच में, कविता बड़का सेतु.
लिखे-पढ़े आनंद बा, सब्भई…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 20, 2010 at 7:33pm —
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हर जगह
छलांग नहीं लगाया जा सकता ॥
मंजिल तक
पहुचने के लिए
सीढियों की ज़रूरत
तो पड़ती ही है ॥
इन सीढियों को
हम जितनी
मेहनत /श्रम /लगन से बनायेगें ....
ये सीढिया ...
उतनी जल्दी ही
हमें अपनी मंजिल तक
पंहुचा देगी ॥
----------बबन पाण्डेय
Added by baban pandey on June 20, 2010 at 9:56am —
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मैं तुझ से मिलने आऊंगा
मैं तुझ से मिलने आऊंगा
हर रात हौले से जब बंद करेगी तू अपनी आँखें
तेरे सपनो के द्वार इक दस्तक मैं दे जाऊँगा
मैं तुझ से मिलने आऊंगा
मैं तुझ से मिलने आऊंगा
लाख लगा ले तू पहरा अपने महलों की द्वारों पे
नज़र उठा के देख ज़रा लिखा है मैने नाम तेरा चाँद सितारों मे
जानता हूँ हर रोज़ जाती है तू फूलों के बागों मे
बालों मे लगाती है इक गजरा पिरोके उनको धागों मे
इक दिन बनके फूल तेरे गजरे का तुझ ही को महकाऊँगा
मैं…
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Added by Pallav Pancholi on June 20, 2010 at 12:47am —
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कौन कहता है ........मै इन्सान नहीं हूँ ,
हरकतें तो वही हैं ,मतलब भगवान नहीं हूँ ॥
मन में सब दुनियावी इच्छओं का ढेर लगा है ,
सब है फिर भी मुझको भी, ९९ का फेर लगा है ॥
मन की सारी चिंताएं बिलकुल, सबके जैसी हैं ,
मेरी हैं सबसे अलग, तुम्हारी बताना कैसी है ॥
हम तो सबका भला मांगते, ऐसा मन कहता है ,
पर हमेशा अपने भले की ,दुआ ये मन करता है ॥
हूँ इन्सान पर कहता हूँ'' मै बेईमान नही हूँ '',
अगर यह सच है, तो लगता है ''इन्सान नही हूँ…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on June 19, 2010 at 8:01pm —
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करो जीवन मे जो प्रण,
पुरा करने को उसे,
कर दो तन-मन सब कुछ अर्पण।
राह मे आए चाहे कितनी भी कठिनाइयां,
चाहे हँसती रहे तुमपर सारी दुनिया,
अगर पक्का है तुम्हारा इरादा,
तोड़ सकते हो तुम हर बाधा,
सदा रखो स्वयं पर नियंञण,
अस्वीकार कर दो लोभ का हर निमंञण,
ज्यों-ज्यों लक्ष्य के प्रति बढेगा आर्कषण,
चिड़िया की तरह तिनका तिनका उठाना होगा,
तुम्हे रात-दिन अपना पसीना बहाना होगा,
हिम्मत मेहनत और लगन से
पुर्ण किया जो तुमने… Continue
Added by Raju on June 19, 2010 at 12:46pm —
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माँ ....
मैं तुम्हें खोज लूँगा
तुम यहीं कहीं हो
मेरे आस -पास .... ॥
आपकी अस्थियां
प्रवाहित कर दी थी मैंने
गंगा में ॥
भाप बन कर उड़ी
गंगा -जल
और फिर बरस कर
धरती में समा गई
मैं सुबह उठकर
धरती को प्रणाम करता हू
इसे चन्दन समझ
माथे पर तिलक लगाता हू ॥
ऐसा कर
आपका
प्यार और वात्सल्य
रोज पा लेता हू .. माँ ॥
-------------बबन पाण्डेय
Added by baban pandey on June 19, 2010 at 6:20am —
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दरिया में ही ख़ाक हुए, ये कैसा शरारा है.
साहिल पे ही डूब गए, ये कैसा किनारा है.
यहाँ छांव जलाती है,मुस्कान रुलाती है.
रातों में खुद को खुद की ही, परछाईं डराती है .
ये कौन सी दुनिया है, ये कैसा नज़ारा है.
साहिल पे ही डूब गए, ये कैसा किनारा है.
बीच भंवर में अटक गए, मंजिल से हम भटक गए.
वक़्त ने ऐसा पत्थर फेंका, सारे सपने चटक गए.
मापतपुरी को अब बस, मालिक का सहारा है.
साहिल पे ही डूब गए, ये कैसा किनारा है
गीतकार- सतीश मापतपुरी
मोबाइल- 9334414611
Added by satish mapatpuri on June 18, 2010 at 11:12am —
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गर्म हवा की तपिश से
उठे ववंडरों ने
उनकी आँखों में धूल झोंक दी
उनके कपडे भी उड़ा ले गयी
वे नंगा हो गए ॥
मगर .....
गर्म खबरों ने
उनको नंगा नहीं किया
क्योकि .... उन्होनें
नोटों की माला से
अपना शारीर ढक रखा था ॥
अब
गर्म खबरों में
गर्म हवा जैसी ताकत कहां ??
Added by baban pandey on June 18, 2010 at 6:56am —
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(१)
शादी ....
समझौते की गाडी मे
स्नेह की सीट पर बैठकर
अंतिम स्टेशन तक
पहुचने की चाह रखने वाले
दो सहयात्री ॥
(२)
गर्लफ्रेंड -बॉय फ्रेंड का प्यार .....
कसमों - वादों की सिलवट पर
लुका -छिपी की नमक के साथ
पिसी गई
मुस्कराहट की चटनी ॥
(३)
पत्नी का प्यार ........
उबड़ -खाबड़ रास्तो पर
रातों को उगने वाला
गंध -विहीन
कैक्टस के फूल
सूघने जैसा ॥
(४)
शाली (पत्नी की छोटी बहन ) का…
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Added by baban pandey on June 18, 2010 at 6:54am —
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दोहा का रंग भोजपुरी के संग:
संजीव वर्मा 'सलिल'
सोना दहलs अगनि में, जैसे होल सुवर्ण.
भाव बिम्ब कल्पना छुअल, आखर भयल सुपर्ण..
*
सरस सरल जब-जब भयल, 'सलिल' भाव-अनुरक्ति.
तब-तब पाठकगण कहल, इहै काव्य अभिव्यक्ति..
*
पीर पिये अउ प्यार दे, इहै सृजन के रीत.
अंतर से अंतर भयल, दूर- कहल तब गीत..
*
निर्मल मन में रमत हे, सदा शारदा मात.
शब्द-शक्ति वरदान दे, वरदानी…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 17, 2010 at 8:54am —
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अरसे से तेरी याद मे जिंदा हूँ,करूँ अब ओर इंतज़ार कैसे
हर कसम इश्क़ की तोड़ी है तूने,करूँ तेरे नये वादे पे ऐतबार कैसे
ये जो जख्म हैं सीने पे मेरे, इक नाज़ुक कली ने दिए हैं मुझे
काँटों के बीच खिले इस गुलाब से अब मैं करूँ प्यार कैसे
ना हो वो बदनाम मेरे नाम के साथ, ओढ़ ली इसलिए गुमनामी मैने
अब तुम ही बताओ लाउ उसका नाम ज़ुबान पर भरे बाजार कैसे
दियों की तरह अरसे से जला रखा हे दिल दुनिया उसकी रोशन करने को
आँखो मे आँसू लेकर अब ओर मनाउ दीवाली का यह…
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Added by Pallav Pancholi on June 17, 2010 at 12:15am —
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कथा-गीत:
मैं बूढा बरगद हूँ यारों...
संजीव 'सलिल'
*
MFT01124.JPG
*
मैं बूढा बरगद हूँ यारों...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 17, 2010 at 12:06am —
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इक बार क्या मिला वो ,हर दिल अज़ीज़ हो गया ,
पल दो पल में वो मेरे दिल के, करीब हो गया ॥
अनजान थे जो अब तक, उसके असरार से ,
अंजुमन में हुई जब उसकी आमद, हबीब हो गया ॥
फिजां में ना था कही पे, उसका नामोनिशां ,
है हर शख्श की जुबां पर, यही ''मेरा नसीब हो गया ॥
जो बदनामी के डर से, राहें अपनी बदल गए ,
हैं ! वो बने हम -सफर ,कुछ किस्सा अजीब हो गया ॥
जिंदगी को करीने से, सजा रखी थी हमने ''कमलेश '',
उसने दस्तक दी जब से ,दिले -मंजर बे-तरतीब हो…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on June 16, 2010 at 9:35pm —
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हम कैसे भुला दें जहन से, भोपाल कांड को ,
जिसने हिला के रख दिया ,पूरे ब्रह्माण्ड को ॥
भोपाल मे इंसानी लाशों के, अम्बार लगे थे ,
बुझ गए जीवन दिए जो, अभी-अभी जगे थे ॥
कोई किसी का ,कोई किसी का ,रिश्ता मर गया ,
जिंदगी समेटने की कोशिश मे ,सब कुछ बिखर गया ॥
जिनकी आँखों की गयी रौशनी , जीने की भूख गयी ,
खिली हुई कुछ उजड़ी कोखें , कुछ कोखें पहले सूख गयी ॥
सालों बाद स्मृत पटल पर, यादें धुंधली नही हुई हैं ,
भयावह मंजर से अब भी '' उसकी…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on June 16, 2010 at 11:48am —
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yeh meri pahli gazal hai is site par..... saath he saath jeeven me pahli baar ghazal likhne ki koshish ki hai aap sabhi ke sujhav amantrit hain
हाय मेरी मोहब्बत मोहब्बत ना रही.... यह तो अब एक फसाना हो गया............
रात ही तो आया था वो ख्वाब मे.... पर लगता है उससे मिले एक ज़माना हो गया
मुझे दिलासे दे देकर मुझसे भी ज़्यादा रोए हैं मेरी आँखो के आँसू.........
लगता है मेरा रोना उसके मुस्कुराने का बहाना हो…
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Added by Pallav Pancholi on June 16, 2010 at 1:25am —
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उमर भर
का साथ
निभ जाता
कभी एक ही
पल मैं
बुलबुले मैं
उभरने वाले
अक्स की उमर
होती है
फक्त एक ही
पल की
Added by rajni chhabra on June 16, 2010 at 12:40am —
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अम्बर के वातायन से जब चाँद झांकता है भू पर, .
जाने दिल में क्यों हूक उठती - जाने क्यों तेरी याद आती.
स्वप्न संग कोमल शैय्या पर जब सारी दुनिया सोती.
किसी आम्र की सुघर शाख से कोकिल जब रसगान छेड़ती.
पागल पवन गवाक्ष- राह से ज्योंही आकर सहलाता,
तेरे सहलाए अंगों में जाने क्यों टीस उभर आती.
जाने दिल में क्यों हूक उठती- जाने क्यों तेरी याद आती.
बीते हुए पल का बिम्ब देख रजनी की गहरी आँखों में.
एक दर्द भयानक उठता है दिल पर बने हुए घावों में.
घावों से यादों का…
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Added by satish mapatpuri on June 14, 2010 at 4:31pm —
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