मौत बेटियों को बस, दाइयाँ समझती हैं
पीर के सबब को सब माइयाँ समझती हैं
**
सोच आज तक भी जब, है गुलाम जैसी ही
मुल्क की अजादी क्या, बेडि़याँ समझती हैं
**
दो बयाँ भले ही तुम देश की तरक्की के
हर खबर है सच कितनी सुर्खियाँ समझती हैं
**
आप के बयानों में खूब है सफाई पर
बेवफा कहाँ तक हो, पत्नियाँ समझती हैं
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दोष तुम निगाहों को बेरूखी की देते हो
कान …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 16, 2014 at 12:30pm — 11 Comments
** मेरे लिए आज मातृ दिवस और माँ की पुण्य तिथि का अद्भुत संयोग है l यह रचना माँ को समर्पित है l
जिंदगीभर कौन देता है खुशी माँ के सिवा
ले अॅधेरा कौन देता रौशनी माँ के सिवा
**
वह लहू को कर सुधा हमको हमेशा पोषती
कौन खुद को यूँ गला दे जिंदगी माँ के सिवा
**
बस रहे खुशहाल जग ये सोचकर भगवान भी
क्या बनाता और अच्छा इक नबी माँ के सिवा
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दे के रिमझिम जिंदगी भर वो तपन हरती रहे
कौन अपनाता बता दे तिश्नगी माँ के…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 11, 2014 at 10:00am — 16 Comments
रोज की है बादलों से छेड़खानी आपने
और गढ़ ली प्यास की कोई कहानी आपने
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चाह रखते हो भगीरथ सब कहें इतिहास में
पर न खुद से एक दरिया भी बहानी आपने
***
बात करते गाँव की पर कब उसे तरजीह दी
गाँव को तम दे सजाई राजधानी आपने
***
आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर
खोद कूआँ कब निकाला यार पानी आपने
***
लाख दुख मैं मानता हूँ आपने झेले मगर
झोपड़ी का दुख न झेला …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 6, 2014 at 12:00pm — 14 Comments
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हर खुशी हमको हुई है अब सवालों की तरह
और दुख आकर मिले हैं नित जवाबों की तरह
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चाँद निकला तो नदी में देख छाया खुश रहे
रोटियाँ अब हम गरीबों को खुआबों की तरह
***
यूं कभी जिसमें कहाये यार हम महताब थे
उस गली में आज क्यों खाना खराबों की तरह
***
एक भी आदत नहीं ऐसी कि तुझको गुल कहूँ
पास काँटें क्यों रखो फिर तुम गुलाबों की तरह
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है हमें तो जिन्दगी में साँस-धड़कन यार ज्यों
आप…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2014 at 9:30am — 13 Comments
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दर्द दिल का जो बढ़ा दे, बोलिए मरहम कहाँ है
रौशनी के दौर में अब तम के जैसा तम कहाँ है
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कर रहे तुम रोज दावे चीज अद्भुत है बनाई
नफरतें पर जो मिटा दे लैब में वो बम कहाँ है
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जै जवानों, जै किसानों, की सदा में थी कशिश जो
अब सियासत की कहन में यार वैसा दम कहाँ है
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मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना
चाहते बस जानना हम धार का उद्गम कहाँ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 24, 2014 at 1:00pm — 24 Comments
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हॅसी में राज पाया है, कि कैसे उन को मुस्काना
उदासी से तेरी सीखे, कसम से फूल मुरझाना
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भले ही खूब महफिल में, हया का रंग दिखला तू
गुजारिश तुझ से पर दिल की, अकेले में न शरमाना
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करो नफरत से नफरत तुम, इसी से दूरियाँ बढ़ती
मुहब्बत पास लाती है, भला क्या इससे घबराना
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हमें है बंदिशों जैसे, कसम से रतजगे उसके
इसी से हो गया मुश्किल, सपन में यार अब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2014 at 10:30am — 8 Comments
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आँसुओं को यूँ मिलाकर नीर में
ज्यों दवा हो पी रहा हूँ पीर में
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हाथ की रेखा मिटाकर चल दिया
क्या लिखा है क्या कहूँ तकदीर में
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कौन डरता जाँ गवाने के लिए
रख जहर जितना हो रखना तीर में
**
हर तरफ उसके दुशासन डर गया
मैं न था कान्हा जो बधता चीर में
**
माँ के हाथों सूखी रोटी का मजा
आ न पाया यार तेरी खीर में
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शायरी कहता रहा…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 17, 2014 at 10:30am — 15 Comments
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जानता हूँ देह के बेलौस प्यासे आप हैं
किन्तु जनता की नजर में संत खासे आप हैं
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खुशमिजाजी आप की सन्देश देती और कुछ
लोग कहते यूँ बहुत पीडि़त जरा से आप है
*…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 11, 2014 at 11:00am — 14 Comments
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सियासत पूछ मत तुझमें पतन क्या-क्या नहीं देखा
बहुत खुदगर्ज देखे हैं मगर तुझ सा नहीं देखा
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महज कुर्सी को दुश्मन से करे तू लाख समझौते
चरित तुझ सा किसी का भी यहाँ गिरता नहीं देखा
**
सपन में भी दिखा करती मुझे तो बस सियासत ही
सियासत से मगर कच्चा कोई रिश्ता नहीं देखा
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बराबर बाटते देखी मुहब्बत भी समानों सी
बड़ा-छोटा करे माँ प्यार का हिस्सा नहीं …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 7, 2014 at 12:30pm — 23 Comments
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सिखाते क्यों हमें हो तुम वही इतिहास की बातें
दिलों में घोलकर नफरत नये विश्वास की बातें
*
बताओ घर बनेगा क्या हमारा आसमानों में
जमीनें छीन के करते सदा आवास की बातें
*
कहाँ से हो कठौती में हमारे गंग की धारा
बिठाई ना मनों में जब कभी रविदास की बातें
*
बहाकर अश्क भी यारो कहाँ दुख दूर होते हैं
गमों से पार पाने को करो परिहास की…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 29, 2014 at 7:30am — 29 Comments
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***
आदमी को आदमी से बैर इतना
भर रहा अब खुद में ही वो मैर इतना
*
दुश्मनो की बात करनी व्यर्थ है यूँ
अब सहोदर ही लगे है गैर इतना
*
चादरें छोटी मिली हैं किश्मतों की
इसलिए भी मत पसारो पैर इतना
*
दे रहे आवाज हम हैं बेखबर तुम
कर रहे हो किस जहाँ में सैर इतना
*
किस तरह आऊं बता तुझ तक अभी मैं
गाव! उलझन दे गया है नैर इतना
*
झूठ होते हैं सियासत के …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 24, 2014 at 8:30am — 20 Comments
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किया माथे तिलक झट से कहा नाकाम भी मुझको
बहुत ठोका लुहारों सा दिया आराम भी मुझको
*
गिरा तो भी समझ मेरी न आयी शातिरी उसकी
बिठाया पास भी अपने किया बदनाम भी मुझको
*
पता है साथ उसके तो न आया था कभी सूरज
जलाता क्यो न जाने फिर शरद का घाम भी मुझको
*
हसाता चोट देकर भी बड़ा जालिम खुदा पाया
रूला देता न मरने का सुना पैगाम भी मुझको
*
अजब सी रहमतें उसकी अजब ही सब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 6:30am — 14 Comments
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हमारे दुख दिखाई कब दिए हैं देवताओं को
हमेशा आँकते वो कम हमारी आपदाओं को
*
मरें या जी रहे हों हम उन्हें पूजा करें हरदम
न जब भी पूज पाए हम निकल आए सजाओं को
*
नहीं फिर भी हुए खुश वो भले ही सब किया अर्पण
गरल रख पास शिव जैसा सदा सौपा सुधाओं को
*
पुकारा जब गया उनको दुखों से हो परेशा ढब
किया है अनसुना बरबस हमारी सब सदाओं को
*
लगा करता जरूरी नित न जाने क्यों उन्हे…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 6, 2014 at 11:30am — 17 Comments
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समझ लूँ मैं गुनाहों को भला अतवार1 से कैसे
मगर पूछूँ तरीका भी किसी अबरार2 से कैसे
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सभी की थी दुआएं तो जला जब भी यहाँ दीपक
मिटाया पर गया ना तब बता अनवार3 से कैसे
**
हमेशा बोलता था तू नहीं रिश्ता रहा कोई
गले लगती बता कमसिन किसी अगियार4 से कैसे
**
जुटा पाया न मैं साहस अना5 की बात कहने को
उलझ वो भी गई पूछे किसी अफगार6 से कैसे
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सदा लेते जनम वो तो गलत को ठीक करने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 25, 2014 at 7:00am — 7 Comments
2122 2122 2122 212
**
बचपने में चाँद को रोटी समझना भूल थी
कमसिनी में एक कमसिन से लिपटना भूल थी
**
तात ने डाटा किताबें पढ़, मुहब्बत में न पड़
तात से इस बात पर मेरा झगड़ना भूल थी
**
कोख में जब मात ने पाला न माना कुछ उसे
इक कली के द्वार पर माथा रगड़ना भूल थी
**
मिट गया वो, पात ने कर ली हवा से प्रीत जब
बेखुदी में डाल से उसका बिछड़ना भूल थी
**
लूटता इज्जत भ्रमर नित दोष उसको कौन…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 18, 2014 at 7:30am — 11 Comments
2122 2122 2122 2122
राह में अवरोध जितने, ओ! जमाने तूँ लगा ले
है मुहब्बत चीज ऐसी, रास्ता फिर भी बना ले
हर जुनूँ कमतर है इसको, आग इसकी कौन रोके
आशिकी पीछे हटी कब, इम्तहाँ गर जो खुदा ले
कैश की हर पीर लैला, खीच लेती ओर अपनी
है मुहब्बत को बहुत कम, जुल्म जग जितने बढ़ा ले
इस मुहब्बत की बदौलत, शिव फिरे ले शव सती का
अंध देखे रंग दुनिया, नेह में जब मन रमा ले
खत्म …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:00am — 13 Comments
2122 2122 2122
आँख में उनकी छिपा डर देख लेते
जल गये जो आप वो घर देख लेते
कर दिया अंधा सियासत ने सहज ही
आप वरना खूँ के मंजर देख लेते
क्यों किसी के आसरे पर आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेते
बात करते हो बहुत तुम न्याय की जब
हाकिमों नित क्यों कटे सर देख लेते
खूब सुनते है तेरी जादूगरी की
आग पानी से जलाकर देख लेते
सोच लेता मैं कि जन्नत पा गया हूँ …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 12, 2014 at 7:30am — 16 Comments
2122 2122 2122 2122
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दीप को जलना नहीं है भूल से भी द्वार मेरे
आप नाहक कोशिशें क्यों कर रहे हो यार मेरे
खून हाथों पर लगा है किन्तु कातिल मैं नहीं हूँ
फूल से अठखेलियों में चुभ गये थे खार मेरे
छा गया है आजकल जो इस मुहब्बत में कुहासा
क्या बताऊँ आपको मैं देवता बीमार मेरे
दीन में रखना मुझे क्यों आप फिर भी चाहते हो
मयकदे में भेज बदले जब सदा आचार …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 6, 2014 at 8:00am — 8 Comments
1222 1222 1222 1222
मुहब्बत की नहीं उससे , वफा भी फिर निभाता क्या
खबर थी ये उसे भी जब , मुझे तोहमत लगाता क्या
सपन में रात भर था जो , उसे भी ले गया सूरज
मिला साथी मुझे भी है , जमाने फिर बताता क्या
जिसे डर हो सजाओं का, उसे यारों सताता डर
हुए पैदा सलीबों पर , बता डरता डराता क्या
न हो तू अब खफा ऐसे , रहा है भाग बंजारा
न था कोई ठिकाना जब, पता तुझको लिखाता क्या…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2014 at 7:00am — 11 Comments
तुम कोमल कमसिन लता नवीन और विजन में खड़ा विटप मैं ।
चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।
वात झूमती चलती जब भी, मौन मेरा भी वाणी पाता ।
लेकिन इसका लाभ कहो क्या, कौन विजन में गुनने आता ।
भाग में मेरे लिखा दिवाकर, तरस तनिक जो कभी न खाता ।
तूफानों से हुआ जो नाता, गिरने का भय डँसता जाता ।
निभर्य स्नेहिल जीवन जी लूँगा, मुझसे यदि नाता जोड़ो ।
चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।
मेरे सूने जीवन की…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2014 at 8:46pm — 19 Comments
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