ग़ज़ल ( अंजाम तक न पहुंचे )
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मफऊल-फ़ाइलातुन -मफऊल-फ़ाइलातुन
आग़ाज़े इश्क़ कर के अंजाम तक न पहुंचे ।
कूचे में सिर्फ पहुंचे हम बाम तक न पहुंचे ।
फ़ेहरिस्त आशिक़ों की देखी उन्होंने लेकिन
हैरत है वह हमारे ही नाम तक न पहुंचे ।
उसको ही यह ज़माना भूला हुआ कहेगा
जो सुब्ह निकले लेकिन घर शाम तक न पहुंचे ।
बद किस्मती हमारी देखो ज़माने वालो
बाज़ी भी जीत कर हम इनआम तक न…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on September 1, 2016 at 10:17pm — 12 Comments
2122 2122 212
इश्क़ की राहों में हैं रुसवाईयाँ।
हैं खड़ी हर मोड़ पर तन्हाईयाँ।।
क्या करे तन्हा बशर फिर धूप में।
साथ उसके गर न हो परछाइयाँ।।
ऐ खवातीनों सुनों मेरा कहा।
क्यूँ जलाती हो दिखा अँगड़ाइयाँ।।
चाहता हूं डूबना आगोश में।
ऐ समंदर तू दिखा गहराइयाँ।।
दिल दिवाने का दुखा, किसको ख़बर ?
रात भर बजती रही शहनाइयाँ।।
तुम गये तो जिंदगी तारीक है।
हो गयी दुश्मन सी अब रानाइयाँ।।
दूर…
ContinueAdded by डॉ पवन मिश्र on September 1, 2016 at 9:54pm — 6 Comments
रिश्तों के सीनों में ......
कितनी सीलन है
रिश्तों की इन क़बाओं में
सिसकियाँ
अपने दर्द के साथ
बेनूर बियाबाँ में
कहकहों के लिबासों में
रक़्स करती हैं
न जाने
कितने समझौतों के पैबंदों से
सांसें अपने तन को सजाये
जीने की
नाकाम कोशिश करती हैं
ये कैसी लहद है
जहां रिश्ते
ज़िस्म के साथ
ज़मीदोज़ होकर भी
धुंआ धुंआ होती ज़िन्दगी के साथ
अपने ज़िन्दा होने का
अहसास…
Added by Sushil Sarna on September 1, 2016 at 9:30pm — 10 Comments
212 22 12 22122
शूलियों पर चढ़ चुकी सम्वेदनायें ।
बाप के कन्धों पे बेटे छटपटाएं ।।
लाश अपनों की उठाये फिर रहा है ।
दे रही सरकार कैसी यातनाएं ।।
है यही किस्मत में बस विषपान कर लें ।
दर्द की गहराइयां कैसे छुपाएँ ।।
सिर्फ खामोशी का हक अदने को हासिल ।
डूबती हैं रोज मानव चेतनाएं ।।
हम गरीबों का खुदा कोई कहाँ है ।
मुफलिसी पर हुक्मरां भी मुस्कुराएं।।
वो करेंगे जुर्म का अब फैसला क्या ।
जो नचाते सैफई में…
Added by Naveen Mani Tripathi on September 1, 2016 at 9:30pm — 6 Comments
सूनापन
एक ख़ला है, ख़ामोशी है,
जिधर देखो उदासी है,
समय सिफ़र हो गया,
आंसू निडर हो गए,
घेरे हैं लोग,पर कोई साथ नहीं,
सर पर किसी का हाथ नहीं,
शाम खाली गिलास सा,
टेबल पर औंधे मुंह पड़ा है,
मन में चिंता दीमक की तरह,
मन को खाये जा रही है,
दिल की गली ऐसी सूनी है,
मानो दंगे के बाद कर्फ़्यू लगा हो,
शरीर सूखे पेड़ की तरह खड़ा तो है पर,
पीसा के मीनार सा, झुक सा गया है,
कब तक और कहाँ तक
इस सूनेपन, इस अकेलेपन का
बोझ…
Added by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on September 1, 2016 at 6:30pm — 8 Comments
Added by रामबली गुप्ता on September 1, 2016 at 5:30pm — 7 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 1, 2016 at 5:01pm — 6 Comments
Added by Ravi Shukla on September 1, 2016 at 12:21pm — 9 Comments
मई जून का महीना आग बरसाता हुआ सूरज ऊपर से सामर्थ्य से ज्यादा भरी हुई खचाखच बस, पसीने से बेहाल लोग रास्ता भी ऐसा कहीं छाया या हवा का नाम निशान नहीं बस भी मानों रेंगती हुई चल रही हो| एक को गोदी में एक को बगल में बिठाए बच्चों को लेकर रेवती सवारियों के बीच में भिंची हुई बैठी थी| मुन्नी ने पानी माँगा तो रेवती ने बैग से गिलास निकाल कर पैरों के पास रक्खे हुए केंपर से बर्फ मिला ठंडा ठंडा पानी दोनों बच्चों को पिला दिया |पानी देखकर न जाने कितने अपने होंठों को जीभ से गीला करने…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 1, 2016 at 12:17pm — 14 Comments
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