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बृजेश कुमार 'ब्रज''s Blog (106)

​ग़ज़ल ..भूख के चर्चे हुये हैं मुफलिसी की बात है...

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हो बड़े मगरूर अपनी जीत मेरी हार में

हम लुटा देते हैं हस्ती प्रेम के व्यापार में

भूख के चर्चे हुये हैं मुफलिसी की बात है

वांच ली सारी किताबें क्या रखा है सार में

गीत बैठे तक रहे हैं झनझनाहट तार की

क्या जुगलबंदी हुई है राग सुर औ प्यार में

बाँध कर सिर पे कफ़न हैं चल पड़े कुछ…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 15, 2016 at 8:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल ...चार दीवारें भी हों छतों के लिये

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चार दीवारें भी हों छतों के लिये

और क्या चाहिये मुफलिसों के लिये

महफिलें भूख की हो रहीं हैं ज़बां

है सियासत मगर रहबरों के लिये

अत्ड़ियाँ पेट की घुटनों से मिल गईं 

अब कहाँ तक झुकें रहमतों के लिये

जिन दरख्तों तले पल रहा आदमी 

प्यार की हो नमी उन जड़ों के लिये 

लाख ​दौलत अकूबत है हासिल जिन्हें  ​

वो तरसते ​मिले ​कहकहों के लिये

ठोकरें नफरतें झिड़कियों के सिवा

और…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 24, 2016 at 4:30pm — 12 Comments

ग़ज़ल कहीं राधा कहीं मीरा कहीं पे श्याम के चर्चे

1222   1222     1222     1222

हमें अब याद आते हैं सुहानी शाम के चर्चे

तुम्हारी बज़्म की बातें तुम्हारे नाम के चर्चे



सदायें ये मुहब्बत की दिशायें गुनगुनायेंगी

कहीं राधा कहीं मीरा कहीं पे श्याम के चर्चे



लिये बैठा हूँ नम आँखें अधूरा प्यार का किस्सा 

कभी मजनू कभी राँझे कभी खय्याम के चर्चे

किसी ने राग जो छेड़ा घुली खुशबू…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 4, 2016 at 9:00pm — 20 Comments

ग़ज़ल...देर तक

2122      2122      2122     212

रात का सन्नाटा' मुझपे मुस्कुराया देर तक

हाथ पर उनको लिखा लिखके मिटाया देर तक



आज ऐसा क्या हुआ क्या साजिशें हैं शाम की

आरजू जिसकी नहीं वो याद आया देर तक



उल्फतें हैं हसरतें हैं और ये दीवानगी

नाम तेरा होंठ पे रख बुदबुदाया देर तक



है अज़ब मंज़र वफ़ा की रहगुज़र में आजकल

चाहतें उस शख्स की जिसने रुलाया देर तक

.

कुछ पलों की जुस्तजू वो कुछ पलों की तिश्नगी

प्यार का गमगीं तराना गुनगुनाया…
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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 7, 2016 at 9:30pm — 24 Comments

बस इतनी सी चाहत(अतुकान्त कविता )

कहीं कुछ टूटता सा महसूस होता है

कहीं कोई डाली चटक सी जाती है

क्यों अस्तित्व खुद ही बिखर रहा है

हर शख्स जीवन से मुकर रहा है

बस एक धारा बनना चाहा

जो समेटे रहती ध्वनि कल-कल

बहती रहती सदा यूँ ही अविरल

सरोकार न होता जिसे सुख से

न दर्द  होता किसी दुःख से

पहचान न होती किसी पाप की  

न चाहत होती किसी पुण्य…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 3, 2016 at 4:30pm — 4 Comments

​ग़ज़ल...धर्म के नाम पर

कर रहा क्या करम धर्म के नाम पर

आदमी बेशरम धर्म के नाम पर

दान की लाडली देव घर के लिये 

बन गये वो हरम धर्म के नाम पर

लूटते मारते काटते आदमी

ज़न्नतों का भरम धर्म के नाम पर

​​कर दिये हैं फ़ना बेजुबां जानवर

​जुल्म का है चरम धर्म के नाम पर

कौन साईं हुये?और शनि देव है?

है बहस ये गरम धर्म के नाम पर

मिट गया बाँकपन खोइ शालीनता

भाड़ में गइ शरम धर्म के नाम पर…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 27, 2016 at 6:00pm — 9 Comments

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