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कोरोना पर कुछ दोहे :

कोरोना पर कुछ  दोहे :
वृत कोरोना का नहीं, इतना भी आसान।
रहना निज आवास में, है मात्र समाधान।।
कोरोना के काल से, हुआ विश्व…
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Added by Sushil Sarna on April 1, 2020 at 5:30pm — 4 Comments

गजल(शोर हवाओं....)

22 22 22 22

शोर हवाओं ने बरपाए,

घाव हरे होने को आए।1

बंटवारे का दर्द सुना,अब

देख कलेजा मुंह को धाए।2

रोजी खातिर परदेश गए

घर भागे सब,धक्के खाए।3

आफत ऐसी आई उड़कर

सबने अपने रंग दिखाए।4

बबुआ भैया जो कहते थे,

सबने फिर से हाथ उठाए।5

बांट रहे कुछ मुंह की रबड़ी

खाने को भूखे ललचाए।6

तीर कमान चढ़ाए चलते

दोमुख सबको कौन बताए?7

मांग बना जो राजा,बैठा

दाता लाठी -…

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Added by Manan Kumar singh on April 1, 2020 at 1:20pm — 4 Comments

यक़ीं के साथ तेरा सब्र इम्तिहाँ पर है(७८)

(1212 1122 1212  22 /112 )

यक़ीं के साथ तेरा सब्र इम्तिहाँ पर है

हयात जैसे बशर लग रही सिनाँ पर है

**

हमारा मुल्क परेशान और ख़ौफ़ में है

सुकून-ओ-चैन की अब जुस्तजू यहाँ पर है

**

वजूद अपना बचाने में अब लगा है बशर

न जाने आज ख़ुदा छुप गया कहाँ पर है

**

बचेगा क़ह्र से कोविड के आज कैसे भला 

बशर पे ज़ुल्म-ओ-सितम उसका आसमाँ पर है

**

वहाँ की प्यास भला दूर क्या करे…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on April 1, 2020 at 1:00pm — 7 Comments

एक ग़ज़ल

सुन  रहे  हैं  कि  वो  इक ऐसी दवाई देगा

जिससे  अंधे  को भी रातों में दिखाई देगा



प्यार  से  उसने  बुलाया है मुझे मक़्तल में

जानता हूँ   मैं जो  दावत   में  क़साई देगा



ऐसे चिल्लाओ कि आवाज़ वहाँ तक जाए

एक  दिन  तो  सभी  बहरों को सुनाई देगा



पास  रहता  हूँ  तो मुंह फेर के चल देता है

दूर  जाऊँगा  तो   आने   की   दुहाई  देगा



क़ैदख़ाने   में  उसी  ने  ही रखा सालों तक

जिसने   उम्मीद  जताई   थी   रिहाई  देगा



घुप   अंधेरे  से …

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Added by सालिक गणवीर on April 1, 2020 at 12:00pm — 5 Comments

धूप छाँह होने वाले

तमाम उम्र लगे रहे शहर शहर हो जाने में 
क्यों गांव गांव आज फिर होने लगी है ज़िंदगी …
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Added by amita tiwari on April 1, 2020 at 1:30am — 1 Comment

ग़ज़ल

मुल्क़ है ख़ुशहाल बतलाती रही मुझको हँसी

नित नये किस्सों से भरमाती रही मुझको हँसी

गफ़लतों में झूमते थे छुप गया है सूर्य अब

बादलों की सोच पर आती रही मुझको हँसी

मौत आगे लोग पीछे, था सड़क पर क़ाफ़िला

क़ाफ़िले का अर्थ समझाती रही मुझको हँसी

देखकर मायूस बचपन और सहमी औरतें

चुप्पियाँ हर ओर शरमाती रही मुझको हँसी

गालियों के संग अब तो मिल रहीं हैं लाठियाँ

मौत सच या भूख उलझाती रही मुझको हँसी

अब करोना क़हर…

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Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on March 31, 2020 at 8:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास

2122   2122     2122    212

तोड़ने से पहले मुझको आजमा कर देख ले

अपने घर के एक कोने में सजा कर देख ले

आज भी ज़िंदा है दुनिया में वफ़ा की रोशनी

अपने आंगन में कोई पौधा लगाकर देख ले

कोई अक्षर तुझको मिल जाएगा मेरे नाम का

अपने हाथों की लकीरों को मिला कर देख ले

हौसला करने से मिल ही जाता है सब कुछ यहाँ

वक़्त की भट्टी में बस खुद को तपा कर देख ले

सबसे बढ़कर खूबसूरत कैसे हैं तेरी हया

आइने को आंखों में काजल सजाकर देख…

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Added by मनोज अहसास on March 31, 2020 at 12:31am — 6 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास

कैसा हाहाकार मचा है मालिक करुणा बरसाओ

सन्नाटा खुद चीख रहा है मालिक करुणा बरसाओ

भूख, गरीबी, लाचारी से पहले ही आतंकित थे

एक नया तूफान उठा है मालिक करुणा बरसाओ

वादा तुमने किया था सबसे भीड़ पड़ी तो आओगे

खतरे में फिर मानवता है मालिक करुणा बरसाओ

कौन सुनेगा टेर हमारी बिना तुम्हारे ओ पालक

बेबस मानव कांप गया है मालिक करुणा बरसाओ

तुमने साथ दिया न तो फिर किसके दर पर जाएंगे

सबके मन मे व्याकुलता है मालिक करुणा…

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Added by मनोज अहसास on March 30, 2020 at 10:19pm — 1 Comment

आसमाँ .....

आसमाँ .....

बहुत ढूँढा
आसमाँ तुझे
दर्द की लकीरों में
मोहब्बत के फ़कीरों में
ख़ामोश जज़ीरों में
मगर
तू छुपा रहा
धड़कन की तड़पन में
यादों के दर्पण में
कलाई के कंगन में
वक्त सरकता रहा
सागर छलकता रहा
अब्र बरसता रहा
मगर
तू न समझा
मैं किसे ढूँढता हूँ
पागल आसमाँ
मैं तो
इस दिल की ज़मी का
आँखों की नमी का
अपनी ज़बीं का
आसमाँ ढूँढता हूँ

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on March 30, 2020 at 8:30pm — 3 Comments

ग़ज़ल

हवा ख़ामोश है वीरान हैं सड़कें

बहुत अब हो चुका बेकार मत भटकें

नहीं देंगे झुलसने आग से गुलसन

हमीं हैं फूल इसके रोज़ हम महकें

हमेशा ही रही तूफ़ान से यारी

घड़ी नाज़ुक अभी हम आज कुछ बहकें

हमें मंज़ूर है, हम शंख फूकेंगे

कि अब तो चश्म अपनों के नहीं छलकें

क़सम ले लें लड़ेंगे हम करोना से

मगर ऐसे कि अब दंगे नहीं भडकें

पुराना डर मुझे बेचैन करता जब

कभी उठतीं कभी गिरतीं तेरी…

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Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on March 30, 2020 at 4:30pm — 2 Comments

अ़ज़्म

डरते  हैं  जो मुश्किल से घबराते हैं  ख़तरों से , 

लरज़ीदः क़दम फिर वो मन्ज़िल को नहीं पाते ,, 

गर अ़ज़्म जो पुख़्ता हो लें काम भी हिम्मत से, 

तो  लोग  सितारों  से  आगे  हैं  निकल  जाते ।

                   

'मौलिक व अप्रकाशित' 

Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on March 29, 2020 at 12:19pm — 2 Comments

मेरा सपना

कल नींद में हमने एक सपना देखा।

देखा कि ,मेरा देश बदल गया है।।

जाति ,धर्म का नहीं है रगड़ा

ऊंच-नीच का खत्म है झगड़ा।।

नारी का नहीं है शोषण,

गरीब को भरपूर है पोषण।

सब के, भंडार भरे हैं,

निठल्ले भी काम करें हैं।

ना अपराधों की कही है गंध,

थाना ,कचहरी सब है बंद।

नेता सब सुधर गए हैं,

भ्रष्टाचारी ना जाने किधर गए हैं।

ना रिश्वत है ,ना चित्कार कहीं,

है शांति चहु ओर,

पर जब नींद खुली तो देखा, हकीकत है कुछ और।।



द्वारा भूपेंद्र… Continue

Added by Bhupender singh ranawat on March 29, 2020 at 10:15am — 1 Comment

स्नेह-धारा

स्नेह-धारा

कल्पना-मात्र नहीं है यह स्नेह का बंधन ...

उस स्वप्निल प्रथम मिलन में, प्रिय

कुछ इस तरह लिख दी थीं तुमने

मेरे वसन्त की रातें

मेरी समस्याओं ने

अव्यव्स्थाओं ने, अभिलाषाओं…

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Added by vijay nikore on March 29, 2020 at 8:00am — 3 Comments

तड़प उनकी भी चाहत की इधर जैसी उधर भी क्या ?(७७ )

(1222 1222 1222 1222 )

तड़प उनकी भी चाहत की इधर जैसी उधर भी क्या ?

लगी आतिश मुहब्बत की इधर जैसी उधर भी क्या ?

**

मिलन के बिन तड़पते हैं वो क्या वैसे कि जैसे हम

जो बेचैनी है सोहबत  की इधर जैसी उधर भी क्या ?

**

हुआ है अनमना सा दिल हुई कुछ शाम भी बोझिल

तम्मना आज ख़िलवत की इधर जैसी उधर भी क्या ? 

**

बग़ैर इक दूसरे के जी सकें और मर न पाएँगे

ज़रूरत ऐसी…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 29, 2020 at 12:00am — 7 Comments

दूजा नहीं विकल्प

है मुश्किल आई बड़ी , सारी दुनिया त्रस्त

मिल कर साथ खड़े रहें , कहता है यह वक्त

परमपिता का न्याय तो  सबके लिए समान

अरबों के मालिक भले हों कोई श्रीमान

ईश्वर पर विश्वास का व्यर्थ मुलम्मा ओढ़

कर ना भ्रष्टाचार तू , जीवन यह अनमोल

प्रकृति हमें समझा रही , पर हित लें संकल्प

अन्य बचें तब हम बचें , दूजा नहीं विकल्प

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on March 28, 2020 at 5:30pm — 4 Comments

संदेश समय यह देता है!

प्रभु ने तुम्हें बनाया था जब
साथ तुम्हारे और बहुत कुछ
भी सिरजा था,
तुम अपने मद में भूल गए
किरदार में अपने फूल गए
 
दोहन तो सबका खूब किया
पोषण पर किंतु न ध्यान दिया
सब जीव-जंतु और वृक्ष, नदी
ये सब तुमको कुछ देते हैं
बदले में कुछ ना लेते हैं
 
अस्तित्व से तेरे जुड़े हैं ये
सबके पीछे कुछ कारण हैं
उस कारण को भी भूल…
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Added by Dr Vandana Misra on March 28, 2020 at 5:19pm — 1 Comment

बोल उठी सच हैं लकीरें तेरी पेशानी की(७६ )

(2122 1122 1122 22 /112 )

बोल उठी सच हैं लकीरें तेरी पेशानी की

इस जवानी ने बहुत जिस्म की मेहमानी की

**

क्या दिया कोई किसी अपने को धोका तूने

वज्ह  आख़िर तो कोई होगी पशेमानी की 

**

वक़्त का पहिया लगातार चले मर्ज़ी से

फ़िक्र उसको नहीं दुनिया की परेशानी की

**

आब जिस रूप में हो उसकी बशर है क़ीमत…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 27, 2020 at 11:00pm — 4 Comments

सरकारी राशन



गांव मुहल्लों के लोग कोरोना के कहर के भय से मुक्त अब राहती राशन की आस में खुश हैं।मुखिया, सरपंच और गांव के अगहरिया लोगों के सभी लोग राशन कार्ड धारी हैं ही,लाल कार्ड वाले भी हो गए हैं।भले ही साधन संपन्न हों,तो क्या हुआ?एक बार कुछ ले देकर नाम शामिल हो गए,तो फिर चांदी ही चांदी है।मुफ्त का माल खाते रहिए।पूछता ही कौन है? वातावरण इसी मुआफिक बना हुआ है।कल्लू खेतिहर की बीवी बगल के घर आई है।

" कल अनाज लेने जाना होगा", कल्लू की बहुरिया इतराती हुई बोली।

" कहा से?"अनजान बनती हुई मास्टर भोला…

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Added by Manan Kumar singh on March 27, 2020 at 7:06pm — 2 Comments

ऐ पागल पथिक !

ऐ पागल पथिक ! ठहरो जरा ,

रुको जरा , सांस लो तनिक ,

सम्भलो जरा I

सब कुछ पाने की चाह में ,

कुछ टूट गया उस आशियाने में,

कुछ छूट गया उस हसीं फ़सानें में ,

ठहरों, रुको, उसे सवारों, उसे खोजो जरा I

रुको जरा ........

घर पर नन्हों की आस में ,

और बुजुर्गों की लम्बी प्यास में ,

छूटे किसी साज और रियाज़ में ,

वक्त की चीनी घोलो जरा, कोई सुर ताल छेड़ो जरा I

रुको जरा ........

लूडो की गोटियाँ खोजो ,

शतरंज की बिसात बिछाओ जरा ,

कैरम की धूल…

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Added by Dr. Geeta Chaudhary on March 27, 2020 at 3:32pm — 2 Comments

हिन्दी सी भला मिठास कहाँ?

कोई भी भाषा हो , लेकिन

हिन्दी सी भला मिठास कहाँ ?

जो दिल से भाव निकलते हैं

वह कोमल सा अहसास कहाँ ?

है नर्तन मधुर तरंगों सा

अपना ' प्रणाम ' अन्यान्य कहाँ ?

जिससे झंकृत हृद - तार मृदुल

वह सुन्दरता , उल्लास कहाँ

जब बच्चा ' अम्मा , कहकर के

जा , माँ के गले लिपटता है

इस नैसर्गिक उद्बोधन में

अद्भुत आनन्द , हुलास कहाँ ?

कोई भी भाषा हो , लेकिन

हिन्दी सी भला मिठास कहाँ…

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Added by Usha Awasthi on March 27, 2020 at 9:33am — 10 Comments

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