तसव्वुरात
रुँधा हुआ अब अजनबी-सा रिश्ता कि जैसे
फ़कीर की पुरानी मटमैली चादर में
जगह-जगह पर सूराख ...
हमारी कल ही की करी हुई बातें
आज -- चिटके हुए गिलास
के बिखरे हुए टुकड़ों-सी ...
कुछ भी तो नहीं रहा बाकी
ठहराने के लिए
पार्क के बैंच को अब
अपना बनाने के लिए
फिर क्यूँ फ़कत सुनते ही नाम
मैं तुम्हारा ... तुम मेरा ...
कि जैसे सीनों पर हमारे किसी ने
मार…
ContinueAdded by vijay nikore on February 19, 2014 at 11:30am — 20 Comments
गहराइयाँ
घड़ी की दो सूइयाँ
काली गहराइयाँ
समय के कन्धों पर
उन्मुक्त
फिर भी बंधी-बंधी
पास आईं, मिलीं
मिलीं, फिर दूर हुईं
कोई आवाज़ .. टिक-टिक
बींधती चली गई
था भूकम्प, या मिथ्या स्वप्न
अब वह घड़ी पुरानी रूकी हुई
उखड़े अस्तित्व की छायाओं में
लटक रही है बेजान ।
समय की दीवार
रूकी धड़कन का एहसास ...
और वह सूइयाँ
कोई पुरानी भूली हुई…
ContinueAdded by vijay nikore on February 5, 2014 at 10:00am — 24 Comments
परिचित अपरिचय
गीले भाव, भीगे गाल, स्वप्न रूआँसे
विवेकी-अविवेकी कोषों में बसे
सूक्षमातिसूक्षम खयाल मेरे
रातों तिलमिलाते, क्यूँ ?
गुँथे खयालों से तुम्हारे
अभी बिंधे तुमसे, अभी उलझे मुझमें
सूर्य की किरणों का उल्लास बटोरती
अकेले-अकेले में अपने से सहजतम
तुम भी तो बातें करती नहीं थकती थीं
खयालों की धारा-गति अनचीन्ही
सोच-सोच कर मुझको पगली-सी हँसती ..
आँचल की लहरीली सलवटें शरमा…
ContinueAdded by vijay nikore on January 26, 2014 at 11:30am — 12 Comments
आत्म-धन
होगी ज़रूर कोई गहरी पहचान
दर्द की तुम्हारे इस दर्द से मेरे
कि जाने किन-किन तहों से उभरती
छटपटाती
लौट आती है वही एक याद तुम्हारी
यादों के कितने घने अँधियाले
पेड़ों के पीछे से झाँकती ...
मैंने तो कभी तुमको
इतना स्नेह नहीं दिया था
भीगी आँखों से, हाँ,
भीगी आँखों को देखा था
कई बार... खड़े-खड़े ... चुपचाप
पंख कटे पक्षी-सा तड़पता
ठहर नहीं पाता है मन पल-भर…
ContinueAdded by vijay nikore on January 21, 2014 at 11:00am — 23 Comments
नित्यानंदम स्तयं निरूपम !
श्यामल गंभीर रात्रि
सुनता हूँ संवेदनमय स्वर
"विचारों में गुँथे, वेदना से बिंधे
अस्वीकृत एकाकी मन
तू उदास न हो"
टूटे संबंधों के
वीरान प्रवहमान प्रसारों में
कल की पुरानी किसी की
प्यार भरी हँसी, स्नेहमयी आँखों में
देखो, शायद सुख-शांति मिल जाए
देखो उन आँखों में, इतना न देखो
कि तुम्हें अनजाने
अज्ञात दर्द कोई और मिल जाए
मानवीय…
ContinueAdded by vijay nikore on January 15, 2014 at 2:30pm — 20 Comments
दोस्ती
देखता हूँ सहचर मीत मेरे
सहसा, दोस्ती की निगाहें हैं झुकी हुई
पलकें भीगी
घिरते आए संत्रस्त ख़यालों पर
खरोंचते-उतरते संतप्त ख़याल ...
फिसलते भीगे गालों पर
दोस्ती के वह सुनहले रंग
बिखरते गीले काजल-से
कहाँ हैं दोस्ती की रोश्नी की
वह अपरिमय चिनगियाँ
बनावटी थीं क्या ? नहीं, नहीं,
चमकती थीं वह अपेक्षित आँखों में ...
रुको, माप लूँ मैं बची हुई थोड़ी-सी
उस चमक की…
ContinueAdded by vijay nikore on January 5, 2014 at 9:00am — 24 Comments
हार गया समय ... !
कि जैसे अतिशय चिन्ता के कारण
आसमान काँपा
आज कुछ ज़्यादा अकेला
थपथपा रहा हूँ
कोई भीतरी सोच और
अनुभवों की द्दुतिमान मंणियाँ ...
तुम्हारी स्मृतिओं की सलवटों के बीच
मेरे स्नेह का रंग नहीं बदला
हार गया समय
समझौता करते ...
एकान्त-प्रिय निजी कोने में
दम घुटती हवा
अँधेरे का फैलाव, उस पर
कल्पना का नन्हा-सा आकाश
टंके हुए हैं वहाँ…
ContinueAdded by vijay nikore on December 31, 2013 at 1:00pm — 32 Comments
प्राण-समस्या
सहारा युगानयुग से
फूलों को बेल का, पाँखुरी को फूल का
पत्तों को टहनी का
अब मुझको .... तुम्हारा
बहुत था
बाहों को साँसो के लिए ....
कुछ भी तो नहीं माँगा था
तुमने मुझसे
न मैंने तुमसे .... इस पर भी
स्नेह का अनन्त विस्तार
अभी भी बिछा है बिना तुम्हारे
बारिश की बूँदों में बारिश के बाद
आँगन की सोंधी मिट्टी में
कि जैसे .... तुम आ गए
हर खुला-अधखुला…
ContinueAdded by vijay nikore on December 16, 2013 at 7:00am — 20 Comments
अमृता प्रीतम जी और ईश्वर
कई लोग जो अमृता प्रीतम जी की रचनाओं से प्रभावित हैं अथवा उनके जीवन से परिचित हैं, उनकी मान्यता है कि अमृता जी विधाता में विश्वास नहीं करती थीं। इस कथन में वह ठीक हैं भी और नहीं भी। यह इसलिए कि अमृता जी का लेखक-जीवन इतना लम्बा था कि यह मान्यता इस पर निर्भर है कि वह कब किस पड़ाव में से गुज़रीं, और उनकी उस पड़ाव के दोरान की रचनाएँ क्या इंगित करती हैं।
अमृता जी की रचनाओं के लिए असीम श्रद्धा के नाते और जीवन को उनके समान असीम…
ContinueAdded by vijay nikore on December 11, 2013 at 5:30pm — 18 Comments
वह भीगा आँचल
धूप
कल नहीं तो परसों, शायद
फिर आ जाएगी
अलगनी पर लटक रहे कपड़ों की सारी
भीगी सलवटें भी शायद सूख ही जाएँगी
पर तुम्हारा भीगा आँचल
और तुम अकेले में ...
उफ़ ...
तुमने न सही कुछ न कहा
थरथराते मौन ने कहा तो था
यह बर्फ़ीला फ़ैसला
दर्दीला
तुम्हारा न था
फिर क्यूँ तुम्हारी सुबकती कसक
कबूल कर जाती है…
ContinueAdded by vijay nikore on December 10, 2013 at 9:00am — 31 Comments
निरंतरता
निरंतरता?
निरंतरता क्या है?
यही न
कि पलक के झपकते ही यहाँ
सब बदल जाता है निरंतर
उतर-उतर जाता है दिन
फिसलते हर पल की तरह ...
मेरे उसे जी लेने से पहले
बार-बार
बदल-बदल जाने की निरंतरता
"कल के वायदे
कल के थे
आज की बात कुछ और"
मात्र इतना ही कह कर
बदल जाते हैं दिल ...
हाथ में आया न आया तब
सब छूट जाता है, टूट जाता है
मन का…
ContinueAdded by vijay nikore on November 26, 2013 at 9:30am — 24 Comments
सैलाब
अश्कों के बहते सैलाब से जूझते
जब-जब उस आख़री खत को पढ़ा
बेचैन दुखती आँख से मेरी , हर बार
काँपता आँसू वह तुम्हारा था टपका ...
कहती थी, खुदा से बात की है तुमने
सुख-दुख हमेशा साझा रहेगा हमारा
अच्छा था फ़ैसला यह तुम्हारे खुदा का
खुश हूँ, तुम्हारा दुख तो अब मेरा रहेगा।
कितनी बातें थीं बाकी अभी तो करने को
सिर्फ़ मौसम पर बातें करने के अलावा
दुहरा दिया क्यूँ यादों ने वह किस्सा…
ContinueAdded by vijay nikore on November 19, 2013 at 7:00am — 26 Comments
स्वप्न विलक्षण:
स्मृतिओं की सुखद फुहारें
झिलमिलाती चाँदनी
की किरणों की झालरें
अनन्त तारिकाएँ
सपने में ... और सपने में साक्षात
तुम ... कब से
पूनों में, अमावस में, मध्य-रात्रि के सूने में
इस एक सपने से तुमने, मुझसे
रखा है अविरल अटूट संबंध
वरना स्मृति-पटल पर चन्द्र-किरण-सा
कभी प्रकाश-दीप-सा तैरता
यूँ लौट-लौट न आता ...
…
ContinueAdded by vijay nikore on November 10, 2013 at 6:30am — 34 Comments
विसंगति
अंतरंग मित्र
हितैषी मेरे
हँसती रही हैं साँसें मेरी
स्वप्निल खुशी में तुम्हारी
सँजोए कल्पना की दीप्ति
फिर क्यूँ तुम्हारी खुशी के संग
यूँ उदास है मन
आज
अपने लिए ...?
यादों के झरोखों के इस पार
पावन-समय-पल कभी भटकें
कभी लहराएँ, मंडराएँ
ले आएँ रश्मि-ज्योति द्वार तुम्हारे
हँस दो, हँसती रहो, तारंकित हो आँचल
मुझको तो अभी गिनने हैं तारे
सुदूर-स्थित…
ContinueAdded by vijay nikore on October 23, 2013 at 1:00pm — 22 Comments
भूख
यह सच्ची घटना कई साल पहले की है जब मैं मात्र १८ वर्ष का था। गुजरात के आनन्द शहर से दिल्ली जा रहा था। रास्ते में बड़ोदा (अब वरोदरा) स्टेशन पर ट्रेन बदलनी थी.. फ़्रन्टीयर मेल के आने में अभी २ घंटे बाकी थे। रात के लगभग ११ बजे थे। समय बिताने के लिए मैं स्टेशन के बाहर पास में ही सड़क पर टहलने चला गया। एक चौराहे पर छोटी-सी लगभग ५ साल की बच्ची खड़ी रो रही थी, रोती चली जा रही थी। मेरा मन विचलित हुआ। मैंने उससे पूछा..." क्या नाम है तुम्हारा?" ..वह रोती चली गई। पास में एक…
ContinueAdded by vijay nikore on October 13, 2013 at 12:00pm — 17 Comments
मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२
(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जी" ओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)
कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं ..…
ContinueAdded by vijay nikore on October 6, 2013 at 3:30pm — 30 Comments
हल्की-सी उदासी
भावों की आहट
हल्की-सी उदासी
तुम्हें उदास देख कर ...
हल्की-सी उदासी
अँधेरे की थाहों में तुम्हें
कुछ टटोलते देख कर...
कुछ पहचानी कुछ अनजानी
तुम्हारी चुप्पी भी
चुभती है बहुत ...
सिन्दूर जो तुम्हारी मांग में
सजने को था
बिखरा पड़ा ...
सहसा हिल जाता है दिल
सोचते, ख़्यालों के कंगूरों पर कहीं
अकेली, तुम रो तो नहीं…
ContinueAdded by vijay nikore on October 5, 2013 at 8:00am — 32 Comments
आत्म-मन्थन
कभी-कभी इन दिनों
आत्म-मन्थन करती
जीवन के तथ्यों को तोलती
मेरी हँसती मनोरम खूबसूरत ज़िन्दगी
जाने किस-किस सोच से घायल
कष्ट-ग्रस्त
‘अचानक’ बैठी उदास हो जाती है
लौट आते हैं उस असामान्य पल में
कितने टूटे पुराने बिखरे हुए सपने
भय और शंका और आतंक के कटु-भाव
रौंद देते हैं मेरा ज्ञानानुभाव स्वभाव
और उस कुहरीले पल का धुँधलापन ओढ़े
अपने मूल्यों को मिट्टी के पहाड़-सा…
ContinueAdded by vijay nikore on October 1, 2013 at 1:30pm — 26 Comments
अनुभूति
( जीवन साथी नीरा जी को सस्नेह समर्पित )
अनंत्य सुखमय सौम्य संदेश लिए
भावमय भोर है ओढ़े छवि तुम्हारी,
पल-पल झंकृत, पथ-पथ ज्योतित
आनंदमय नाममात्र से तुम्हारे...
औ, अरुणित उत्कर्षक उष्मा !
संगिनी सुखमय प्राणदायक..!
प्रत्येक फूल के ओंठों पर
विकसित हँसी तुम्हारी,
स्नेहमय उन्माद नितांत
सोच तुम्हारी रंग देती है
स्वच्छंद फूलों के गालों को
गालों के गुलाल से…
ContinueAdded by vijay nikore on September 24, 2013 at 4:30pm — 12 Comments
अनुभव
आज फिर दिन क्यूँ चढ़ा डरा-डरा-सा
ओढ़ कर काला लिबास उदासी का ?
घटना ? कैसी घटना ?
कुछ भी तो नहीं घटा
पर लगता है ... अभी-अभी अचानक
आकाश अपनी प्रस्तर सीमायों को तोड़
शीशे-सा चिटक गया,
बादल गरजे, बहुत गरजे,
बरस न पाये,
दर्द उनका .. उनका रहा ।
सूखी प्यासी धरती, यहाँ-वहाँ फटी,
ज़ख़मों की दरारें ..... दूर-दूर तक
घटना ? .... कैसी घटना…
ContinueAdded by vijay nikore on September 17, 2013 at 12:00pm — 22 Comments
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