जीवन जीने का चाव
जहां उग जाता है
कविता कहने का भाव
वहाँ से आता है
अनुभव के बाजारों से
जो लेकर आता हूँ
उसे ही कविता बना के
जीवन में, मैं गाता हूँ
सुख-दुःख हों जीवन के
चाहे हों उत्थान-पतन
सब कविता की कड़ियों में
छिपा लेता हूँ , करके जतन
जीवन में रहते हैं मेरे नव-रंग
कविता जब तुम होती हो संग-संग !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Hari Prakash Dubey on November 29, 2014 at 9:00pm — 10 Comments
जैसे तुमने
तिनका तिनका जोड़ कर
धीरे-धीरे, बनाया अपना घोंसला
वैसे ही
तुमको देख-देख कर
बढ़ता रहा, मेरा भी हौसला
तुम एक- एक दाना चुग कर लायीं
अपने बच्चों को भोजन कराया
मैंने भी, वेसे ही खेतों में फसल लगायीं
दिन रात श्रम कर अन्न उगाया
धीरे धीरे रेत,बजरी ,सीमेंट ले आया
एक- एक ईंट जोड़कर
अपने सपनों का महल बनाया
जिस तरह तुमने अपने बच्चों को
उनके पैरों पर खड़ा किया
उड़ना सिखाया , उड़ा दिया, विदा किया…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 26, 2014 at 10:30pm — 28 Comments
डोभाल जी का मकान बन रहा था, बड़े ही धार्मिक व्यक्ति थे और प्रकृति प्रेमी भी,एक माली भी रख लिया था ,उसका कार्य एक सुन्दर बगीचे का निर्माण करना था ,वह भी धुन का पक्का था , उसने तरह-तरह के फूल ,घास ,पेड़ लगा दिए और कभी –कभी वह सजावट के लिए रंग बिरंगे पत्थर भी उठा कर ले आता और बड़े अच्छे शिल्पी की तरह उन्हें पौधों के इर्द-गिर्द सजाता ,उस बगीचे में अब तरह तरह के फूल खिलने लगे थे ,वही नीचे एक बड़ा काला सा पत्थर भी था जिस पर माली अपना खुरपा रगड़ता और पौधों के नीचे से खरपतवार…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 23, 2014 at 10:00pm — 17 Comments
देखो उसे, दार्शनिक बनकर
फिर बैठेगा, नाक में ऊँगली डालेगा
कुछ निकलेगा, गोल –गोल गोलियायेगा
बिस्तर में पोछेंगा, पर कुछ सोचेगा
आँखे बंद करेगा, चिंतन करेगा
इस पर चिंतन, उस पर चिंतन
कर्म पर चिंतन, भाग्य पर चिंतन
शून्य पर चिंतन, अनंत पर चिंतन
चिंतन से निकले हल पर, चिंतन
चिंतन करते –करते, थककर सो जाएगा
इस दर्शन को, कौन समझ पाया है ?
कौन समझ पायेगा ?,पर मैं जानता हूँ,
जब वह चिंतन से जागेगा ,समय से तेज…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 19, 2014 at 1:00am — 7 Comments
देख रहा था
थकी हुई बस में
थके हुए चेहरे
गाल पिचके हुए
हड्डियाँ उभरी हुई
अवसादित परिणति में
एक सिगरेट सुलगाली
बढते विकारों पर
मैंने किया प्रदान
अपना उल्लेखनीय योगदान
देख रहा था,
लोगों को चढ़ते-उतरते
सीटों पर लड़ते- झगड़ते
शोरगुल के साथ- साथ
पसीने की दुर्गन्ध भरी है
बस अब भी वहीँ खड़ी है
लोग बस को धकिया रहे हैं
ड्राइवर साहब गियर लगा रहे हैं
धीरे धीरे बस चल रही है…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 18, 2014 at 12:30am — 13 Comments
विकृत मस्तिष्क की
उथल पुथल को
तुम क्यों लिखते हो
किसे फ़साने के लिए
ये शब्द-जाल बुनते हो
आड़ी तिरछी रेखायें खींच
छिपा सके न
कुरूपता स्वंय की
अब किसे रिझाने को
व्यर्थ उसमें रंग भरते हो
सावधान अब कुछ मत लिखना
जो लिखा है उसे जला देना
तुम्हारा लिखा नहीं छपेगा
कोई इसे नहीं पढ़ेगा
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Added by Hari Prakash Dubey on November 15, 2014 at 10:30pm — 10 Comments
मन धीरे धीरे रो ले,
कोई नहीं है अपना,
मुख आँसुओं से धो ले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
मात –पिता के मृदुल बंधन में,
था जीवन सुखमय जाता !
ज्ञात नहीं भावी जीवन हित ,
क्या रच रहे थे विधाता !
अन भिज्ञ जगत के उथल पुथल,
क्या परिवर्तन वो निष्ठुर करता,
लख वर्तमान फूलों सी फिरती,
सखियों संग बाहें खोले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
शुभ घड़ी बनी मम मात पिता ने,
वर संग बंधन ब्याह रचाया !
सजी पालकी लिए…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 14, 2014 at 2:30am — 5 Comments
सनन्-सनन् चली पवन
ले के पिया मेरा मन
बंधने लगा प्रेम में
देखो पिया धरती गगन !!
सनन्-सनन् चली पवन
नैन का कजरा तेरा
भडकाने लगा प्रेम अगन
उसपे तेरे हाथ…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 13, 2014 at 1:30am — 2 Comments
तुम
मेरी प्रतीक्षा करना
उस मोड़ पर
मुड जाता है जो
मेरे घर की ओर
मैं दौड़ कर पहुचुंगा
तब भी
जबकि मैं जानता हूँ
सड़क भी अब…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 11, 2014 at 9:00pm — 18 Comments
मुक्त हो गयी आत्मा !
अपने शरीर के बन्धनों से !!
स्तब्ध रह गयी निशा
मृत शरीर के क्रन्दनो से
मुक्त हो गयी आत्मा !
अपने शरीर के बन्धनों से !!
दूर हो गयी आत्मा
अतीत के स्पन्दनो से
राख हो गया शरीर
जलते हुये चन्दनों से
मुक्त हो गयी आत्मा !
अपने शरीर के बन्धनों से !!
शरीर आसक्त हो गया
प्रिया में अंतर्नयनों से
आत्मा छल गयी उसे
अनासक्ति के प्रपंचों से
मुक्त हो गयी आत्मा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 10, 2014 at 7:00pm — 6 Comments
Added by Hari Prakash Dubey on November 8, 2014 at 8:00pm — 16 Comments
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 7:00pm — 9 Comments
तपते सूरज से
पिघल रही है बर्फ
बढ़ रहा है जलस्तर
तुम फिर डूबोगे
किसी मनु को खोजोगे
वह नहीं आयेगा
फिर कौन तुम्हे बचायेगा
प्रलय हो जायेगी
इस बार तुम्हें बचाने
कोई नाव नहीं आएगी
तुम पानी हो जाओगे
पर तुम्हे उठाना होगा
वाष्प बनकर उड़ना होगा
उठो बादल बन जाओ
इस जलते सूरज से टकराओ
इस बर्फ को पिघलने से
अगर तुम बचा पाओगे
तो स्वयं मनु बन जाओगे !!
("मौलिक व अप्रकाशित")
Added by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 12:30pm — 10 Comments
जग को मोहित करने वाला
स्वयं मोहित हो गया है
उसी माया पर
जिसको रचा था
स्वयं उसी ने
इस जग को मोहने के लिए
उस पर अतिव्यापित
हो गयें हैं अनर्गल प्रलाप
प्रपंचों मैं फंसकर
वह स्वयं मनुष्य बन गया है
उस रंगमंच पर उतर गया है
जिसका अंत हमेशा होता है
परदे का गिर जाना
और किसी व्यक्तित्व का
पात्रों की भीड़ में खो जाना
वह अब मंच पर नाच रहा है
लोगों को हंसा रहा है
कभी रुला रहा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 12:00pm — 6 Comments
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