प्रपात.....
मौन
बोलता रहा
शोर
खामोश रहा
भाव
अबोध से
बालू रेत में
घर बनाते रहे
न तुम पढ़ सकी
न मैं पढ़ सका
भाषा
प्रणय स्पंदनों की
आँखों में
भला पढ़ते भी कैसे
ये शहर तो
आंसूओं का था
घरोंदा
रेत का
ढह गया
भावों को समेटे
आँसुओं के
प्रपात से
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 17, 2018 at 11:41am — 10 Comments
मैं सजनी उसकी हो गयी .....
निष्पंद देह में
जाने कैसे
सिहरन सी हो गई
सानिध्य में लिप्त श्वासें
अबोध स्पर्शों की
सहचरी हो गयीं
बर्फ़ीले आलिंगन
मासूम समर्पण से
चरम की ओर
बढ़ने लगे
तृप्ति की
अतृप्ति से होड़ हो गई
शोर थम गया
सभी प्रश्न
अपने चिन्हों के घरोंदों में
सो गए
लक्ष्य
स्वप्न मग्न हो गए
असंभव
संभव हो गया
भाव वेग
तरल हो…
Added by Sushil Sarna on April 16, 2018 at 2:53pm — 8 Comments
जीवन .....क्षणिकाएं :....
1.
सूरज
सागर की लहरों पर
तैरती
अपनी रश्मियों के ढेर को
काटता-छाँटता रहा
ताकि
मिल सके
रोशनी
हर किसी को
हर किसी के
नसीब की
.... .... .... .... .... ....
2.
देखा जो
आसमाँ से
उतरते हुए
लाल सूरज को
सागर के आँगन में
घबरा गया
मयंक
कि कहीं
सागर वीचियों पर
उसका अस्तित्व
मेरे अस्तित्व का
हरण न करले
..... .... ....…
Added by Sushil Sarna on April 12, 2018 at 2:00pm — 7 Comments
आज फिर ....
नहीं जला
चूल्हा
उसके घर
आज फिर
घर से निकला
उदासी में लिपटा
काम की तलाश में
एक साया
आज फिर
लौट आया
रोज की तरह
खाली हाथ
आज फिर
पेट में
क्षुधा की ज्वाला
सड़क पर
काम की ज्वाला
नौकरियों में
आरक्षण की ज्वाला
ज्ञान गौण
प्रश्न मौन
उलझन ही उलझन
माथे पर
चिंताओं को समेंटे
यथार्थ से निराकृत
खाली हाथ
लौट आया
आज…
Added by Sushil Sarna on April 10, 2018 at 8:13pm — 10 Comments
चंद हायकू ....
आँखों की भाषा
अतृप्त अभिलाषा
सूनी चादर
सूनी आँखें
वेदना का सागर
बहते आंसू
साँसों की माया
मरघट की छाया
जर्जर काया
टूटे बंधन
देह अभिनन्दन
व्यर्थ क्रंदन
बाहों का घेरा
विलय का मंज़र
चुप अँधेरा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 9:08pm — 6 Comments
रेगिस्तान में ......
तृषा
अतृप्त
तपन का
तांडव
पानी
मरीचिका सा
क्या जीवन
रेगिस्तान में
ऐसा ही होता है ?
हरियाली
गौण
बचपन
मौन
माँ
बेबस
न चूल्हा , न आटा ,न दूध
भूख़
लाचार
क्या जीवन
रेगिस्तान में
ऐसा ही होता है ?
पेट की आग
भूख का राग
मिटी अभिलाषा
व्यथित अनुराग
पीर ही पीर
नयनों में नीर
सूखी नदिया
सूने तीर
खाली मटके…
Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 1:22pm — 11 Comments
यथार्थ ....
कुछ पीले थे
कुछ क्षत-विक्षत थे
कुछ अपने शैशव काल में थे
फिर भी उनका
शाखाओं का साथ छूट गया
धरा पर पड़े
इन पत्तों की बेबसी पर
हवा कहकहे लगा रही थी
जिसके फैले बाज़ुओं पर
निश्चिंत रहा करते थे
उम्र के पड़ाव पर
उन्हीं बाजुओं से
साथ छूटता चला गया
अब उनका बाबा
एक कंकाल मात्र ही तो था
पीले पत्ते बात को समझते थे
कभी -कभी हवा के बहकावे में
इधर -उधर हो जाते थे
लेकिन…
Added by Sushil Sarna on April 3, 2018 at 6:17pm — 7 Comments
Added by Sushil Sarna on April 1, 2018 at 1:05pm — 9 Comments
पानी-पानी ...
ख़ून
ख़ून से ही
कतराता है
मगर
पानी से मिल जाता है
इसीलिये
रिश्ता
ख़ून का
हो जाता है
पानी-पानी
ख़ून के सामने
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on March 29, 2018 at 5:33pm — 12 Comments
निर्मोही रिश्ते ...
भावों की ज़मीन को
करते हैं बंजर
बंजारे से
ये
आजकल के
निर्मोही रिश्ते
जीवन को
मृत्यु का
कफ़न पहनाते
ये
आजकल के
निर्मोही रिश्ते
अपनी ही कोख़ से
अनजान बनते
ये
आजकल के
निर्मोही रिश्ते
कितना अजीब लगता है
जब
मृत रिश्तों को
कांधा देते
ले जाते हैं
दुनियावी सड़क से
मरघट तक
ये मृत केंचुली में
स्वांग रचाते
ज़िंदा…
Added by Sushil Sarna on March 28, 2018 at 8:57pm — 10 Comments
बूढ़ी माँ ...
अपनी आँखों से
गिरते खारे जल को
अपनी फटी पुरानी साड़ी के
पल्लू से
बार बार पौंछती
फिर पढ़ती
गोद में रखी
रामायण को
बूढ़ी माँ
व्यथित नहीं थी वो
राम के बनवास जाने से
व्यथित थी वो
अपने बिछुड़े बेटे के ग़म से
जिसका ख़त आये
ज़माना बीत गया
चूल्हा रोज जलता
उसके नाम की
रोटी भी रोज बनती
रोज उसे खिलाने की प्रतीक्षा में
रोटी हाथ में लिए लिए
सो जाती
बूढ़ी…
Added by Sushil Sarna on March 26, 2018 at 4:10pm — 12 Comments
अजर-अमर कविता ....
मैं
कविता हूँ
सृष्टि की साथ ही
मेरा भी उद्भव हो गया
मैं अजर हूँ
अमर हूँ
क्योँकि मैं
कविता हूँ
मेरे अथाह सागर में
न जाने
कितनी आकांक्षाओं और भावों ने
पनाह ली है
कभी प्रीत तो कभी प्रतिकार
कभी शृंगार तो कभी अंगार
कभी मिलन तो कभी विरह
न जाने कितनी ही
पल-पल हृदय में उपजती
अनुभूतियों से
मेरी देह को सजाया गया
फिर में किसी किताब में
मुझे बिठाया गया…
Added by Sushil Sarna on March 22, 2018 at 4:43pm — 4 Comments
कविता ....
कविता !
तुम न होती
तो प्रेम कभी
प्रस्फुटित ही न होता
शब्द गूंगे हो गए होते
भाव
शून्य हो
व्योम में खो गए होते
तुम ही बताओ
हृदय व्यथा के बंधन
कौन खोलता
दृग की भाषा को
कौन स्वर देता
लोचन
शृंगारहीन रह गए होते
आधरतृषा
अनुत्तरित रह गयी होती
एकाकी पलों में
अभिलाषाओं की गागर
रिक्त ही रह जाती
प्रेम सुधा
एक सुधि बन जाती
हर श्वास
एक सदी सी बन…
Added by Sushil Sarna on March 21, 2018 at 7:14pm — 12 Comments
रब से ....
वो लम्हा
कितना हसीं था
जब तुमने
हाथ उठा कर
मुझे
रब से माँगा था
मेरा
हर ख़्वाब
महक गया था
जब मैंने
अपनी आरज़ू को
तुम्हारी दुआओं में
महफ़ूज़ देखा था
मेरी बयाज़ें
जिनमें
हर लफ़्ज़
मेरी
तन्हाईयों से
सरगोशियों की दास्तान था
उन्हीं सरगोशियों की आग़ोश में
बेसुध सोया
मेरी उल्फ़त का
इक
अनदेखा अरमान था
सच
उस लम्हा
तुम मुझे…
Added by Sushil Sarna on March 20, 2018 at 7:00pm — 7 Comments
स्वप्निल यथार्थ....
जब प्रतीक्षा की राहों में
सांझ उतरे
पलकों के गाँव में
कोई स्वप्न
दस्तक दे
कोई अजनबी गंध
हृदय कंदरा को
सुवासित कर जाए
कोई अंतस में
मेघ सा बरस जाए
उस वक़्त
ऐ सांझ
तुम ठहर जाना
मेरी प्रतीक्षा चुनर के
अवगुंठन के
हर भ्रम को
हर जाना
मेरे स्वप्न को
यथार्थ कर जाना
मेरे स्वप्निल यथार्थ को
अमर कर जाना
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on March 14, 2018 at 7:45pm — 13 Comments
माँ शब्द पर २ क्षणिकाएं :
1.
मैं
जमीं थी
आसमाँ हो गयी
एक पल में
एक
जहाँ हो गयी
अंकुरित हुआ
एक शब्द
और मैं
माँ हो गयी
...........................
२.
ज़िंदा रहते हैं
सदियों
फिर भी
लम्हे
बेज़ुबाँ होते हैं
छोड़ देती हैं
साथ
साँसें
जब ज़िस्म
फ़ना होते हैं
ज़िंदगी
को जीत लेते हैं
मौत से
जो शब्द
वो
माँ होते…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 11, 2018 at 9:30pm — 17 Comments
तुम्हारी कसम....
हिज़्र की रातों में
तन्हा बरसातों में
खामोश बातों में
नशीली मुलाकातों में
तुम्हारी कसम
सिर्फ़
तुम ही तुम हो
चांदनी के शबाब में
पलकों के ख्वाब में
प्यालों की शराब में
अर्श के माहताब में
तुम्हारी कसम
सिर्फ़
तुम ही तुम हो
ख्यालों की बाहों में
बेकरार निगाहों में
गुलों की अदाओं में
आफ़ताबी शुआओं में
तुम्हारी कसम
सिर्फ़
तुम ही तुम…
Added by Sushil Sarna on February 16, 2018 at 2:24pm — 14 Comments
अस्तित्व ....
एक अस्तित्व
शून्य हुआ
एक शून्य
अस्तित्व हुआ
धूप-छाँव के बंधन का
हर एक सूरज
अस्त हुआ
ज़िंदगी ज़मीन की
ज़मीन के पार
चलती रही
और
दूर कहीं
कोई चिता
धू-धू कर
जलती रही
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 11, 2018 at 3:15pm — 7 Comments
1. खोये स्वप्न ...
तमाम रात
मेरे साथ था
एक स्वप्न
भोर होते ही
वो स्वप्न
स्वप्न सा हो गया
मैं
देर तक
पलकों की दहलीज़
बुहारती रही
खोये स्वप्न को
ढूंढने के लिए
...........................
2. मन्नत ....
देर तक
रुका रहा
मेरे घर की छत पर
वो आसमान से टूटा
मन्नत का तारा
मेरे ज़ह्न में
काँपता रहा
देर तक उसका ख़्याल
मेरी आँखों के कटोरों में
कोई अपने अक्स की…
Added by Sushil Sarna on February 4, 2018 at 3:52pm — 13 Comments
अमर हो गए ...
मेरी हिना
बहुत लजाई थी
जब तुम्हारे स्पर्श
मेरे हाथों से
टकराये थे
मेरा काजल
बहुत शरमाया था
जब
तुम्हारी शरीर दृष्टि ने
मेरी पलक
थपथपाई थी
मेरे अधर
बहुत थरथराये थे
जब तुम्हारी
स्नेह वृष्टि ने
मेरे अधर तलों को
अपने स्नेहिल स्पर्श से
स्निग्ध कर दिया था
मैं शून्य हो गयी
जब
प्रेम के दावानल में
मेरा अस्तित्व
तुम्हारे अस्तित्व के…
Added by Sushil Sarna on February 3, 2018 at 4:35pm — 6 Comments
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