1222 1222 122
विरह की ठंड से जब काँपता हूँ।
तेरी यादों की चादर ओढ़ता हूँ।
पहुंचना ही नहीं मुझको कहीं पर
मुसाफ़िर थोड़े हूँ, मैं रास्ता हूँ।
न जाने कौन मुझको मिल गया है
कई दिन से मैं ख़ुद से लापता हूँ
बस इक उम्मीद का आलम है ये, मैं
हर आहट पर उचक कर देखता हूँ।
हुआ है ख़ाक कब का जिस्म मेरा
मैं अब तक उसमें दिल को ढूंढता हूँ।
उफनता है तेरी यादों का दरिया
मैं रफ़्ता-रफ़्ता उसमें डूबता हूँ।
(मौलिक व…
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Added by जयनित कुमार मेहता on December 7, 2016 at 5:08pm —
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221 2121 1221 212
दुनिया को छोड़ पहले ख़ुद अंदर तलाश कर
ऊंचे से इस मकान में इक घर तलाश कर
हमवार फ़र्श छोड़ के पत्थर तलाश कर
चलना ही सीखना है तो ठोकर तलाश कर
ख़ुद को जला के देख जो सच की तलाश है
किस ने तुझे कहा कि पयम्बर तलाश कर
हरियालियां निगल के उगलता है कंकरीट
इस वक़्त किस तरफ़ है वो अजगर, तलाश कर
तेरा सफ़र में साथ निभाए तमाम उम्र
ए ज़ीस्त कोई ऐसा भी रहबर तलाश कर
*जय* प्यास ही से प्यास का मिट सकता है…
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Added by जयनित कुमार मेहता on November 26, 2016 at 1:18pm —
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2122 1212 22
मुझको इस तरह देखता है क्या
मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या
बातें करता है पारसाई की
महकमे में नया-नया है क्या
आज बस्ती में कितनी रौनक है
कोई मुफ़लिस का घर जला है क्या
खोए-खोए हुए से रहते हो
प्यार तुमको भी हो गया है क्या
दिल मेरा गुमशुदा है मुद्दत से
फिर ये सीने में चुभ रहा है क्या
ढूँढ़ते रहते हैं ख़ुदा को सब
आजतक वो कभी मिला है क्या
लापता आजकल हैं…
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Added by जयनित कुमार मेहता on November 9, 2016 at 3:59pm —
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2122 1212 22
आपको आस-पास रखते हैं
फिर भी खुद को उदास रखते हैं
दिल को दरिया बना लिया हम ने
और लब हैं कि प्यास रखते हैं
लोग मिलते हैं मुस्कुरा के गले
दिल में लेकिन भड़ास रखते हैं
आदमी हम भले हैं मामूली
दोस्त पर ख़ास-ख़ास रखते हैं
लोग तकते हैं "जय" तुम्हारी राह
अब भी जीने की आस रखते हैं
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by जयनित कुमार मेहता on November 7, 2016 at 8:00pm —
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1222 1222 122
तभी अंदर ही अंदर जल रहा हूँ
मैं अपनी तिश्नगी को पी गया हूँ
कहीं देखा है मेरे हमसफ़र को?
भटकते रास्तों से पूछता हूँ
मैं इक दरिया हूँ, तू मेरी रवानी
तेरे बिन देख ले, ठहरा हुआ हूँ
खुला आकाश मेरे सामने है
परिंदा हूँ, मगर मैं पर-कटा हूँ
मुझे मालूम है अंजाम अपना
ज़माना संग-दिल, मैं काँच का हूँ
कहीं मिलता नहीं हूँ ढूंढने पर
मैं अपने आप ही में खो गया हूँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by जयनित कुमार मेहता on November 2, 2016 at 4:19pm —
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2122 1122 1212 22
सारे चेहरों में वो सबसे अलग जो चेहरा था
मेरी आँखों का फ़क़त इक हसीन धोखा था
सारे गुल तो हैं खियाबां में एक वो ही नहीं
जिसकी खुशबू से ये सारा चमन महकता था
आज तक ढूँढ़ता फिरता हूँ उसके नक़्श-ए-पा
इक मुसाफिर जो मेरे रास्ते से गुज़रा था
एक झटके में उड़ाकर ले गया चैन-ओ-करार
बस्ती-ए-दिल में वो तूफ़ान बन के आया था
मेरी आँखों में बसी तीरगी को मत देखो,
इक ज़माने में यहाँ जुगनुओं का डेरा था
जाने क्यों जेब…
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Added by जयनित कुमार मेहता on October 14, 2016 at 7:47pm —
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1222 1222 1222 1222
न जाने धूल कब से झोंकता था मेरी आँखों में!
जो इक दुश्मन छुपा बैठा था मेरे ख़ैरख़्वाहों में!
भटकते फिरते थे गुमनाम होकर जो उजालों में!
हुनर उन जुगनुओं का काम आया है अंधेरों में!
फ़क़त इक वह्म था,धोखा था बस मेरी निगाहों का,
अलग जो दिख रहा था एक चेहरा सारे चेहरों में!
हक़ीक़त के बगूलों से हुए हैं ग़मज़दा सारे,
हुआ माहौल दहशत का,तसव्वुर के घरौंदों में!
ख़ता इतनी सी थी हमने गुनाह-ए-इश्क़…
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Added by जयनित कुमार मेहता on September 26, 2016 at 5:19pm —
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212 212 212 212
ज़िन्दगी से है यूँ ज़िन्दगी लापता
जैसे हो रात से चाँदनी लापता
चाँद है चाँदनी है सितारे भी हैं
रात से अब मगर रात ही लापता
इस तरफ उस तरफ हर तरफ भीड़ है
शह्र से है मगर आदमी लापता
मुझको मुझसे मिलकर गया था जो शख्स
बदनसीबी कि है अब वही लापता
चाँद-तारों से जा मिलते हैं हम तभी
खुद से हो जाते हैं जब कभी लापता
मेरी आँखों को इक ख़्वाब क्या मिल गया
नींद रहने लगी हर घड़ी लापता
(मौलिक व…
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Added by जयनित कुमार मेहता on September 17, 2016 at 8:57pm —
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2122 2122 2122 212
रास्ते कुछ और भी थे रास्तों के दरमियाँ
मंज़िलें कुछ और भी थीं मंज़िलों के दरमियाँ
बेख़याली में हुई थी गुफ़्तगू नज़रों के बीच
हो गया इक़रार लेकिन धड़कनों के दरमियाँ
क्यों रहे इंसानियत से वास्ता इंसान का
जब है दीवार-ए-सियासत मज़हबों के दरमियाँ
रिश्ते-नातों को निभाने का कहाँ है वक़्त अब
आदमी गुम हो गया है ख्वाहिशों के दरमियाँ
ये हमारी दिल की दुनिया इस क़दर वीरान है
धूल उड़ती है यहाँ पर बारिशों के…
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Added by जयनित कुमार मेहता on September 10, 2016 at 8:15pm —
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2122 2122 212
जानता हूँ आपदाएँ शेष हैं।
क्यों डरूँ?जब तक दुआएँ शेष हैं।
जन्म लेते ही रहेंगे राम-कृष्ण,
जब तलक धरती पे माँएँ शेष हैं।
कोशिशें तो आप सारी कर चुके,
अब तो केवल प्रार्थनाएँ शेष हैं।
सूर्य ढलने को अभी कुछ वक़्त है,
अब भी कुछ संभावनाएँ शेष हैं।
बोलिये! इस दौर में कैसे जिये?
जिसके दिल में भावनाएँ शेष हैं।
मंदिरों से देवता ग़ायब हुए,
मूर्तियों में आस्थाएँ शेष हैं।
बस्तियाँ तो बाढ़ में…
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Added by जयनित कुमार मेहता on August 16, 2016 at 1:16pm —
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2122 1212 22
आग शायद लगी है पानी में।
शोर है खूब, राजधानी में।
जाने हर बार क्यों निकलता है,
फ़र्क़,उसके मिरे मआनी में।
बोलिये! किसको होती दिलचस्पी,
दो ही किरदार थे कहानी में।
आदमी का नसीब है,बहना..
वक्त के मौजों की रवानी में।
उम्र सारी बटोरने में गई,
ख़्वाब टूटे थे कुछ,जवानी में।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by जयनित कुमार मेहता on August 12, 2016 at 4:41pm —
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1222 1222 122
कभी सूखा, कभी बहता रहा है।
हमेशा से ये दिल दरिया रहा है।
जो मेरा अक्स दिखलाता रहा है।
वो आईना ख़ुदी धुंधला रहा है।
ग़ज़ब ये रिश्ता-ए-दिल भी है कैसा,
हमेशा, जुड़ के भी टूटा रहा है।
वो दिल के पास आ पहुँचा है लेकिन,
नज़र से दूर होता जा रहा है।
चुराए हैं मेरी पलकों से उसने,
जो बादल आसमां बरसा रहा है।
ज़माने को भला कैसे बताऊँ
कि तुमसे मेरा क्या नाता रहा है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by जयनित कुमार मेहता on August 8, 2016 at 10:30pm —
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2122 1212 22
टूटकर अब बिखर रहा हूँ मैं।
खुद को आईना कर रहा हूँ मैं।
मुझको दुनिया की है खबर लेकिन
खुद से ही बेखबर रहा हूँ मैं।
चोट खा-खा के, अश्क़ पी-पीकर,
आजकल पेट भर रहा हूँ मैं।
फिर भँवर पार कर के आया हूँ,
फिर किनारे पे डर रहा हूँ मैं।
उम्र-भर ढूँढता रहा खुद को,
उम्र-भर दर-ब-दर रहा हूँ मैं।
पास मंज़िल के आ गया, फिर क्यों,
हर कदम पर ठहर रहा हूँ मैं?
क्या गुज़रता भला कोई उसपर,
एक सूनी…
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Added by जयनित कुमार मेहता on August 1, 2016 at 11:28am —
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धूप सर पर चढ़ी है सावन में
तिश्नगी हर घड़ी है सावन में
आँखें भीगीं हैं और लब सूखे
आंसुओं की झड़ी है सावन में
जेठ की सोने-चाँदी सी धरती,
हीरे-मोती जड़ी है सावन में
तुझको देखूँ कि इन बहारों को
सामने तू खड़ी है सावन में
बादलों! अब न भाग पाओगे
हाँ, सुरक्षा कड़ी है सावन में
सूख जाएं न फिर ये अश्क़ मेरे
इसलिए हड़बड़ी है सावन में
दो किनारों को फिर मिलाने "जय",
इक नदी चल पड़ी है सावन में
(मौलिक व…
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Added by जयनित कुमार मेहता on July 27, 2016 at 5:38pm —
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2122 2122 2122 212
नींद टूटी, ख़्वाब टूटे, मैं ग़ज़ल कहने लगा
रात, दिन, लम्हात बदले, मैं ग़ज़ल कहने लगा
अक्स उसका दिल में उतरा,जैसे कोई शाइरी,
जागते, सोते, ठहरते मैं ग़ज़ल कहने लगा।
अपने दिल का हाल मुझको उन से कहना था,मगर
सामने आकर वो बैठे,मैं ग़ज़ल कहने लगा।
उनके आने से फ़िज़ा में जश्न का माहौल है,
छेड़ दी सरगम घटा ने,मैं ग़ज़ल कहने लगा।
तज्रिबे इतने दिए थे ज़ीस्त ने मेरी..मुझे,
तज्रिबों से ले के मिसरे, मैं ग़ज़ल कहने…
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Added by जयनित कुमार मेहता on July 12, 2016 at 2:53pm —
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2122 1212 22(112)
ग़म पे अब कहकहे लगाता हूँ।
खुद ही अपना मज़ाक उड़ाता हूँ।
अश्क़ आँखों में छलछलाएँ लाख़,
गीत लेकिन ख़ुशी के गाता हूँ।
अब तो बे-नूर इक सितारे सा,
वक़्त बेवक़्त टिमटिमाता हूँ।
वक़्त क्या तोल पाएगा मुझको,
वक़्त का वज़्न मैं बताता हूँ।
बाद मुद्दत के चुक नहीं पाया,
जाने कैसा उधार-खाता हूँ।
मैं हूँ दीनारों की खनक, प्यारे
मैं ही इस दौर का विधाता हूँ।
ठोकरों से करूँ गिला कैसे,
तज्रिबे तो…
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Added by जयनित कुमार मेहता on July 5, 2016 at 7:00pm —
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1222 1222 122
हर इक चेहरे पे था चेहरों का पर्दा
तभी तो खा गया आईना धोखा
तुम्हारी मौत मेरी ज़िन्दगी है,
अँधेरा रौशनी से कह रहा था
नहीं छोड़ेगी पीछा मरते दम तक,
कहाँ तक ज़िन्दगी से भागियेगा।
निहत्था आफ़ताब आया फ़लक पर,
अभी हमला भी होगा बादलों का।
वफ़ा की बात फिर करने लगा मैं,
रिएक्शन ये दवा का हो गया क्या?
"जय" अब तो छोड़ करना सौदा-ए-दिल
हुआ कंगाल तू सह-सह के घाटा
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by जयनित कुमार मेहता on June 30, 2016 at 6:42pm —
13 Comments
2122 1212 22
हाल-ए-दिल पूछने चले आये।
जाइए, जाइए.....बड़े आये।
उनके नज़दीक हम गये जितने,
दरमियाँ उतने फ़ासले आये।
आपके शह्र, आपके दर पर,
आपका नाम पूछते....आये।
राह-ए-मंज़िल में करने को गुमराह,
जाने कितने ही रास्ते आये।
हुए रावण के अनगिनत मुखड़े,
राम-राज अब तो कोई ले आये।
ज़ीस्त का मस्अला नहीं सुलझा,
जाने कितने चले गए, आये।
ढूँढे मिलता नहीं हमारा दिल,
हाथ किसके न जाने दे…
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Added by जयनित कुमार मेहता on June 28, 2016 at 4:02pm —
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बिछाया जिसने कंकड़ रास्ते पर
वो क्यों चुपचाप है इस हादिसे पर
अना के बदले सबकुछ मिल रहा था
हमीं राज़ी नहीं थे बेचने पर
हमारे पाँव में जब मोच आई
थी मंज़िल कुछ क़दम के फासले पर
ज़ुबाँ सिल ले, जिसे है जान प्यारी
कटेंगे सर यहाँ, सच बोलने पर
अधिष्ठाता वही इस देश के हैं
अभी तक जो रहे हैं हाशिये पर
मकाँ तब्दील हो जाता है घर में
डिनर पर, या सवेरे नाश्ते पर
बिठाए आपको पलकों पे…
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Added by जयनित कुमार मेहता on June 17, 2016 at 10:00pm —
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ज़बाँ दिल की सुख़नवर बोलता है
वो सारी बातें खुलकर बोलता है
हमारी खाक़सारी की बदौलत
जिसे देखो, अकड़कर बोलता है
वो, जिसको पूजती है सारी दुनिया
ये नादाँ उसको पत्थर बोलता है
सियासत से जो वाकिफ़ ही नहीं है
सियासी मसअलों पर बोलता है
ज़ुबाँ का ज़ह'र बाहर आ न जाए
वो ले के मुँह में शक्कर, बोलता है
जुबानें कट चुकी हैं क़ायदों की
यहाँ अब सिर्फ पॉवर बोलता है
तुम्हारा शीशा-ए-दिल चूर…
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Added by जयनित कुमार मेहता on June 12, 2016 at 5:15pm —
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