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Featured Blog Posts – August 2015 Archive (8)


सदस्य कार्यकारिणी
कबीरा, सूर, मीरा और तुलसीदास रखता हूँ। (ग़ज़ल)

1222---1222---1222-1222

 

मैं घर से दूर आया हूँ मगर कुछ ख़ास रखता हूँ।

तुम्हारी याद की ताबिश हमेशा पास रखता हूँ।

 

कभी वट पूजती हो तुम, दिखा के चाँद को…

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Added by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 2:03pm — 28 Comments

ग़ज़ल:गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं (भुवन निस्तेज)

है खोया क्या  किसे वो आज हर पल ढूँढ़ते हैं,

गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं ।

 

सभाओं में कोई चर्चा कोई मुद्दा नहीं है,

सभी नेपथ्य में बैठे हुए हल ढूँढते हैं ।

 

उन्हें होगा तज्रिबा भी कहाँ आगे सफर का,

वो सहरा में नदी, तालाब, दलदल ढूँढ़ते हैं ।

 

कहीं से खुल तो जाये कोठरी ये आओ देखें,

दरों पर खिडकियों पर कोई सांकल ढूँढ़ते हैं ।

 

यूँ भी बेकारियों का मसअला हो जायेगा हल,

जो अब तक खो दिया है…

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Added by भुवन निस्तेज on August 30, 2015 at 8:30am — 14 Comments

कोण तलाशते लोग

तुम गोलाई में तलाशते हो कोण

सीधी सरल रेखा को बदल देते हो

त्रिकोण में

हर बात में तुम तलाशते हो

अपना ही एक कोण

तुम्हें सुविधा होती है

एक कोण पकड़कर

अपनी बात कहने में

बिन कोण के तुम

भीड़ के भंवर में

उतरना नहीं चाहते

तुम्हें या तो तैरना नहीं आता

या तुम आलसी हो

स्वार्थी और सुविधा भोगी भी

तुम्हें सत्य और झूठ से भी मतलब नहीं है

इस इस देश में गढ़ डाले है

तुमने हजारो लाखों कोण

हर कोण से तुम दागते हो तीर

ह्रदय को…

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Added by Neeraj Neer on August 29, 2015 at 11:14am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नाम माशूक का तो खूँ से लिखा करते थे(तरही ग़ज़ल 'राज')

चीर चट्टान के सीने को मिला करते थे

तब मुहब्बत में सनम लोग वफ़ा करते थे  

 

काट देता था ज़माना भले ही पर नाजुक 

होंसलों से नई परवाज़ भरा करते थे

 

दिल के ज़ज्बात कबूतर के परों पर लिखकर

प्यार का अपने वो  इजहार किया करते थे

 

कैस फ़रहाद या राँझा कई दीवाने तब   

नाम माशूक का तो खूँ से लिखा करते थे

 

एक हम थे  जो जमाने  की नजर से डरकर

जल्द खुर्शीद के ढलने की दुआ करते थे 

 

आज वो रह गए केवल मेरा…

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Added by rajesh kumari on August 23, 2015 at 10:00pm — 19 Comments

गुलाबी जिल्द वाली डायरी [कविता ]

वो थी एक डायरी

गुलाबी जिल्द वाली

अन्दर के चिकने पन्ने

खुशनुमा छुअन लिए

मुकम्मल थी एकदम

कुछ खूबसूरत सा

लिखने के लिए I

 

सिल्क की साड़ियों की

तहों के बीच,

अल्मारी में सहेजा था उसे   

उन मेहंदी लगे हाथों ने,  

सेंट की खुशबू

और ज़री की चुभन

 को   करती रही थी वो  जज़्ब,

हर दिन रहता था      

बाहर आने का  इंतज़ार 

अपने चिकने  पन्नों पर

प्यारा सा कुछ

लिखे जाने का इंतज़ार…

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Added by pratibha pande on August 20, 2015 at 5:00pm — 17 Comments

अति का अंत ( लघुकथा )

अति का अंत



परलोक में सृष्टि के रचयिता, मनुष्यों के कृत्यों से काफ़ी परेशान थे |



रचयिता ने पहले ही भू-लोक में महान हस्तियों के रूप में अवतरित होकर मनुष्यों को सही राह पर चलने की शिक्षा दे चुके थे, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी |



उन्होंने अपने शिल्पकार को बुला कर कहा, " मनुष्यों ने अब बहुत अति कर ली है, जल्द ही इनके अति का अंत करना होगा | "

"पर मनुष्य तो आपको सबसे प्रिय है ना, फिर उनको..? " शिल्पकार ने कहा |

"प्रिय तो मुझे वो जीव भी थे जिन्हें मनुष्य… Continue

Added by Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' on August 19, 2015 at 3:53pm — 10 Comments


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श्रावणी तीझ के अवसर पर कुछ महकती कह-मुकरियाँ

बन सौभाग्य सँवारे मुझको

सावन घिरे पुकारे मुझको

हाथ पकड़ झट कर ले बंदी

क्या सखि साजन?न सखि मेहंदी

 

उसने हाय! शृंगार निखारा  

प्रेम रचा मन भाव उभारा  

प्रेम राह पर गढ़ी बुलंदी

क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी

 

अंग लगे तो मन खिल जाए

खुशबू साँसों को महकाए

प्यारी उसकी घेराबंदी

क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी

 

उसमें महक दुआओं की है

उसमें चहक फिजाओं की है

हिमशीतल निर्झर कालिंदी

क्या…

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Added by Dr.Prachi Singh on August 17, 2015 at 8:15am — 14 Comments

परिणति पीड़ा

परिणति पीड़ा

रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर

हर पल

भटकते कदम पर भी

मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम

जिस-जिस पल  वहीं कहीं पास थी तुम

जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी

खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं

पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग

स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें

था कोई अमंगल भ्रम

भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे

अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार

तुमसे कह न सका पर इतनी…

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Added by vijay nikore on August 16, 2015 at 5:30pm — 30 Comments

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