राजू मोबाइल से गाना सुनने में मस्त था- "वो इक लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था।"
तब तक उसके कानों में पिता जी की आवाज गूंजी- "सूरदास का पद नहीं सुन सकते थे क्या? या मीरा, तुलसी, कबीर का भजन सुनते?"
राजू डर गया और उसने गाना सुनना बंद कर दिया।
दो दिन बाद की बात है पिता जी अपने मोबाइल से गीत सुन रहे थे-"धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाये।"
तब तक उनके कानों में आवाज गूँजी- "पिता जी! यह किसका पद या भजन है?"
मौलिक व अप्रकाशित
(संशोधित)
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 10, 2013 at 2:00pm —
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बचपन में हम कागज की नाव बनाया करते थे
पानी में उसे तैराया करते थे
कागज के हेलिकाप्टर उड़ाया करते थे
रेत के घर बनाया करते थे
निर्जीव गुड्डे- गुड्डियों की शादी रचाया करते थे
तितलियाँ प्यारी लगतीं थीं
वस्तुएं जिज्ञासा पैदा
करतीं थीं
बचपन का उमंग था
हौंसलों में दम था
यह आशंका नहीं थी
कि कागज की नाव डूबती है या नहीं
हेलिकाप्टर उड़ता है या नहीं
रेत का घर टिकता है या नहीं
तितलियाँ सहचर होती हैं या नहीं
ज्यों ज्यों हम बड़े…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 20, 2013 at 8:08pm —
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उजाला चाहते हैं वज्म में खुद जलना होगा,
सफर तय करना है तो गिर कर सम्भलना होगा।
इतनी आसानी से मंजिल नहीं मिलती यारों,
जिन्दगी की रफ्तार को कुछ बदलना होगा॥
मंहगाई की रफ्तार यूँ बढ़ती जा रही है,
इसी के इर्द- गिर्द दुनिया सिमटती जा रही है।
तिस पर ये बेरोजगारी घोटाले और लूट,
ये जिन्दगी इक दलदल में बदलती जा रही है॥
सुना है उसने एक नई कार खरीद ली,
समझता है जिन्दगी में रफ्तार खरीद ली।
पर क्या पता उस नादान अहमक को,
अपने पाले में मुसीबत…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 13, 2013 at 9:03pm —
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मालिक सबका एक है, खुदा गॉड भगवान।
धर्म पंथ में बांटकर, भटक गया इंसान॥
निराकार साकार ही, दोनों ईश्वर रूप।
देह और छाया सदृश, संग-संग हैं धूप॥
सूरज तारे चांद सब, सगुण ईश के रूप।
नियति नियम निर्गुण कहें, अद्भुत भव्य अनूप॥
ईश प्राप्ति निज खोज है, खोज सके तो खोज।
मोह निशा से घिर मनुज, बाहर भटके रोज॥
आत्मरूप में जाग नर, भटक नहीं अन्यत्र।
तुझ में ईश्वर ईश तू, तू ही तू सर्वत्र॥
धूम- अग्नि दिन- रात से, सुख से दुख…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 12, 2013 at 1:04pm —
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कारगिल हार के जो, हार पे ही गर्व करे,
हार जूतियों का उस नीच को पिन्हाइये।
एक से न काम चले, जूता एक और मिले,
भाई एक जोड़ी मेरा, पूरा करवाइये॥
पाक पाप धूर्तबाज, कल बल छल बाज,
कपटी से शांति बात, भूल मन जाइये।
अफजल कसाब ज्यों, मनुजता के शत्रु को,
फांसी पर चढ़ाओ या, तोप से उड़ाइये॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 31, 2013 at 4:47pm —
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कोयल दीदी! कोयल दीदी! मन बसंत बौराया।
सुरभित अलसित मधु मय मौसम, रसिक हृदय को भाया॥
कोयल दीदी! कोयल दीदी! वन बंसत ले आयी।
कूं कूं उसकी बोली प्यारी, हर जन मन को भायी॥
कोयल दीदी! कोयल दीदी! बागों में फूल खिले।
लोभी भौंरे कलियों का भी, रस निर्दय चूस चले॥
कोयल दीदी! कोयल दीदी! साजन घर को जाओ।
मुझ विरहा की विरह वेदना, निष्ठुर पिया सुनाओ॥
कोयल दीदी! कोयल दीदी! कू कू करके गाए।
जग में मीठी बोली अच्छी, राग द्वेष मिट जाए॥
कोयल…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 21, 2013 at 12:42pm —
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(सार / ललित छंद16+12मात्रायें:- छन्नपकैया छंद पर एक प्रयोग )
ईचक दाना बीचक दाना,होली होली प्यारी।
भर पिचकारी साजन मारी,रंगी सारी सारी॥
ईचक दाना बीचक दाना,उड़ता रंग अबीरा।
हुलियारों की टोली आयी,गाते फाग कबीरा॥
ईचक दाना बीचक दाना,भंग चढ़ी अब हमको।
प्रेम पर्व होली है भाई,रंग दूँगा मैं सबको॥
ईचक दाना बीचक दाना,गुझिया हलवा पूरी।
गुलगुल्ला और छने जलेबी,खाये धनिया झूरी॥
ईचक दाना बीचक दाना,दादा दादी छुपकर।
छक्कर पीते भंग झूमते,रंग खेलते…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 20, 2013 at 11:00am —
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देश में विदेश के सलाहकार सेनदार,
प्रीति में अनीति रीति, भूल के न लाइये।
नीतिवान बुद्धिमान, राजकाज जानकार,
नेक राज एक बार, देश में बनाइये॥
जाति-पांति भेद-भाव, ऊँच-नीच के दुराव,
हैं समाज कोढ़-घाव, दूर छोड़ आइये।
देवियाँ करें पुकार, तात मान एक बात,
लाज आज नारियों कि, देश में बचाइये॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 15, 2013 at 2:41pm —
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सैनिक शहीद हुए, फिर नाउम्मीद हुए,
मौन सरकार आज, कोई तो बुलाइये।
राज फरमान जारी, सोलह की उम्र न्यारी,
प्यारियों से रास खूब, जमके रचाइये॥
कानून गया भाड़ में, खुदकुशी तिहाड़ में,
खोखली सरकार को, जड़ से मिटाइये।
माँ भारती पुकारती,हैं देवियाँ गुहारती,
लाज आज नारियों की, देश में बचाइये॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2013 at 8:55pm —
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अपनी गलती को प्रिये! मत समझो तुम भार।
दूध फटा तो क्या हुआ, कर पनीर तैयार॥
जीवन का उद्देश्य क्या, मिला हमें क्यों जन्म।
परमपिता को याद कर, करें निरन्तर कर्म॥
घृणा और पर डाह से, हो खुशियों का नाश।
प्रेम और सद्भाव से, मन में भरे प्रकाश॥
प्रेम और विश्वास हैं, दोनों एक समान।
जबरन ये न हो सके, चाहे जाये जान॥
दृश्य बदलते हैं प्रिये! बदलो अपनी दृष्टि।
निज नजरों के दोष से, दोषी दिखती सृष्टि॥
मेरी गलती भूलते, प्रतिदिन ही…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2013 at 7:30pm —
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और नहीं कुछ दीजिये,हे! आगत नववर्ष।
मेरा भारत खुश रहे,सदा करे उत्कर्ष॥
ईश अलख लख जायगा,लख अंखिया निर्दोष।
मान बड़ाई ताक रख,ईश दिये संतोष॥
भूमि गगन वायू अनल,और संग में नीर।
अग्र वर्ण भगवान बन,विरचित मनुज शरीर॥
दुर्भागी तुम हो नहीं,मत रोओ हे! तात।
भाग्य सितारे चमकते,गहन अंधेरी रात॥
राम चंद्र के देश में,छाया रावण राज।
रामसिंह ही कर रहे,हरण दामिनी लाज॥
दुखियारी मां भूख से,मांग मधुकरी खाय।
बेटा बसे विदेश मे,खरबपती…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2013 at 8:49am —
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नारियों के सम्मान में,मिल अभियान करें,
लाज आज देवियों का,देश में बचाइये।
प्रेम की प्रतीक नारी,जीवन सरीक नारी,
माँ-बहन रूप नारी,सकल बचाइये॥
नारियां जो नहीं रहीं,नर भी बचेंगे नहीं,
प्रकृति और पुरुष,रूप को बचाइये।
दुर्गा-भवानी पूजे,घर में बहू को फूँकें,
बेटी-भ्रूण कोख मारें,सृष्टि को बचाइये॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 12, 2013 at 7:58am —
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आदरणीय गुरुजनवृंद सादर नमन!यथा सम्भव प्रयास के बाद में ओ.बी.ओ महोत्सव में मैं अपनी उपस्थिति नहीं हो सका,जिसका मुझे हार्दिक कष्ट है।बंगलौर से एक सेमिनार के बाद अभी घर पहुँच रहा हूँ।हालांकि अब तो आयोजन में शामिल नहीं हो सकता किन्तु उसी पृष्टभूमि में एक चौपाई गीत प्रस्तुत कर रहा हूं-
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दुनिया है रंगों का मेला।
कितना उजला कितना मैला॥
जीवन ने बहु रंग दिखाया।
बचपन अरुण रंग मन भाया॥
यौवन का वह चटकीलापन।
अल्हड़ मस्ती…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 11, 2013 at 6:17pm —
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रचें छंद में काव्य
छंदों में ही बात हो,छंदों में लें सांस।
छंद बद्ध कविता रचें,नित्य करें अभ्यास॥
नित्य करें अभ्यास,शिल्प तब सधता जाये।
लेकिन भाव प्रधान,नहीं इसको बिसरायें॥
अंलकार,रस,छंद,और गुण हो शब्दों में।
वेद मंत्र की शक्ति,निहित तब हो छंदो में॥
कविता को मत ढूढ़िये
कविता तो मिल जायगी,यदि हो कवि की दृष्टि।
जिसका जितना पात्र हो,भर पाता जल वृष्टि॥
भर पाता जलवृष्टि,ठीक कविता ऐसी है।
मन में उठी तरंग,और सरिता जैसी…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 11, 2013 at 3:56pm —
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कल तो हरदम कल रहता है।
कल को मनुज विकल रहता है॥
कल को किसने कब देखा है।
यह आशाओं की रेखा है॥
हमें सदा बस यह खलता है।
कभी नहीं यह कल रुकता है॥
सबकी इच्छा कल अच्छा हो।
कल से पूर्व कलन अच्छा हो॥
मित्र!आज से कल बनता है।
कल की चिंता क्यों करता है॥
कल-बल से कल पकड़ न आया।
बहुत जनों ने जोर लगाया॥
कल तो काल सदृश लगता है।
बड़े-बड़ों को कल छलता है॥
कल बहुतों का कल ले लेता।
कल को छीन विकल कर देता॥
कल…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 5, 2013 at 9:00pm —
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1-प्रेम पर्व होली
होली के हुड़दंग में,डूबा सारा गांव।
बालक वृद्ध जवान सब,एक सदृश बर्ताव॥
एक सदृश बर्ताव,करें हिल-मिल नर नारी।
उड़ते रंग गुलाल,संग मारें पिचकारी॥
होली प्रेम प्रतीक,सभी लगते हमजोली।
मिटा हृदय के बैर,बंधु खेलें हम होली॥
2-देवर पर भंग का नशा
डटकर पी ली भंग तन,मन पे काबू नाय।
भाभी से देवर कहे,रंग दूं गाल लगाय॥
रंग दूं गाल लगाय,बुरा मानो तुम चाहे।
हाबी फागु आज,जवानी जोश चढ़ा है॥
इतना करो न नाज,कहाँ जाओगी…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 5, 2013 at 12:30pm —
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अपना काम निकाल,भूल हमको वो जाता।
कहता उसको आम,बना जो भाग्य विधाता॥
मन पछताये खूब,बेल विष नेता बोया।
ठगे गये हम लोग,देख अपनापन खोया॥
हमको ले पहचान,वोट लेना जब होता।
सबसे दुआ-सलाम,कौल जमके वह करता॥
सुधरा चतुर सियार,लगे हर जन को गोया।
ठगे गये हम लोग,देख अपनापन खोया॥
जीता चतुर सियार,चाल अब बदली उसकी।
भूला सारे कौल,हौल अब मन में उठती॥
टूटे सारे ख्वाब,हृदय विह्वल हो रोया।
ठगे गये हम लोग,देख अपनापन खोया॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 27, 2013 at 6:57pm —
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कंह गोरी पनघट कहाँ,कंह पीपल की छांव।
पगडंडी दिखती नहीं,बदल रहा है गांव॥
बदल रहा है गाँव,खत्म है भाईचारा।
कुछ परिवर्तन ठीक,किन्तु कुछ नहीं गवारा॥
ग्लोबल होते गाँव,गाँव की मार्डन छोरी।
कहें विनय नादान,कहाँ पनघट कंह गोरी॥
पगडंडी ये गाँव की,सड़क बनी बेजोड़।
जो जाती है शहर को,जन्म-भूमि को छोड़॥
जन्म-भूमि को छोड़,कमाने रोजी जाते।
करते दिनभर काम,रात फुटपाथ बिताते॥
भर विकास का दम्भ,शहर कितना पाखंडी।
हमको आये याद,गाँव की वो…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 24, 2013 at 12:30pm —
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भोली जनता को नेता जी मूर्ख बनाना बंद करो।
जनता जाग गई अब दिल्ली धौंस दिखाना बंद करो॥
जन्तर मन्तर से जनता का आजादी अभियान शुरू।
झूठे वादे तानाशाही गया जमाना बंद करो॥
हम सब के मत से ही नेता तुम इतने मतवाले हो।
है तेरी कुछ औकात नहीं रौब दिखाना बंद करो॥
चूस रहे हो खून हमारा अब हमको अहसास हुआ।
शहद लगे विषधर डंकों को पीठ चुभाना बंद करो॥
हम सबके श्रम के पैसों से पाल रहे हो तुम गुण्डे।
परदे के पीछे से छुपकर तीर चलाना बंद…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 14, 2013 at 5:00am —
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रामकरन अपनी पत्नी मुनिया से बोले-"श्यामा की अम्मा हमार करेजा तौ मुंहके आवत बाय।श्यामा 14 साल की हुइ गई ओकर सादी करेक हा।"
"हां हो हमहुक इहै चिंता खाये जात बाय।चिट्ठी पाती भरेक पढ़िये चुकी है,अउर इ जमाना बहुत खराब बाय,पता नाहीं कहां ऊंचे नीचे पैर परि जाय,समाज में नाक कटि जाय।............तौ कहूं,कवनो लरिका देख्यो सुनयो नाई?"-मुनिया ने प्रश्न वाचक दृष्टि से देखते हुए कहा।
"रमई के लरिका मुनेसर हैं बम्मई कमात हैं औ उमरियो ढेर नाई 24-25 साल होई।"-रामकरन ने कहा।
श्यामा पास ही आंगन में…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 10, 2012 at 7:18pm —
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