भीतर पुराने धूल-सने मकबरे में
धुआँते, भूलभुलियों-से कमरे
अनुभूत भीषण एकान्त
विद्रोही भाव
जब सूझ नहीं कुछ पड़ता है
कुछ है जो घूमघाम कर बार-बार
नव-आविष्कृत बहाने लिए
अमुक स्थिति को ठेल…
ContinueAdded by vijay nikore on October 19, 2016 at 11:00pm — 14 Comments
झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”
कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”
झील बोली,…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2016 at 10:04am — 22 Comments
नये सरकारी आदेश की प्रति बाबूराम के कार्यालय में पहुँच गयी थी. इस आदेश के अनुसार किसी भी विकलांग को लूला-लंगड़ा, भैंगा-काणा या गूंगा-बहरा आदि कहना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था. सरकार ने यह व्यवस्था दी है कि यदि आवश्यक हुआ तो विकलांग के लिए दिव्यांग शब्द का प्रयोग किया जाए. बड़े साहब ने मीटिंग बुला कर उस सरकारी आदेश को न केवल पढ़कर सुनाया था बल्कि सभी को सख्ती से इसे पालन करने की हिदायत भी दी थी. आज कार्यालय जाते समय बाबूराम यह सोचकर…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 13, 2016 at 3:00pm — 14 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 12, 2016 at 10:00pm — 5 Comments
बहरे हज़ज़ मुसम्मन मक्बुज.....
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
सरे निगाह शाम से ये क्या नया ठहर गया
ये कौन सीं हैं मंजिलें ये क्या गज़ब है आरजू
जिसे सँभाल कर रखा वही समा बिखर गया
अभी है वक़्त बेवफा अभी हवा भी तेज है
अभी यहीं जो साथ था वो हमनवा किधर गया
ये वादियाँ ये बस्तियाँ ये महफ़िलें ये रहगुजर
हज़ार गम गले पड़े…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2016 at 9:53pm — 8 Comments
221 2121 1221 212*
अनमोल पल थे हाथ से सारे फिसल गये
अपनों ने मुंह को फेर लिया दिन बदल गये।।
कुछ ख्वाब छूटे कुछ हुए पूरे, हुआ सफर
यादो के साथ साल महीने निकल गये।।
शरमा के मुस्कुरा के जो उनकी नजर झुकी
मदहोश हुस्न ने किया बस दिल मचल गये।।
बचपन के मस्त दिन भी हुआ करते थे कभी
बस्तो के बोझ आज वो बचपन कुचल गये।।
ओढे लिबास सादगी का भ्रष्ट तंत्र में
नेता गरीब के भी निवाले निगल गये।।
करते है बेजुबान को वो क़त्ल…
Added by नाथ सोनांचली on October 10, 2016 at 5:30am — 22 Comments
Added by दिनेश कुमार on October 9, 2016 at 8:50am — 7 Comments
“उत्कर्ष“
एक टिमटिमाते, बुझते तारे का उत्कर्ष,
देख लोग, होते चमत्कृत,
लेकिन वे बूझने में असमर्थ,
उसका नैपथ्य में छिपा,
गहन, सतत संघर्ष,
रुपहली चमक के पीछे छिपे,
कालिमा के सुदीर्घ, लंबे वर्ष,
फिर भी आशाओं से परिपूर्ण,
बाधाएँ, चुनौतियाँ पार कर,
उत्साहित, प्रसन्नचित्त, प्रकाशमान सहर्ष,
प्रोत्साहन देता अनूठा, गांभीर्य शब्द संघर्ष,
छिपा गूढ इसमें तात्पर्य,
ड़टे रहो कर्तव्यपथ पर “ संग + हर्ष",
अब दूर कहीं मुसकुराता है,…
Added by Arpana Sharma on October 4, 2016 at 5:41pm — 6 Comments
212 212 212 22
ज़िन्दगी को मिरे रायगाँ करके,
चल दिये रंज को मेहमाँ करके,.
बाँह के इस क़फ़स से उड़े, अब क्या?
हसरतें बाँध लें बेडियाँ करके,
बेबसी आदमी की कहाँ ठहरे,
रास्ते पर रहे आशियाँ करके,
पैर के धूल पर वक़्त मेहरबाँ,
धूल उड़ने लगे आँधियाँ करके,
लज़्ज़तें कुछ नहीं, दर्द ओ आंसू,
ये मिले फासले दरमियाँ करके,
वक़्त यूँ ही गुज़रता रहा…
ContinueAdded by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on October 2, 2016 at 1:00pm — 4 Comments
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