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दो ग़ज़लें.....

= एक =

कोई ऐसी सज़ा न दे जाना.

ज़िंदगी की दुआ न दे जाना.

दिल में फिर हसरतें जगा के मेरे,

दर्द का सिलसिला न दे जाना.

वक्त नासूर बना दे जिसको-

यूँ कोई आबला न दे जाना.

सफ़र में उम्र ही कट जाए कहीं,

इस क़दर फ़ासला न दे जाना.

साँस दर साँस बोझ लगती है,

ज़िंदगी बारहा न दे जाना.

इस जहाँ के अलम ही काफ़ी हैं,

और तुम दिलरुबा न दे जाना.

पीठ में घोंपकर कोई ख़ंजर,

दोस्ती का सिला न दे जाना.

इल्म हर शय का उन्हें है "साबिर"

तुम कोई… Continue

Added by डॉ. नमन दत्त on June 6, 2011 at 9:30am — 6 Comments

केदार और महेन्द्र

मेरे अग्रज कवि केदारनाथ अग्रवाल का व्यक्तित्व

पत्रों के आइने में ॰॰॰॰

[महेंद्रभटनागर]

 

महेंद्र के नाम केदार की पाती

संदर्भ : …

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Added by MAHENDRA BHATNAGAR on June 6, 2011 at 9:30am — No Comments

उनको हरजाई बताऊँ तो बताऊँ कैसे !

उनको हरजाई बताऊँ तो बताऊँ कैसे !

खुद हंसी अपनी उडाऊं तो उडाऊं कैसे !!


मुझको ईकान है वो अब भी वफ़ा कर लेंगे !
बेवफा उनको बताऊँ तो बताऊँ कैसे !!


शोला ए हिज्र से ये और भड़क जाती है !
आग इस दिल की बुझाऊं तो बुझाऊं कैसे !!


उनके दरयाऐ मुहब्बत में है मौजों का हुजूम !
कश्तिये इश्क चलाऊं तो चलाऊं कैसे…
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Added by Hilal Badayuni on June 6, 2011 at 1:41am — 9 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हम ठगे जाते रहे हैं..

हम लुटे हैं

हम ठगे हैं.. और ये होता रहा है पुरातन-काल से..

हम ठगाते ही रहे हैं..

उन हाथों ठगे जिन्हें

प्रकृति-मनुज का क्रमान्तर बताना था

काल-मनवन्तर रचना और बनाना था

वर्ग-व्यवहार निभाना था..

हम ठगे गये उन आत्म-अन्वेषियों/खोजियों के हाथों

छोड़ गये जो पीछे बिलखता समुदाय, पूरा समाज

परन्तु यह वर्त्त न पा सका एक मुसलसल रिवाज़

फिर, हम फिर ठगे गये उनसे

जिन्होंने अपनी रीढ़हीन मूँछों और अपनी अश्लील ज़िद के आगे

पूरे राष्ट्र को रौंदवा दिया.. और धरवा… Continue

Added by Saurabh Pandey on June 6, 2011 at 1:20am — 6 Comments

कविता : विद्रोह

भ्रष्टाचार के विरोध में हम भी खड़े हैं इस छोटी सी कविता के साथ

 

विरोध कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
कि कायम रहे
अणुओं का कंपन

अणुओं का कंपन कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
विद्रोह का तापमान

वरना ठंढा होते होते
हर पदार्थ
अंततः विरोध करना बंद कर देता है
और बन जाता है अतिचालक

उसके बाद
मनमर्जी से बहती है बिजली
बिना कोई नुकसान झेले
अनंत काल तक

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 5, 2011 at 10:19pm — 4 Comments

मंज़र खींचातानी का

मंज़र खींचातानी का

अनशन है बाबा जी का

 

राहुल बाबा गायब हैं

लगता सब फीका फीका

 

गायब है चालीस खरब

सवा अरब की कंट्री का

 

काला धन आये वापस

मुंह काला हो दोषी का

 

दस मारो और एक गिनो

नशा हिरन हो लोभी का

Added by वीनस केसरी on June 4, 2011 at 3:30pm — 2 Comments

गजल-सोच समझकर कदम उठाना।

गजल-

सोच समझकर कदम उठाना।

कहीं ऐसा न हो पडे पछताना।।



यह दुनियां इतनी गोल है दोस्तों।

कोई न यहां अटल ठहराना।।



जिसने गम को खा लिया।

उसे क्या खाना औ खिलाना।।



जिनको कोई समझ नहीं हैं।

मुश्किल हैं उनको समझाना।।



हुक्म देना आसाँ होता हैं लेकिन।

मुश्किल हैं करना औ करवाना।।



अभी आज कल या बरसो बाद।

आखिर इक दिन सबको जाना।।



नसीब में लिखा ही मिलता हैं।

सबको यहां पे आबो-दाना।।



हम तो तेरे हो…

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Added by nemichandpuniyachandan on June 4, 2011 at 12:30pm — No Comments


प्रधान संपादक
2 घनाक्षरी छंद

(माँ-बाप)



घर बूढ़े माता पिता, भूख से बेहाल दोनों,

बेटा पत्नी को लेकर, पार्टी उडाय रहा !



पीठ संग लग चुका, पेट बूढ़े बुढिया का

साथ गया टौमी कुत्ता, मुर्गी चबाय रहा !



आधी रात बीत गई, आए नहीं बेटा बहू

बुरा बुरा सोच कर, जी घबराय रहा !



हाथ उसका पकड़, बापू समझाए माँ को

धीरज धरो तनिक, बेटवा आय रहा !

------------------------------------------------

(विकास)



जंगलों का खून हुआ, घोसले उजड़ गए,

पंछियों के भाग्य आया, केवल… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on June 4, 2011 at 8:30am — 5 Comments

"गाँधी का देश"

गाँधीवादी गुण्डों ने ही लूट लिया गाँधी का देश

जात पात मजहब पंथों में फूट लिया गाँधी का देश॥

 

रघुपति राघव राजाराम मंदिर के कारण बदनाम,

ईश्वर या अल्लाह का नाम अब करवाता कत्ले-आम।

सत्य प्रेम की पगडंडी से छूट लिया गाँधी का देश॥

 

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई बन बैठे हैं आज कसाई,

चंगुल में हैवानों के मानवता बकरी सी आयी।

कर हलाल हैं रहे हाय! अब टूट लिया गाँधी का देश ।।

 

गाँधी जी का धर्म अहिंसा, इनका है…

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Added by आचार्य संदीप कुमार त्यागी on June 3, 2011 at 8:28am — 2 Comments

गजल-आंखों में उल्फत का अंजन लगाईए

गजल

आंखों में उल्फत का अंजन लगाईए।
टूटते हुए रिश्तों पे बंधन लगाईए।।


गर जज्बातो में नफरत की बू आये तो।
ऐसे सवालातों पे मंजन लगाईए।।


जब कभी जुल्मो-सितम हद से गुजर जाये।
तब अम्न के लिये जानो-तन लगाईए।।


लेने के बदले कुछ देना भी सिखिये।
हर जगह मुफ्त का ना चंदन लगाईए।।


जब रंजों-गम से दिल चंदन बेकरार हो जाये।
तब अंतस में धुन अलख निरंजन लगाईए।।

Added by nemichandpuniyachandan on June 2, 2011 at 12:00pm — 3 Comments

जीवन एक डब्बा

इसमें हमारा यथार्थ है,

जो बची खुची आक्सीज़न में,

सांस लेता है,

और इसमें है कल्पनाओं का भण्डार,

जो आँख खोले है,

पर बीच बीच सोता है;

इसमें ही भावनाओं का अम्बार है,

थोड़ी हंसी है,

थोड़े हैं आंसू,

एक चहकता परिवार है;

इसमें ही मन है,

चाहतों का दर्पण है,

जिसमे शक्ल नहीं दीखती,

पर इनपे सब अर्पण है...

इसमें हमारा कल है, आज है,

और कल का मनन है,

और इसमें हम कितना ही झगड़ लें,

इसमें ही अमन है,

यूँ तो ये बहुत छोटा है,

पर इसमें… Continue

Added by neeraj tripathi on June 2, 2011 at 11:48am — 5 Comments

करता है

मोहब्बत की कोई जब भी यहाँ पर बात करता है

न जाने क्यों मेरा दिल ये उसी को याद करता है



किसी मंदिर मे जाऊं या किसी मज़्ज़िद मे जाऊं मैं

मेरा दिल बस उसे पाने की ही फ़रियाद करता है



कभी रांझा बनाता है कभी मजनू बनाता है

जहाँ मे इश्क़ लोगों को योहीं बर्बाद करता है



शिकायत बस यही बाकी रही दिल मे मेरे यारों

मोहब्बत ही नही करता जहाँ बस बात करता है



कभी कहना नहीं मासूम जग को हाल दिल का भी

कोई मायूस करता है तो बस हमराज़ करता है… Continue

Added by Pallav Pancholi on June 2, 2011 at 12:30am — 2 Comments

सुबह की किरण

मेरे आंगन में जब सुबह की पहली किरण आती हैं ,
तो कभी मैं उसको,
तो कभी अपनी माँ को निहारती हूँ ,
न जाने क्यों मुझे इन दोनों में
एक समानता सी लगती है 
उधर पूरब से भास्कर सफ़र शुरू करता है
और इधर माँ का दिन शुरू होता है
हाथ में जल का लोटा उठाये
कुछ मंत्रो के साथ,
हर सुबह मनमोहक हो जाती है
मेरे आंगन में जब सुबह की पहली किरण आती हैं ,

Added by Neet Giri on June 1, 2011 at 6:30pm — 4 Comments

कुछ हाइकू

जीवन क्रम
संगत-असंगत
जड़ चेतन


नदी की धारा
काँपती पतवार
मन भँवर


चढ़ती धूप
लम्बी परछाइयाँ
ढलती धूप


धुप्प अंधेरा
दिए की हिलती लौ
आखरी आस


सूना आंगन
चाँदनी चुप-चाप
व्यथित मन


मन के रिश्ते
छितरे तार-तार
ऐसे बेगाने

बासी हो जातीं
दिल में बसी यादें
टूटें सपने

 

Added by Neelam Upadhyaya on June 1, 2011 at 5:00pm — 5 Comments

मेरा कलाम मेरी आवाज़ में

ओबीओ पर आप दोस्तों ने मेरा कलाम पढ़कर हमेशा मेरी हौसला-अफ़्ज़ाई की है । आप क़द्रदानों के लिये मैं अपनी ताज़ा ग़ज़ल को, जोकि "OBO लाइव तरही मुशायरा" अंक ११ में शामिल हुई थी, अपनी ख़ुद की आवाज़ में पेश कर रहा हूं । इसे सुनने के लिये नीचे दिये बॉक्स के प्ले बटन को क्लिक करें :…

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Added by moin shamsi on June 1, 2011 at 2:30pm — 14 Comments

एक बार पीकर देखो ये जीवन का जाम हैं ,

एक बार पीकर देखो ये जीवन का जाम हैं ,

आपके ही लिए है ये आप ही का नाम हैं ,
पहले आपको मिला माँ बाप भाई का साया ,
बचपन में मस्त रहना ये आपका काम हैं ,
दोस्त मनाएँ खुशिया मनाये यौवन में जब पाँव धरे ,
गलती कर गए मस्ती में ये भूल की शाम हैं ,
जो सुधरा वही बन गया अब चेहरा आदर्श का ,
उम्र की ढलती बेला में दीखता तमाम है ,
पावन कोमल निर्मल सुबह के जैसा बचपन हैं…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 1, 2011 at 1:00pm — 2 Comments


मुख्य प्रबंधक
आपके ओपन बुक्स ऑनलाइन की चर्चा अब अखबार में भी

आदरणीय साथियों,

 

आप सभी का ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के प्रति समर्पण और विश्वास अब मिडिया की नज़रों में भी आने लगा है, लखनऊ से प्रकाशित प्रसिद्ध हिंदी समाचार पत्र जन सन्देश टाइम्स ने ओ बी ओ के बारे में एक बड़ा सा Article छापा है | आप सभी को बधाई |…



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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 1, 2011 at 12:00am — 20 Comments

बड़ा वक़्त हो गया

यह रचना मेरे छोटे से (उम्र से तो २८ साल का है पर लगता मेरे बेटे जैसा ही है), बहुत प्यारे से भाई के लिए लिखी है, वो दिल्ली में रहता है और उससे मिले करीब ढाई साल हो गए हैं... मेरे दो भाई हैं एक बड़ा और एक छोटा, इश्वर करे सब को ऐसे भाई मिलें

 

शानू के हाथों में तेरे हाथ नज़र आते हैं,

मगर तेरे हाथों को हाथ में लिए बड़ा वक़्त हो गया

 

स्काइप पे तुझे देख-सुन लेती हूँ,

पर तुझे गले से लगाए बड़ा वक़्त हो गया

 

कोई ख़ास बात होती है तो ही…

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Added by Anjana Dayal de Prewitt on May 31, 2011 at 9:00pm — No Comments

दारू का दानव

निम्नांकित पद्यों में घनाक्षरी छंद है, ‘कवित्त’ और ‘मनहरण’ भी इसी छन्द के अन्य नाम हैं। इसमें चार पंक्तियाँ होती है और प्रत्येक पंक्ति में ३१, ३१ वर्ण होते हैं। क्रमशः ८, ८, ८, ७ पर यति और विराम का विधान है, परन्तु सिद्धहस्त कतिपय कवि प्रवाह की परिपक्वता के कारण यति-नियम की परवाह नहीं भी करते हैं। यह छन्द यों तो सभी रसों के लिए उपयुक्त है, परन्तु वीर और शृंगार रस का परिपाक उसमें पूर्णतया होता है। इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास के चारों कालों में इसका बोलबाला रहा है। मैं इस छन्द को छन्दों का…

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Added by आचार्य संदीप कुमार त्यागी on May 31, 2011 at 8:19am — 9 Comments

बेवफ़ाओं से दोस्ती

मुझसे तन्हाई मेरी ये पूछती है,

बेवफ़ाओं से तेरी क्यूं दोस्ती है।

 

चल पड़ा हूं मुहब्बत के सफ़र में,

पैरों पर छाले रगों में बेखुदी है।

 

पानी के व्यापार में पैसा बहुत है,

अब तराजू की गिरह में हर नदी है।

 

एक तारा टूटा है आसमां पर,

शौक़ की धरती सुकूं से सो रही है।

 

बिल्डरों के द्वारा संवरेगा नगर अब,

सुन ये, पेड़ों के मुहल्ले में ग़मी है।

 

हां अंधेरों का मुसाफ़िर चांद भी है,

चांदनी के…

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Added by Dr. Sanjay dani on May 31, 2011 at 7:08am — 2 Comments

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