बने रहें ये दिन बसंत के,
गीत कोकिला गाती
रहना।
मंथर होती गति जीवन की,
नई उमंगों से भर जाती।
कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित,
वसुधा मंद-मंद मुसकाती।
देखो जोग न ले अमराई,
उससे प्रीत जताती
रहना।
बोल तुम्हारे सखी घोलते,
जग में अमृत-रस की धारा।
प्रेम-नगर बन जाती जगती,
समय ठहर जाता बंजारा।
झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे,
तुम प्रकाश बन…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 26, 2014 at 1:30pm — 14 Comments
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सीख लो अधिकार पाना, बेटियों आगे बढ़ो।
स्वप्न पूरे कर दिखाना, बेटियों आगे बढ़ो।
चाहे मावस रात हो, जुगनू सितारे हों न हों,
ज्योत बनकर जगमगाना, बेटियों आगे बढ़ो।
सिर तुम्हारा ना झुके, अन्याय के आगे कभी,
न्याय का डंका बजाना, बेटियों आगे बढ़ो।
ज्ञान के विस्तृत फ़लक पर, करके अपने दस्तखत,
विश्व में सम्मान पाना, बेटियों आगे बढ़ो।
तुम सबल हो, बाँध लो यह बात अपनी गाँठ…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 25, 2014 at 10:00am — 14 Comments
चुपके-चुपके चैत ने, घोला अपना रंग।
और बदन की स्वेद से, शुरू हो गई जंग।
पल-पल तपते सूर्य की, ऐसी बिछी बिसात।
हर बाज़ी वो जीतकर, हमें दे रहा मात।
लू लपटों ने कर लिया, दुपहर पर अधिकार।
दिन भर तनकर घूमता, दिनकर…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 22, 2014 at 10:00pm — 15 Comments
३६)
प्यारा लगता उसका साथ।
रोज़ मिलाता मुझसे हाथ।
बने हमकदम अपना मान,
क्या सखि साजन?
ना सखि लॉन!
37)
जब से वो जीवन में आया।
रोम-रोम में प्यार समाया।
खिले फूल सा महका तन-मन,
क्या सखि साजन?
ना सखि, यौवन!
38)
सखी! रात खिड़की से आया।
फूँक मारकर दिया बुझाया।
चैन लूट ले गया ठगोरा,
क्या सखि साजन?
नहीं, झकोरा!
39)
उससे जुड़े हृदय के तार।
मुझे बुलाता…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 16, 2014 at 3:30pm — 9 Comments
छन्न पकैया, छन्न पकैया, दिन कैसे ये आए,
देख आधुनिक कविताई को, छंद,गीत मुरझाए।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, गर्दिश में हैं तारे,
रचना में कुछ भाव हो न हो, वाह, वाह के नारे।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, घटी काव्य की कीमत,
विद्वानों को वोट न मिलते, मूढ़ों को है बहुमत।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, भ्रमित हुआ मन लखकर,
सुंदरतम की छाप लगी है, हर कविता संग्रह पर।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, कविता किसे पढ़ाएँ,
पाठक भी…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 11, 2014 at 9:30am — 20 Comments
रंग में भीगी हवा,
चंचल चतुर इक नार सी,
गाने लगी है लोरियाँ।
ऋतु बसंती, पाश फैला कर खड़ी
फागुन प्रिया।
सकल जल-थल, नभचरों को खूब
सम्मोहित किया।
भंग में डूबी फिजा ने, खोल दीं मनुहार की,
भावों भरी बहु बोरियाँ।…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 6, 2014 at 12:40pm — 17 Comments
26)
अपने मन का भेद छिपाए।
मेरे मन में सेंध लगाए।
रखता मुझ पर नज़र निरंतर।
क्या सखी साजन?
ना सखि, ईश्वर!
27)
हरजाई दिल तोड़ गया है।
मुझे बे खता छोड़ गया है।
नहीं भूल पाता उसको मन।
क्या सखि साजन?
ना सखि बचपन!
28)
जब से उससे प्रीत लगाई।
थामे रहता सदा कलाई।
क्षण भर ढीला करे न बंधन।
क्या सखि साजन?
ना सखि, कंगन!
29)
जब भी देना चाहूँ प्यार।
बेदर्दी कर देता…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 1, 2014 at 11:30am — 22 Comments
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