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Sanjiv verma 'salil''s Blog (225)

मुक्तिका: सदय हुए घन श्याम -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका





सदय हुए घन श्याम





संजीव 'सलिल'

*

सदय हुए घन-श्याम सलिल के भाग जगे.

तपती धरती तृप्त हुई, अनुराग पगे..



बेहतर कमतर बदतर किसको कौन कहे.

दिल की दुनिया में ना नाहक आग लगे..



किसको मानें गैर, पराया कहें किसे?

भोंक पीठ में छुरा, कह रहे त्याग सगे..



विमल वसन में मलिन मनस जननायक है.

न्याय तुला को थाम तौल सच, काग ठगे..



चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.

तारों के सलमे चुप रह बेदाग़… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:06am — 1 Comment

मुक्तिका: आँख में संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



आँख में



संजीव 'सलिल'

*

जलती, बुझती न, पलती अगन आँख में.

सह न पाता है मन क्यों तपन आँख में ??



राम का राज लाना है कहते सभी.

दीन की कोई देखे मरन आँख में..



सूरमा हो बड़े, सारे जग से लड़े.

सह न पाए तनिक सी चुभन आँख में..



रूप ऊषा का निर्मल कमलवत खिला

मुग्ध सूरज हुआ ले किरन आँख में..



मौन कैसे रहें?, अनकहे भी कहें-

बस गये हैं नयन के नयन आँख में..



ढाई आखर की अँजुरी लिये दिल… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 25, 2010 at 9:34am — 1 Comment

नवगीत: नफरत पाते रहे प्यार कर ----- संजीव 'सलिल'

नवगीत:



नफरत पाते रहे प्यार कर



संजीव 'सलिल'

*

हर मर्यादा तार-तार कर

जीती बाजी हार-हार कर.

सबक न कुछ भी सीखे हमने-

नफरत पाते रहे प्यार कर.....

*

मूल्य सनातन सच कहते

पर कोई न माने.

जान रहे सच लेकिन

बनते हैं अनजाने.

अपने ही अपनापन तज

क्यों हैं बेगाने?

मनमानी करने की जिद

क्यों मन में ठाने?

छुरा पीठ में मार-मार कर

रोता निज खुशियाँ उधार कर......

*

सेनायें लड़वा-मरवा

क्या चाहे… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 22, 2010 at 1:30am — 4 Comments

दोहा सलिला: जिज्ञासा ही धर्म है -------संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:



जिज्ञासा ही धर्म है



संजीव 'सलिल'

*

धर्म बताता है यही, निराकार है ईश.

सुनते अनहद नाद हैं, ऋषि, मुनि, संत, महीश..



मोहक अनहद नाद यह, कहा गया ओंकार.

सघन हुए ध्वनि कण, हुआ रव में भव संचार..



चित्र गुप्त था नाद का. कण बन हो साकार.

परम पिता ने किया निज, लीला का विस्तार..



अजर अमर अक्षर यही, 'ॐ' करें जो जाप.

ध्वनि से ही इस सृष्टि में, जाता पल में व्याप..



'ॐ' बना कण फिर हुए, ऊर्जा के… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 18, 2010 at 11:30pm — 1 Comment

विशेष लेख- भारत में उर्दू : संजीव 'सलिल'

विशेष लेख-



भारत में उर्दू :





संजीव 'सलिल'



*



भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 18, 2010 at 9:56am — 3 Comments

चंद अश'आर: तितलियाँ --- संजीव 'सलिल'

तितलियाँ



तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.

हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..

*

तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.

फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..

*

तितलियों को देख भँवरे ने कहा.

भटकतीं दर-दर, न क्यों एक घर रहीं?



कहा तितली ने मिले सब दिल जले.

कौन है ऐसा जिसे पा दिल खिले?.

*

पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.

गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..

*

बागवां के गले लगकर तितलियाँ.

बिदा होते हँसीं, चुप हो, रो… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 15, 2010 at 4:00pm — 2 Comments

लघुकथा: मोहनभोग -संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा: मोहनभोग

-संजीव वर्मा 'सलिल'

*

*

'हे प्रभु! क्षमा करना, आज मैं आपके लिये भोग नहीं ला पाया. मजबूरी में खाली हाथों पूजा करना पड़ रही है.



' किसी भक्त का कातर स्वर सुनकर मैंने पीछे मुड़कर देखा.



अरे! ये तो वही सज्जन हैं जिन्होंने सवेरे मेरे साथ ही मिष्ठान्न भंडार से भोग के लिये मिठाई ली थी फिर...?



मुझसे न रहा गया, पूछ बैठा: ''भाई जी! आज सवेरे हमने साथ-साथ ही भगवान के भोग के लिये मिष्ठान्न लिया था न? फिर आप खाली हाथ कैसे? वह मिठाई क्या… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 11, 2010 at 6:30pm — 3 Comments

जनक छंदी मुक्तिका: सत-शिव-सुन्दर सृजन कर ------- संजीव 'सलिल'

जनक छंदी मुक्तिका:



सत-शिव-सुन्दर सृजन कर



संजीव 'सलिल'



*

*



सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,



नयन मूँद कर भजन कर-



आज न कल, मन जनम भर.







कौन यहाँ अक्षर-अजर?



कौन कभी होता अमर?



कोई नहीं, तो क्यों समर?





किन्तु परन्तु अगर-मगर,



लेकिन यदि- संकल्प कर



भुला चला चल डगर पर.





तुझ पर किसका क्या असर?



तेरी किस पर क्यों नज़र?



अलग-अलग जब… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 11, 2010 at 5:55pm — 1 Comment

हाइकु मुक्तिका: जग माटी का... संजीव 'सलिल'

हाइकु मुक्तिका:



संजीव 'सलिल'

*

*

जग माटी का / एक खिलौना, फेंका / बिखरा-खोया.



फल सबने / चाहे पापों को नहीं / किसी ने ढोया.

*

गठरी लादे / संबंधों-अनुबंधों / की, थक-हारा.



मैं ढोता, चुप / रहा- किसी ने नहीं / मुझे क्यों ढोया?

*

करें भरोसा / किस पर कितना, / कौन बताये?



लूटे कलियाँ / बेरहमी से माली / भंवरा रोया..

*

राह किसी की / कहाँ देखता वक्त / नहीं रुकता.



साथ उसी का / देता चलता सदा / नहीं जो… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 10, 2010 at 2:39pm — 6 Comments

मुक्तिका... क्यों है? ------- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका...



क्यों है?



संजीव 'सलिल'

*

रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?

रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??



थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.

और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??



गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.

आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??



नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.

काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??



उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.

आज… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 9:00am — 3 Comments

मुक्तिका: वह रच रहा... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



वह रच रहा...



संजीव 'सलिल'

*

वह रच रहा है दुनिया, रखता रहा नजर है.

कहता है बाखबर पर इंसान बेखबर है..



बरसात बिना प्यासा, बरसात हो तो डूबे.

सूखे न नेह नदिया, दिल ही दिलों का घर है..



झगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.

अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..



कुछ पल की ज़िंदगी में सपने हजार देखे-

अपने न रहे अपने, हर गैर हमसफर है..



महलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.

आखिर में सबका… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 8:57am — 2 Comments

आदि शक्ति वंदना संजीव वर्मा 'सलिल'

आदि शक्ति वंदना





संजीव वर्मा 'सलिल'



*



आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.



रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....



*



पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.



चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....



*



अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.



कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..







परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 8, 2010 at 5:30pm — 3 Comments

सूरज से आँख मिलाता ''चिराग'' और काल के गाल पर आँसू ढुलकाती उसकी गज़लें

सूरज से आँख मिलाता ''चिराग'' और काल के गाल पर आँसू ढुलकाती उसकी गज़लें



सौजन्य से : रविकान्त<अनमोलसाब@जीमेल.कॉम>, संजीवसलिल@जीमेलॅ.कॉम



कहते हैं उसके यहाँ देर है अंधेर नहीं. काश यह सच हो. ३४ वर्षीय जवान, संभावनाओं से भरे शायर शशिभूषण ''चिराग'' का चला जाना उसके निजाम की अंधेरगर्दी की तरफ इशारा है. पूछने का मन है ''बना के क्यों बिगाड़ा रे, बिगाड़ा रे नसीबा, ऊपरवाले... ओ ऊपरवाले.'' बकौल श्री रविकान्त 'अनमोल': '' 'चिराग़' जैसा संभावनाओं का शाइर ३४ वर्ष की छोटी आयु में चला… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 5, 2010 at 12:00am — 1 Comment

विशेष लेख: देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर -: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-

विशेष लेख:



देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर



रोम जल रहा... नीरो बाँसुरी बजाता रहा...



-: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-



किसी देश का नव निर्माण करने में अभियंताओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका और किसी की नहीं हो सकती. भारत का दुर्भाग्य है कि यह देश प्रशासकों और नेताओं से संचालित है जिनकी दृष्टि में अभियंता की कीमत उपयोग कर फेंक दिए जानेवाले सामान से भी कम है. स्वाधीनता के पूर्व अंग्रेजों ने अभियंता को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उन्हें… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 4, 2010 at 8:31pm — 3 Comments

सामयिक कविता: फेर समय का........ संजीव 'सलिल'

सामयिक कविता:



फेर समय का........



संजीव 'सलिल'

*

फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.

फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..

फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.

फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..



फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.

फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..

फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.

फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 1, 2010 at 12:43am — 2 Comments

लोकगीत:पोछो हमारी कार..... संजीव 'सलिल'

लोकगीत:



पोछो हमारी कार.....



संजीव 'सलिल'

*

ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ, ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.

पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....

*

नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,

गोरी काया मक्खन-मलाई.

तुम कागा से सुघड़, कहे जग-

'बिजुरी-मेघ' पुकार..

ओ सैयां! पोछो हमारी कार.

पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....

*

संग चलेंगी मोरी गुइयां,

तनक न हेरो बिनको सैयां.

भरमाये तो कहूँ राम सौं-

गलन ना दइहों… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 29, 2010 at 7:00pm — 2 Comments

हास्य कविता: कान बनाम नाक --संजीव 'सलिल'

हास्य कविता:



कान बनाम नाक



संजीव 'सलिल'

*

शिक्षक खींचे छात्र के साधिकार क्यों कान?

कहा नाक ने- 'मानते क्यों अछूत श्रीमान?

क्यों अछूत श्रीमान, न क्यों कर मुझे खींचते?

क्यों कानों को लाड़-क्रोध से आप मींचते??



शिक्षक बोला- "छात्र की अगर खींच दूँ नाक,

कौन करेगा साफ़ यदि बह आयेगी नाक?

बह आयेगी नाक, नाक पर मक्खी बैठे.

ऊँची नाक हुई नीची, तो हुए फजीते..



नाक एक है कान दो, बहुमत का है राज.

जिसकी संख्या अधिक हो, सजे शीश… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 28, 2010 at 10:30am — 1 Comment

चंद अश'आर: तितलियाँ --- संजीव 'सलिल'

चंद अश'आर:



तितलियाँ



--- संजीव 'सलिल'



*



तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.

हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..

*

तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.

फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..

*

तितलियों को देख भँवरे ने कहा.

'भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया'?

*

कहा तितली ने 'मिले सब दिल जले.

कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले'..

*

पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.

गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..

*

बागवां के गले लगकर… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:00pm — 3 Comments

नवगीत : बरसो राम धड़ाके से.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:



बरसो राम धड़ाके से



संजीव 'सलिल'

*

*

बरसो राम धड़ाके से !

मरे न दुनिया फाके से !



लोकतंत्र की

जमीं पर, लोभतंत्र के पैर

अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?

अपनेपन की आड़ ले, भुना

रहे हैं बैर

देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर

मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम

धड़ाके से !

मरे न दुनिया फाके से !



कर विनाश

मिल, कह रहे, बेहद हुआ विकास

तम की कर आराधना- उल्लू कहें उजास

भाँग कुएँ में घोलकर,… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:30am — 7 Comments

लेख : हिंदी की प्रासंगिकता और हम. --संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख :



हिंदी की प्रासंगिकता और हम.



संजीव वर्मा 'सलिल'



हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 6:30pm — 5 Comments

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