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Sheikh Shahzad Usmani's Blog – October 2017 Archive (9)

स्त्री सी मिस्ट्री (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

कुछ तो नया मिल जाए, अपना कुछ रूप-रंग बदल जाये, किसी तरह तो पागल-दीवानों को संतुष्ट किया जाये। इसी सोच के साथ वे सब आज फिर इंतज़ार में थीं, किसी नये अवतार में ढलने के लिए। एक-दूसरे के हालात का जायज़ा लेते हुए उनके बीच विचार विमर्श चल रहा था।

"इन लोगों को तो बस भाषण देना या राग अलापना आता है, बस!"

"करते वही हैं, जो फ़ैशन में है और जो विज्ञापनों में दिखाया, सिखाया जाता है!"

समूह में से दो क़लमों के संवाद सुनकर तीसरी ने कहा -"देशी तन में हमें विदेशी तकनीक के चोले पहनने पड़ते हैं। नई…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 27, 2017 at 1:00am — No Comments

बावले (लघुकथा)

"अरे, इसे रोको तो ज़रा! कौन है यह? इस तरह कहां और क्यों दौड़ा चला जा रहा है ? कहीं यह वही 'विकास' तो नहीं?"

"नहीं!"

"तो क्या यह भी कोई 'राम' नामधारी है?"

"नहीं!"

"तो फिर कौन है यह? किसी 'राधा' का मीत?"

"नहीं, वह भी नहीं!"

"तो क्या 'गंगा' का सेवक?"

"नहीं भाई!"

"तो क्या तथाकथित 'सेवक'; जेहादी, हिन्दुत्व-प्रचारक, इस्लाम या ईसाइयत-प्रचारक?"

"नहीं, हरग़िज़ नहीं!"

"तो फिर कोई भ्रष्टाचारी, आतंकी या सब कुछ जीतने का इच्छुक कोई नया 'हिटलर'?"

"वैसा भी… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 20, 2017 at 11:00am — 9 Comments

कहीं दीप जले, कहीं दिल (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"चलो दिल बहलाने के लिए अब शतरंज खेलते हैं!"

"ठीक है, लेकिन जीतोगी तो तुम ही!"

"ऐसा मत कहो, दिल बहुत भारी है, कोई भी जीते!"

"सच कहती हो, जीत और हार तो अब इस ताजमहल के इतिहास और हक़ीक़त की होनी है, मुमताज़!"

"आज मुझे अर्जुमंद ही कहो, मुमताज़ नहीं, मेरे ख़ुर्रम! ये इक्कीसवीं सदी का हिन्दुस्तान है, डार्लिंग! कुछ देर आज के लवर्स की तरह बातचीत कर लो न! कल यहां क्या हो, किसने जाना!"

"सही कहा तुमने! सुना है यहां का इतिहास बदलने की धमकियां दी जा रही हैं! तुम्हारा ये ताजमहल अब… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 19, 2017 at 5:00am — 13 Comments

मधु-मीतों का व्यक्तिवाद (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"धर्मों, महात्माओं की गरिमा की तो धज्जियां उड़ रही हैं! कितने पवित्र नाम कैसी-कैसी मानसिकताओं के साथ जुड़ गए!"

"नयी पीढ़ी है, उसकी अपनी सोच विकसित हुई है वैश्वीकरण और इंटरनेट के दौर में!"

"क्या यही है जीवन जीने की कला? यह कैसा विकृत रूप है धर्मों, धर्मावलंबियों और विपश्यना जैसी साधनाओं का?!"

"बाबाओं ने पाश्चात्य रंग दे डाले हैं... और कट्टरपंथियों ने आतंक के!"

घटनाओं और हालात पर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी बेबाक चर्चा कर रहे थे। अधिकतर उनकी बुराई कर रहे थे, जबकि उनमें से कुछ… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 17, 2017 at 12:43pm — 8 Comments

तू गांधी की लाठी ले ले (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सभ्यता की तरह तुम भी इतिहास और गांधी जैसे महापुरुषों की लाठियों के सहारे को हमारा सहारा मानने की भूल कर रही हो!" नयी पीढ़ी ने अपने देश की संस्कृति से कहा।

"भूल तो तुम कर रही हो, वैश्वीकरण के दौर में बिक रहे मुल्कों , उनके स्वार्थी नेताओं और बिके हुए बुद्धिजीवियों के बयानों और साजिशों में फंसकर!" संस्कृति ने अपने हाथों में थामी हुई लाठी चूमते हुए कहा - मसलन ये देखो, गांधी जी की लाठी! ये लाठी मेरे लिए उनके अनुभवों, विचारों और दर्शन की सुगठित प्रतीक है। किताबों, काग़ज़ों, चरखों, कलैंडरों से,… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 13, 2017 at 4:57pm — 13 Comments

सिसकते बल्ब (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"कमली, तू तो करवा चौथ के दूसरे दिन भी काफी सुंदर लग रही है, सजी-धजी सी!"

मेम साहब की यह टिप्पणी सुनकर कमली उनके कमरे में और अच्छी तरह से झाड़ू लगाने लगी।

"छोड़ ये झाड़ू-पोंछा.. आ बैठ यहां!" कमली का हाथ खींच कर उसे सोफे पर बैठा कर मेम साहब ने पूछा - "सच, बहुत सुंदर और ख़ुश दिख रही है तू!"

"पर आपके सामने हम कहां!"

"चुप्प! छोड़ ऐसी बातें! अच्छा ये बता, तू कितने वाट की है?"

"वाट!"

"हां, कितना वोल्टेज है तुझ में?" इतना कहकर मेम साहब फफक-फफक कर रोने लगी।

उनके ही… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 10, 2017 at 6:38pm — 4 Comments

हसरतें, फ़ितरतें और तिजारतें (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"मेरे देशवासियों, देश बदल रहा है! कुछ ही सालों में हम सब कुछ बदल डालेंगे!"

छोटे-मोटे नेताओं के बाद अब बड़े नेताजी मंच पर सीना तान कर भाषण दे रहे थे। मंचासीन सेवकों के सीने भी तन चुके थे। थकी हुई जनता उन्हें सुन रही थी।

कुछ जुमले छोड़ने के साथ ही नेताजी अपनी हथेली जनता की ओर करते हुए बोले - "भाइयों और बहनों, मेरे मित्रों! आपके द्वारा चुना गया आपका सच्चा सबसे बड़ा सेवक यानी मैं! मैं पुरानी लकीरें नहीं पीटता, नई लकीरें खींचता हूं। ये हथेली, आपकी हथेली, हथेली नहीं, भारत है भारत!! इसमें… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2017 at 4:40pm — 7 Comments

पेइंग-गेस्ट और ब्लैकमेलर (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"चाय बनाने को लेकर कलह करते हैं।"

"अच्छा! तो तू चाय मत बनाया कर! उसे ही बनाने दिया कर!"

"झाड़ू-पौंछा और घर संवारने की कह-कहकर कलह करते हैं।"

"अच्छा! तू सब कुछ वैसा ही पड़े रहने दिया कर, तू कोई नौकरानी थोड़ी न है, अपनी सरकारी नौकरी के अलावा तू कुछ मत किया कर। अपने आप को संवारो और बच्चों को संभालो!"

"कहते हैं कि बीवी हो, यह सब भी करना ही होगा!"

"अरे! ऐसे शौहर के होते बीवी तो नहीं, बेवा बनना बेहतर है!"

"विधवा जैसी ही तो जी रही हूं, अम्मी!" अपने-अपने काम, अपने-अपने… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 3, 2017 at 11:14pm — 10 Comments

पॉकिटमेन (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"जी नहीं, आर्मी की यूनीफोर्म जैसी नहीं, मेरी सुविधा के अनुसार ही कुछ जेबों वाली शर्ट और पैंट दिखाइये!" अपने कंधे उचकाते हुए स्मार्टमेन ने दुकानदार से कहा। तुरंत ही उसका स्मार्टसन डिमांड स्पष्ट करते हुए बोल पड़ा - "अंकल जी, अच्छे-खासे ब्रांड की ऐसी ड्रेस हो, जिसमें हमारे मोबाइल या टैबलेट वगैरह अच्छी तरह से समा जायें!"

दुकानदार आंखें फाड़कर उन दोनों और उनके पहनावे को घूरने लगा। फिर चार-पांच महंगी शर्ट्स दिखाते हुए बोला -"वैसे कितने मोबाइलों के लिए किस-किस पोजीशन पर जेबें चाहिए… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 2, 2017 at 2:42pm — 6 Comments

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