Added by नादिर ख़ान on December 29, 2017 at 10:30pm — 4 Comments
1.
शायद आज बच जाओ
साम दाम दण्ड भेद से
मगर एक कैमरा
नज़र रखे है
हर करतूत पर
बिना साम दाम दण्ड भेद के .....
2.
मत उलझाइये खेल
मत कीजिये घाल-मेल
सीधी है ... सीधी ही रहने दीजिये
जिंदगी की रेल
3.
उठ रहे हैं बच्चे
सूरज के जागने से पहले
ठिठुर रहे हैं बच्चे
पीठ में बोझ लिए
झेल रह हैं बच्चे
भविष्य का दण्ड…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on December 25, 2017 at 1:30pm — 10 Comments
उसे होश में आया देख डॉक्टर का नुमाइंदा पास आया और फरमान सुनाने लगा । अपने घर बात करके 15 हज़ार रुपये काउंटर में जमा करवा दो बाकि के पैसे डिस्चार्ज के समय जमा करा देना । मगर साहब मै बीमार नहीं, बस दो दिन से भूखा हूँ। उसकी आवाज़ घुट के रह गई, नुमाइंदा जा चुका था ।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by नादिर ख़ान on December 9, 2017 at 10:00pm — 12 Comments
1.
उतारिए चश्मा
पोछिये धूल
चीज़ें खुदबखुद... साफ़ हो जाएँगी ।
2.
ज़रूरी है… सफाई अभियान
शुरुआत कीजिये
दिल से ....
3.
गंदगी सिर्फ मुझमे ही नहीं
तुम में भी है मित्र
ज़रा अंदर तो झाँको ....
4.
जब ईमान गिरवी हो
ज़मीर बिक चुका हो
कौन उठायेगा बीड़ा
समाज की सफाई का ....
5.
साफ़ नहीं होती गंदगी
बार बार उंगली दिखाने…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on November 26, 2017 at 8:00pm — 10 Comments
(22 22 22 22)
क्यूँ है तू बीमार मेरे दिल
गम से यूँ मत हार मेरे दिल
तय है इक दिन मौत का आना
इस सच को स्वीकार मेरे दिल
पहले ही से दर्द बहुत हैं
और न ले अब भार मेरे दिल
सुनकर भाषण होश न खोना
ये सब है व्यापार मेरे दिल
कौन यहाँ पर कब बिक जाए
रहना तू हुशियार मेरे दिल
झूठ खड़ा है सीना ताने
सच तो है लाचार मेरे दिल
दिल के कोने में रहने दे
प्यार…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on November 2, 2017 at 12:30am — 7 Comments
वह किसान था
लड़ता रहा उम्र भर
कभी सूखे की मार से
तो कभी बाढ़ की तबाही से
कभी बेमौसम बारिश से
तो कभी ओला वृष्टि से .....
वह किसान था
सहता रहा उम्र भर
हर तक़लीफ
हर गम
ताकि भरा रहे पेट दूसरों का .....
वह किसान था
करता रहा गुज़ारा
बचे खुचे पर
वह सीख गया था, एडजस्ट करना
प्रक्रति के साथ......
वह किसान था
खुश रहता था
हर परिस्थिति…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on August 11, 2016 at 11:00am — 5 Comments
वो छुपाते रहे अपना दर्द
अपनी परेशानियाँ
यहाँ तक कि
अपनी बीमारी भी….
वो सोखते रहे परिवार का दर्द
कभी रिसने नहीं दिया
वो सुनते रहे हमारी शिकायतें
अपनी सफाई दिये बिना ….
वो समेटते रहे
बिखरे हुये पन्ने
हम सबकी ज़िंदगी के …..
हम सब बढ़ते रहे
उनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on February 3, 2016 at 6:30pm — 12 Comments
अरे ये क्या किया आपने, वक्त ज़रूरत के लिए एक ज़मीन थी वो भी बेच दी कल को बेटी की शादी करनी है और रिटायरमेंट के बाद के लिए कुछ सोचा है । एक सहारा था वह भी चला गया ।
अरे भाग्यवान, बेटी के इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन के लिए ही तो बेचा है, और बुढ़ापे का सहारा ये ज़मीन जायजाद नहीं हमारे बच्चे हैं और उनकी तरबियत की जिम्मेदारी हमारी है । रही बात शादी की तो, न लड़की की शादी में दहेज़ देंगे, न लड़के की शादी में दहेज़ लेंगे
हिसाब बराबर है, न लेना एक न देना दो ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by नादिर ख़ान on December 2, 2015 at 10:45pm — 16 Comments
२१२२ ११२२ ११२२ २२
अपनी खुशियों पे नया रंग चढ़ाकर देखो
बंद पिंजरे के ये पंछी तो उड़ाकर देखो
मेरी आँखों से बहा जाता है आँसू बनकर
अपनी यादों में कभी खुद को जलाकर देखो
बात बन जायेगी बिगड़ी है जो सदियों से यहाँ
तुम ज़रा अपनी अना को तो झुकाकर देखो
सिर्फ बातों के सहारे न हवा में उड़ना
तुम हकीकत नज़र आज मिलाकर देखो
तुमको हर नेकी के बदले में मिलेगी खुशियाँ
राह में सबके…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on November 24, 2015 at 6:30pm — 12 Comments
भरी दोपहरी मई के महीने में वो दरवाज़े पर आया और ज़ोर ज़ोर से आवाज़ लगाने लगा खान साहब…….. खान साहब……..| मेरी आँख खुली मैंने बालकनी से झाँका | एक ५५-६० साल का अधबूढ़ा शख्स, पुराने कपड़ों, बिखरे बाल और खिचड़ी दाढ़ी में सायकल लिए खड़ा है। मुझे देखते ही चिल्ला पड़ा फलाँ साहब का घर यही है| मैंने धीरे से हाँ कहा और गर्दन को हल्की सी जेहमत दी | वो चहक उठा उन्हें बुला दीजिये | मैंने कहा अब्बा सो रहे हैं, आप मुझे बताएं | उसने ज़ोर देकर कहा, नहीं आप उन्हें ही बुला दीजिये , कहियेगा फलाँ शख्स आया है। मुझे बड़ा…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on October 28, 2015 at 12:30pm — 7 Comments
है काम बहुत कुछ करने को, यूँ हमने कब आराम किया दिन न देखा रात न देखी बस जीवन भर काम किया
मज़दूर हूँ मै, मजबूर हूँ मै, हर हाल में मैंने काम किया फिर भी सबने मेरे आगे, दर्द का कड़वा जाम किया
|
Added by नादिर ख़ान on July 26, 2015 at 4:30pm — 7 Comments
1
जारी है कवायद
शब्दों को रफ़ू करने की
बुलाये गए हैं
शब्दों के खिलाड़ी
शब्द
काटे जोड़े और
मिलाये जा रहे हैं
रचे और रंगे जा रहे हैं
शब्दों का सौंदर्यीकरण जारी है
2
शब्द
कभी चाशनी में
घोले जा रहे हैं
तो कभी छौंके जा रहे हैं
कढ़ाई में
फिर जारी है खिलवाड़
हमारे सपनों का
3
भाँपा जा रहा है मिजाज़
हर शख्स का
अचानक…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on May 2, 2014 at 8:30am — 11 Comments
1
गिरते – गिराते
उठा-पटक
शातिर चालें
शह और मात
जूतम पैजार
चमकाते हथियार
भड़काते विचार
हो जाइए तैयार
फिर गरम है
चुनावी बाज़ार ।
2
चापलूसों की फौज
शहीदों का अपमान
गिरती इंसानियत
बेचते ईमान
लड़ते –लड़ाते
शोर मचाते
लक्ष्य है जीत।
3
झूठ पे झूठ
आरोप प्रत्यारोप
काम का दिखावा
बातों से…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on April 9, 2014 at 9:00pm — 7 Comments
(एक)
तुम क्या चुकाओगे
मेरी मेहनत की कीमत
मेरी जवानी
मेरे सपने
मेरी उम्मीदें
सब-कुछ तो दफ्न है
तुम्हारी इमारतों में।
(दो)
जब चलती हैं
झुलसा देने वाली गर्म हवाएँ
कवच बन जातीं है
यही सूरज की किरणें
हमारे लिए ।
मुसलधार बारिश
जब हमारे बदन को छूती है
फिर से खिल उठता है
हमारा तन
ऊर्जावान हो…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on January 16, 2014 at 10:30pm — 16 Comments
नियम/अनुशासन
सब आम लोगों के लिए है
जो खास हैं
इन सब से परे हैं
उन पर लागू नहीं होते
ये सब
ख़ास लोग तो तय करते हैं
कब /कौन/ कितना बोलेगा
कौन सा मोहरा
कब / कितने घर चलेगा
यहाँ शह भी वे ही देते हैं
और मात भी
आम लोग मनोरंजन करते हैं
आम लोगों का रेमोट
ख़ास लोगों के हाथों में होता है
वे नचाते हैं
आम लोग नाचते हैं.....
मगर हालात
हमेशा एक जैसे नहीं होते
और न ही…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on January 8, 2014 at 12:00pm — 11 Comments
(1)
हमारे सपने लेते रहे आकार
बड़े और बड़े
महानगर की इमारतों की तरह
भव्य और विशाल
हमारे सपने
बढ़ते रहे
आगे और…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on December 20, 2013 at 12:30pm — 22 Comments
फिर चुनावी दौर शायद आ रहा है
द्वेष का बाज़ार फिर गरमा रहा है
मेंमने की खाल में है भेड़िया जो
बोटियों को नोंच सबकी खा रहा है
इस तरह से सच भी दफ़नाया गया अब
झूठ को सौ बार वो दुहरा रहा है
क्या वफ़ादारी निभायी जा रही है
देवता, शैतान को बतला रहा है
बोझ दिल में सब लिए अपने खड़े हैं
ख़ुद-से ही हर शख़्स अब शरमा रहा है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by नादिर ख़ान on August 18, 2013 at 8:00pm — 9 Comments
बहुत ख़ुशनसीब हैं
हम लोग
हमारे सिर पर
हाथ है माँ का
क्योंकि
माँ का आँचल
हर छत से ज़्यादा
मज़बूत होता है
सुरक्षित होता है…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on May 9, 2013 at 1:00pm — 12 Comments
Added by नादिर ख़ान on April 16, 2013 at 5:52pm — 5 Comments
Added by नादिर ख़ान on March 28, 2013 at 5:21pm — 7 Comments
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |