बुजुर्ग यानि हमारे युवा घर की आधुनिकतावाद की दौड़ में डगमगाती इमारत के वो मजबूत स्तम्भ होते हैं जिनकी उपस्थिति में कोई भी बाहरी दिखावा नींव को हिला नही सकता.उनके पास अपनी पूरी जिन्दगी के अनुभवों का पिटारा होता हैं जिनके मार्ग दर्शन में ये नई युवा पीढ़ी मायावी दुनिया में भटक नही सकती,लेकिन आज के दौर में बुजुर्गों को बोझ समझा जाने लगा हैं.उनकी दी हुई सीखे दकियानूसी बताई जाती हैं .ऐसा ही मैंने एक लेख में पढ़ा था जिसमे बुजुर्गों को पराली की संज्ञा दी गई.पराली वो होती…
ContinueAdded by babitagupta on April 28, 2018 at 4:46pm — 7 Comments
घर की सुखमयी ,वैभवता की ईटें सवारती,
धरा-सी उदारशील,घर की धुरी,
रिश्तों को सीप में छिपे मोती की तरह सहेजती,
मुट्ठी भर सुख सुविधाओं में ,तिल-तिल कर नष्ट करती,
स्त्री पैदा नही होती,बना दी जाती,
ममतामयी सजीव मूर्ति,कब कठपुतली बन…
ContinueAdded by babitagupta on April 25, 2018 at 6:00pm — 4 Comments
शांत चेहरे पर होती अपनी एक कहानी,
पर दिल के अंदर होते जज्बातों के तूफान,
अंदर ही अंदर बुझे सपनों के पंख उडने को फडफडाते,
पनीली ऑंखों से अनगिनत सपने झांकते
जीवन का हर लम्हा तितर वितर क्यों होता,
जीवन का अर्थ कुछ समझ नहीं आता,
लेकिन इस भाव हीन दुनियां में सोचती,
खुद को साबित करने को उतावली,
पूछती अपने आप से,
सपने तो कई हैं, कौन सा करू पूरा,
आज बहुत से सवाल दिमाग को झकझोरते,
खुद से सवाल कर जवाब…
ContinueAdded by babitagupta on April 23, 2018 at 3:30pm — 5 Comments
सुर्ख अंगारे से चटक सिंदूरी रंग का होते हुए भी मेरे मन में एक टीस हैं.पर्ण विहीन ढूढ़ वृक्षों पर मखमली फूल खिले स्वर्णिम आभा से, मैं इठलाया,पर न मुझ पर भौरे मंडराये और न तितली.आकर्षक होने पर भी न गुलाब से खिलकर उपवन को शोभायमान किया.मुझे न तो गुलदस्ते में सजाया गया और न ही माला में गूँथकर देवहार बनाया गया.हरित विहीन वन में मेरे बासंती फूल जंगल के सूनेपन को बांटता.प्रज्ज्वलित पुष्प धरा को ,नभ को रंगीन बनाते.धरा पर बिछे सूखे,पीले पत्तों पर मेरी मखमली,चटकती कलिया अपनी भावनाओं को…
ContinueAdded by babitagupta on April 21, 2018 at 1:51pm — 2 Comments
क्यों अंजान रखा 'उन काले अक्षरों से'
तेरे लिए क्या बेटा, क्या बेटी,
तेरी ममता तो दोनों के लिए समान थी,
परिवार की गाडी चलाने वाली तू,
फिर, कैसे भेदभाव कर गई तू,
क्यों शाला की ओर बढते कदमों को रोका,
क्यों उन आडे टेढे मेढे अक्षरों से अंजान रखा,
कहीं पडा, किसी किताब का पन्ना मिल जाता,
तो, उसे उलट पुलट करती, एक पल निहारती,
हुलक होती, पढते लिखते हैं कैसे,
जिज्ञासा होती इन शब्दों को उकेरने की,
या फिर…
ContinueAdded by babitagupta on April 19, 2018 at 8:31pm — 2 Comments
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