क्या इसी को मुहब्बत कहते हैं
जब हम बैचेन से रहते हैं
अक्सर कुछ कहने की चाह मे
सपनों मे खोये रहते हैं
क्या इसी को मुहब्बत कहते हैं
उनकी एक झलक पाने के लिए
हम हर दिन राहों मे इंतजार करते हैं
न जाने क्यों हम कुछ कहने से डरते हैं
क्या इसी को मुहब्बत कहते हैं
अक्सर वो सपनों में आती है
आँखें खोलूँ तो न जाने कहाँ चली जाती है
सिर्फ इन आँखों को उसकी ही सूरत भाती है
क्या इसी…
Added by Bishwajit yadav on July 26, 2011 at 10:30am — 6 Comments
अभी कुछ दिनो पहले
Added by Aradhana on July 25, 2011 at 7:30pm — 16 Comments
१.
उम्र के इस पड़ाव पर
खड़ा हूँ ये सोच कर
क्या खोया क्या पाया
समझूँ सबकुछ देख कर
वही पर हूँ
जहाँ पर था
उस समय भी
मैं ही था
आज भी हूँ
उस समय
मैं बालक था
लड़कपन और ठिठोली करता
आज भी हूँ
वही बालक
मगर अंतर हैं
तब वो पुत्र था
आज ये पिता है.
२.
मैं स्कूल नहीं जाऊँगा ,
जब ये शब्द मुझे याद आते हैं
कसम से
बहुत याद…
Added by Rash Bihari Ravi on July 25, 2011 at 7:30pm — 4 Comments
सृष्टि का सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी मनुष्य ,
Added by Rash Bihari Ravi on July 25, 2011 at 7:00pm — 2 Comments
यूँ ज़िन्दगी में आया पहला प्यार
जैसे रेत की तपन में पड़ गई सावन की फुहार
तुमको देखा तो लगा की बस यहीं हैं
जिस पर करना हैं अपना सब कुछ निसार
घंटो छत पर कड़ी धुप में खड़े रहते थे हम
इस इंतज़ार में की बस एक बार हो जाये तेरा…
ContinueAdded by Vasudha Nigam on July 25, 2011 at 3:37pm — 4 Comments
*
नैन
बैन.
नहीं
चैन.
कटी
रैन.
थके
डैन.
मिले
फैन.
शब्द
बैन.
चुभे
सैन.
*
16 december 2010
Added by sanjiv verma 'salil' on July 25, 2011 at 8:46am — 3 Comments
लाश तेरी यादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
रोज दफ़्न करता हूँ रोज खोद लाता हूँ
जो रकीब था कबसे बन गया खुदा मेरा
रोज सर कटाता हूँ रोज सर झुकाता हूँ…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2011 at 3:30pm — 3 Comments
बरखा बहार आयी :-
Added by Mohini Dhawade on July 24, 2011 at 3:18pm — No Comments
ग़ज़ल
लगती है बाज़ार गुज़रते हैं आदमीं
हर रोज़ बिकने खड़े होते हैं आदमीं
उठते हैं हर सुबह जाने क्या सोचकर
इस पेट के आगे पर झुकते हैं आदमीं
तपती दोपहरी में जब लगती है प्यास
बुझे ए कैसे यही सोचते हैं आदमीं …
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 24, 2011 at 9:47am — 2 Comments
मुक्तिका:
जानकर भी...
संजीव 'सलिल'
*
रूठकर दिल को क्यों जलाते हो?
मुस्कुराते हो, खूब भाते हो..
एक झरना…
Added by sanjiv verma 'salil' on July 24, 2011 at 9:00am — 1 Comment
घनाक्षरी सलिला :
छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग.
संजीव 'सलिल'
*
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
नवी रीत बनन दे, नीक न्याब चलन दे, होसला ते बढ़न दे, कउवा काँव-काँव.
अगुवा के कोचिया, फगुवा के लोटिया, बिटिया…
Added by sanjiv verma 'salil' on July 22, 2011 at 8:00am — 5 Comments
Added by rajkumar sahu on July 21, 2011 at 10:35pm — No Comments
"एक"
वो ओजस्वी शब्द जो सब कुछ बदल दिया,
Added by Rash Bihari Ravi on July 21, 2011 at 6:00pm — 2 Comments
Added by rajkumar sahu on July 21, 2011 at 4:57pm — No Comments
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 21, 2011 at 1:46pm — 2 Comments
"चल रहा आदमी"
वक़्त के हासिए पर लटक रहा आदमी
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 21, 2011 at 11:24am — 3 Comments
Added by rajkumar sahu on July 20, 2011 at 9:23pm — No Comments
वो मेरे पास, जाने क्यूँ, दबे-पाँव से आते हैं |
यही अंदाज़ हैं उनके, जो मेरा दिल, चुराते हैं ||
वो जब पहलू बदलते हैं, कभी बातों ही बातों में |
मुझे महसूस होता है, की वो कुछ कहना चाहते हैं ||
इरादा जब भी करता हूँ, मैं हाल-ए-दिल सुनाने का |…
Added by Shashi Mehra on July 20, 2011 at 8:30pm — 1 Comment
कोई आई और मुझे दीवाना बना कर चली गयी
साँसों में मेरी घुल गई
आँखों में मेरी घर कर गयी
दिल के आंगन में आशियाँ बना के बस गयी |
उसे ढूँढूं कहाँ में यूँ गलियों में …
Added by Rohit Dubey "योद्धा " on July 20, 2011 at 2:43pm — 2 Comments
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