साँझ ढली तो आसमान से धीरे-धीरे
रात उतर आई चुपके-चुपके डग भरती
स्याह रंग से भरती कण-कण वह यह धरती
शांत हुआ माहौल और सब हलचल धीरे
कल-कल करती धारा का स्वर नदिया तीरे
वरना तो, सब कुछ शांत, भयावह रूप धरे
जीव सभी चुप हैं सहमे, दुबके और डरे
कुछ अनजानी आवाज़ें खामोशी चीरे
मन सहमा जब भीतर यह काली पैठ हुई
लोभ और मोह कितने उसके संग उपजे
भ्रम के झंझावातों में पग पल-पल बहके
साथ सभी छूटे, आभा सारी भाग…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 25, 2013 at 10:00pm — 38 Comments
तुम सोई
सपनों में खोई
अधर मंद मुस्काते हैं
ये सपने
चुपके से आकर
आखिर क्या कह जाते हैं।
बागों में
चंपा महकी है
मंद हवा
बहकी बहकी है
घनी रात को, तारे आकर
रूप नया दे जाते हैं।
रंग भरे
यह श्वेत चांदनी
कण कण में
इक मधुर रागिनी
नींद भरे बोझिल ये नयना
सुध बुध सब हर जाते हैं।
.
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 11:00am — 42 Comments
तिरंगे को लहराता देख
लगता है
हम आज़ाद हैं
आज़ादी सापेक्ष होती है
आज़ाद हैं अंग्रेजों से
जिंदगी तो अब भी वैसी ही है
वही साँसें
वही चीथड़े
वहीं चाँद
टूटता तारा
वही कुआँ खोदना
फटी जेबें
वही बिवाइयाँ।
कहाँ बदला कुछ
राजाओं के रंग बदल गये
भाषा वही है
सत्ता का चेहरा बदलता है
चरित्र नहीं
आजादी का मतलब
निरंकुशता की समाप्ति तो…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 16, 2013 at 7:00am — 18 Comments
पत्थर चुप हैं
वे ज्यादा बोलते नहीं
ज्यादा खामोश रहते हैं
खामोश रहना
जीवन की
सबसे खतरनाक क्रिया होती है
आदमी पत्थर हो जाता है
खामोशी का कोई भेद नहीं
कोई वर्गीकरण नहीं
बस,
दो शब्दों के
उच्चारण के बीच का अन्तराल
जहां कोई ध्वनि नहीं,
दो अक्षरों के बीच की
खाली जगह
जहां कुछ नहीं लिखा;
कोरा
ऐसे ही पत्थर होते हैं
जहां कुछ नहीं होता
वहां पत्थर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 5:00pm — 28 Comments
बार बार भीड़ में
ढूँढता हूँ
अपना चेहरा
चेहरा
जिसे पहचानता नहीं
दरअसल
मेरे पास आइना नहीं
पास है सिर्फ
स्पर्श हवा का
और कुछ ध्वनियाँ
इन्हीं के सहारे
टटोलता
बढ़ता जा रहा हूँ
अचानक पाता हूँ
खड़ा खुद को
भीड़ में
अनजानी, चीखती भीड़ के
बीचों बीच
कोलाहल सा भर गया
भीतर तक
कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती
शब्द टकराकर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 11:30am — 34 Comments
कितने कितने सूरज चमके
पर अँधियारा शेष रहा
तेरे मेरे मन के अंदर
इक संशय फल फूल रहा।।
सरपत के ढेरों झाड़ उगे
तन छू ले कट जाता है
इन बबूल के काँटों से भी
भीतर तक छिल जाता है
सावन की बौछारों में भी
मन उपवन सब सून रहा।।
तुम मिलते हो मुझको जैसे
इक गुजरी तरुणाई सी
भाव खिलें डाली पर कैसे
वह रूखी मुरझाई सी
साज संवार व्यर्थ रहा सब
धूल भरा यह रूप रहा।।
चिड़ियों ने…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 4, 2013 at 3:00pm — 28 Comments
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