122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 (16-रुक्नी)
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गुजारिश नहीं है, नवाजिश नहीं है, इज़ाज़त नहीं है, नसीहत नहीं है।
ज़माना हुआ है बड़ा बेमुरव्वत, किसी को किसी की जरूरत नहीं है।
किनारे दिखाई नहीं दे रहें है, चलो किश्तियों के जनाज़े उठा लें,
यहाँ आप से है समंदर परेशाँ, यहाँ उस तरह की निजामत नहीं है।
जमीं आसमां…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 31, 2014 at 12:41am — 31 Comments
बॉस के कमरे की अधखुली खिड़की। उसने डूबते सूरज को देखते हुए कहा- “आप मेरे प्रमोशन की बात को हमेशा टाल जाते है.... मेरे हसबेंड के लिए आहूजा ग्रुप में सिफारिश भी नहीं की अब तक... .. उन्होंने तीन महीनों से बातचीत बन्द कर रखी है। हमेशा नाराज रहते है, रोज ड्राइंग रूम में सोते है। पता है, मैं कितनी परेशान हूँ... इस बार पीरियड भी नहीं आया है।”
कहते-कहते वो अचानक मौन हो गई। कमरे में चीखता हुआ सन्नाटा पसर गया था।
क्षितिज पार सूरज तो कब का डूब चुका…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 30, 2014 at 12:45am — 22 Comments
जीवन लड़कैया से, सपनो की नैया से
तारों के पार चलें, आओं ना यार चले
उतनी ही प्यास रहे, जितना विश्वास रहे
मन की तरंगों से पुलकित उमंगों से
आशा के विन्दु से जीवन विस्तार चले........
क्या था जो पाया था, क्या था जो खोया था
था कुछ समेटा जो सारा ही जाया तो
खुशियों की टहनी को थोड़ा सा झार चले.......
डोली पे फूल झरे, दो दो कहार चले
सुन्दर सी सेज सजी, तपने को देख रही
मन की अगनिया को थोड़ा सा बार चले…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 10:30am — 19 Comments
वक़्त के थपेड़ो में.... खर्च आशिकी अपनी
आज फिर मुहब्बत ने हार मान ली अपनी
लफ्ज़ भी किसी के थे, दर्द भी किसी का था
गैर की ग़ज़ल थी तू... सिर्फ सोच थी अपनी
भूख की गुजारिश में रात भर बिता कर के
बेच दी चराग़ों ने........ आज रौशनी अपनी
आजकल कहीं अपना जिक्र भी नहीं मिलता
वक़्त था कभी अपना, बात थी कभी अपनी
आशना तसव्वुर में........ कुर्बते मयस्सर है
फिर किसी परीवश से जान जा लगी अपनी
आसमान की…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 12:52am — 16 Comments
आरम्भ
मिल गए शख्स दो,पास आने लगे
कैनवस ज़िन्दगी का सजाने लगे
रोज फिर वो मुलाकात करने लगे
हर मुलाकात का रंग भरने लगे
मध्यांतर
कैनवस रोज़ रंगो से भरने लगा
वो ख़ुशी से ग़मों से संवरने लगा
देखते देखते दिन गुजरने लगे
ज़िन्दगी के सभी रंग भरने लगे
अंत
हर मुलाकात के रंग घुल मिल गए
और मिलके सभी रंग क्या कर गए
ये करामात या कसमकस देखिये
आज काला हुआ कैनवस…
Added by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2014 at 2:38am — 8 Comments
122-122
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जहां में लगा है
खुदी से जुदा है
हुआ मैं पशेमाँ
गज़ब देखता है
कभी रूह झांको
खुदा बोलता है
सजन शे’र जैसा
लबों पे सजा है
सजा ज़िन्दगी की
अजब फैसला है
हंसी जब्त कर लो
हंसी में सदा है
बड़ी दास्तां है
मगर ये ज़दा है
सफ़र है गली में
मकां में अमा है
ग़मों का य’ दरिया
कहे कब…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2014 at 8:00pm — 24 Comments
1222-1222-122
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अदावत क्या करे कोई किसी से
परेशां हर कोई जब ज़िन्दगी से
अकीदत आपकी सूरज से लेकिन
हमारी बेरुखी है रौशनी से
पसीना लफ्ज़ बनकर बह रहा है
किसी खामोश बैठी शायरी से
अता जिसको कभी शोहरत नहीं है
कहाँ मिलते है ऐसे आदमी से
सदा सूरज के आगे क्यों सिमटती
किसी ने प्रश्न पूछा चांदनी से
हुकूमत जुल्म किस पर कर रही है
सभी खामोश अपनी बेबसी से…
Added by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2014 at 1:00am — 36 Comments
11212 x 4 ( बह्र-ए-क़ामिल में पहला प्रयास)
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न वो रात है, न वो बात है, कहीं ज़िन्दगी की सदा नहीं
न उसे पता, न मुझे पता, ये सिफत किसी को अता नहीं
वो खुशी कभी तो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही कहाँ
कोई दश्त जिसमे नदी न हो, हूँ शज़र कभी जो फला…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 1:30am — 48 Comments
मेरा मन दरपन है।
देखी छब तेरी,
आँखों में सावन है।
वो पागल लडकी है।
ऐसी बिछडन में.
वो कितना हँसती है।
क्यूँ उलटा चलते हो।
वक़्त सरीखे तुम,
हाथों से फिसलते हो।
जब शाम पिघलती है।
ऐसे आलम में,
क्यूं रात मचलती है।
सूरज को मत देखों ।
उसका क्या होगा,
चाहे पत्थर फेंकों ।
सूरज ने पाला है।
हँसता रातों में,
ये चाँद निराला…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 9:03am — 25 Comments
Added by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 2:00am — 21 Comments
1222-1222-1222-1222
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समंदर पार वालों ने हमारा फ़न नहीं देखा
जवाँ अहले वतन ने आज तक बचपन नहीं देखा
जुरूरी था, वही देखा, ज़माने की ज़ुबानों में
कि मीठी बात देखी है कसैलापन नहीं देखा
तबस्सुम देख के मेरी, तसल्ली हो गई उनको
हमारी आँख में सोया हुआ सावन नहीं देखा
निजामत का भला अपना वतन कैसा…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 20, 2014 at 4:56am — 28 Comments
प्रेम की गुनगुनी धूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
हंस रहा रश्मियाँ भेजकर
तीर्थ के दीप सा बल रहा
कष्ट में पुष्प सा खिल गया
अनगिनत विश्व का छंद है
कांति का शांति का रूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
ब्रह्म के कण विचरते हुए
बल तेरा मिल गया हर दिशा
शून्य में रूप तू इष्ट का
अस्त पर व्यस्त तू फिर कहीं
कर्म का धर्म का यूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
सृष्टि के पुत्र का…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 19, 2014 at 3:50am — 20 Comments
पूरब से जैसे चले, शीतल मंद बयार ।
मैं रोया तुम रो पड़ी, समझो जीवन पार ।१।
जीवनसाथी तू सखी, इक मंदिर का छंद ।
तेरे सहचर में मिला, पूजा का आनंद ।२।
तेरी फूलों-सी हंसी, कलियों सी मुस्कान ।
जीवन को जैसे मिला, खुशियों का सामान।३।
ईश्वर ने कैसा रचा, तेरा मेरा साथ ।
मेरी ताकत बन गए, मेंह्दी वाले हाथ ।४।
रिश्ता अपना खूब है, तू शाखा मैं पात ।
बिन बोले क्या खूब तू, समझे मेरी…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2014 at 10:30pm — 17 Comments
22-22-22 / 22-22-2 / 22-22-22
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ये नींद उड़ाते है,
ख़्वाब हसीं लेकिन,
रातों को रुलाते है।
नाचों फिर रो लेना,
कुछ शब बाकी है,
तारों फिर सो लेना।
सरहद पे दुश्मन है,
सरहद आँखों में,
आँखों में सावन है।
दो नैन हुए गीले,
बाप बिदाई दे,
लो हाथ हुए पीले।
गंगा में नहा लेना,
माटी फूल बने,
गंगा…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 13, 2014 at 8:00pm — 6 Comments
212 / 212 / 212 / 212 / 212 / 212 / 212 / 212
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चाँद से रूठ के जब गई चाँदनी, कुर्बतो-फासले याद आने लगे
जब हवा में नमी आज छाने लगी, दो नयन बावले याद आने लगे
वो अमरबेल तो पेड़ को खा रही, शाख के फूल से शबनमी…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 13, 2014 at 12:30am — 19 Comments
1 2 2 2
हुआ पैदा कि धोके से, किसी का पाप मैं बन के
मुझे फेंका गया गन्दी कटीली झाड़ियों में फिर
कि चुभती झाड़ियाँ फिर फिर, कि होता दर्द भी फिर फिर
यहाँ काटे कभी कीड़े, वहां फिर चीटियाँ काटे
पड़ा देखा, उठा लाई, मुझे इक चर्च की दीदी.
हटा के चीटियाँ कीड़े, धुलाए घाव भी मेरे
बदन छालों भरा मेरा, परेशां मैं अज़ीयत से
खुदा से मांगता हूँ मौत अपनी सिर्फ जल्दी से
बड़ी नादान दीदी वो, लगाती जा रही मरहम
दुआ…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 10, 2014 at 1:30am — 15 Comments
22-22-22 / 22-22-2 / 22-22-22
मस्जिद न शिवाला है,
दिल में रहता तू,
तेरा घर भी निराला है.
तू मन का दरपन है
बस एक उजाले से,
सूरज भी रौशन है.
देखों मन का आँगन,
बादल आँखों में,
फिर खूब झरा सावन.
लो छूटा अपना घर,
एक मुसाफिर हूँ,
लम्बा है आज सफ़र.
सूरज जब ढल जाए,
मन अँधियारा हो,
तब दीपक जल जाए.
परबत पर बादल है,
दरिया बहता…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 1:00am — 16 Comments
[ 2 2 1 2 ]
वो आज ही बेवा हुई !
बुझ-सी गई जब रौशनी, जमने लगी जब तीरगी,
बदली यहाँ फिर ज़िन्दगी, वह आज ही बेवा हुई !
क्यूं तीन बच्चे छोड़कर, मुंह इस जहां से मोड़कर,
वो हो गया ज़न्नतनशीं, वो आज ही बेवा हुई !
है लाश नुक्कड़ पे पड़ी, मजमा लगा चारो तरफ,
उस पर सभी नज़रें गड़ी, वह आज ही बेवा हुई !
वो रो रही फिर रो रही, बस लाश को वो ताकती,
उसने कहा कुछ भी नहीं, वो आज ही बेवा हुई !
फिर यकबयक वो चुप हुई,…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 5, 2014 at 2:30am — 19 Comments
मुट्ठी में कब रेत भी, ठहरी मेरे यार।
चार पलों की जिंदगी, बाकी सब बेकार।।
जीवन की इस भीड़ में, सबके सब अनजान।
सिर्फ फलक ही जानता, तारों की पहचान।।
पाप पुण्य जो भी किया, सब भोगे इहलोक।
जाने कैसा कब कहाँ, होगा वो परलोक।।
आँखों ने जाहिर किया, कुछ ऐसा अफ़सोस।
आँखों पे कल धुंध थी, अब आँखों में ओंस।।
व्यर्थ मशालें ज्ञान की, प्रेम पिघलते दीप।
बिखरी है हर भावना, सिमटा दिल का सीप।।
सागर से…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 3:00am — 11 Comments
घर बदला, बदला जहां, बदले बदले लोग ।
अर्थ बदलते देखिए, क्या जोगी क्या जोग ।।
पलकों से उतरी जरा, धीरे धीरे रात ।
शामों की दहलीज पे, साए करते बात ।।
धुंधली धुधली हो गई, यादों की सौगात।
अफरातफरी वक़्त की, ये कैसे हालात।।
आवाजे होती गई, सब की जब खामोश।
शहर बिचारा क्यों मढ़े, सन्नाटे को दोष।।
ढलती शामों में किया, पीपल ने संतोष।
बिछड़ गई परछाइयाँ, सूरज भी खामोश ।।
हमने जब से ले लिया, इश्क़…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 3:00am — 8 Comments
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