जब मैं बाजार से लौटकर आया तो देखा कि पड़ोसी के बच्चे मेरी खिड़की के पास खड़े हैं।
"लगता है इन कमबख्तों ने खिड़की का शीशा तोड़ दिया,इनके बाप से वसूलता शीशे का दाम"-मैंने सोचा।
जब मैं खिड़की के पास पहुंचा तो देखा कि वास्तव में शीशा टूटा हुआ है।अब तो मेरा रोष सातवें आसमान पर पहुंच गया।
मैंने डपटकर पूछा-"किसने तोड़ा है इसे?.........मेरा मुंह क्या देख रहो सब? जवाब दो।"सभी बच्चे डर गये।
तब तक मेरी नजर वहीं पास खड़े मेरे अपने बेटे मनीष पर गई,मैं डर गया कि "कहीं इसने तो नहीं तोड़ा,फिर मैं…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 3, 2012 at 6:30pm —
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प्रेम मोबाइल में अगर,बैलेडिटी विश्वास हो,
नेटवर्क समन्वय हो पुख्ता,हृदय बैट्री चार्ज हो।
प्रतिपक्ष नम्बर रांग हो,एकांत स्पीकर साफ हो,
नहीं समस्या कोई यारोँ,प्रेम पगी तब बात हो॥
घायल नहीं हुआ कभी,जो तीर ओ तलवार से,
वो ही घायल हो गया,तेरे नजर के वार से।
पैदाइश से आज तक,जीत जिसकी हमसफर,
वो ही जीता जा चुका है,आज तेरे प्यार से॥
यार मैं तो रात का,शुक्र गुजार बन गया हूं,
वो बन गये हैं वादक,मैं सितार बन गया हूं।
बेदर्द बड़े प्यार से,बजाते हैं…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 30, 2012 at 10:07pm —
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कठिन काल के आवेगों से,कभी नहीं बच पाओगे,
परिवर्तन ही सत्य जगत का,सच को कहा छुपाओगे।
लौह सदृश इस सुगढ़ देह को,देख नहीं इतराओ तुम,
जब आयेगी काल की आंधी,तिनके सम उड़ जाओगे॥
ध्वस्त हुआ रावण का सपना,जो त्रैलोक्य विजेता था,
अस्त हुआ साम्राज्य ब्रिटिश का,अस्त सूर्य ना होता था।
मिटा सिकंदर विश्व विजेता,नेपोलियन बर्बाद हुआ,
अहंकार यदि नष्ट हुआ ना,मिट्टी में मिल जाओगे॥
ईश अंश श्रीराम कृष्ण भी,छोड़ धरा को चले गये,
कालजयी वो भीष्म पितामह,शर-शैय्या से…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 30, 2012 at 9:26pm —
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सर! एक काम था आप से,अगर इजाजत हो तो कहूं-अर्जुन बाबू ने लेखपाल से कहा।
हां कहिए-वह उन्हें ऊपर से नीचे तक देखते हुये बोला।
सर! नसीबदार से कहिए कि वह इन कागजातों से अपने दस्तखत हटा ले-अर्जुन ने अपना चश्मा ठीक करते हुये कहा।
लेखपाल गरज पड़ा-बड़े बेवकूफ हो तुम?क्या बकवास करते हो?कहीं साइन भी परिवर्तनेबुल है,और वो भी डेड आदमी के?
अरे साहब! काहे को एंग्री होते हो(अपने आदमी की तरफ मुड़कर)तिलक ब्रीफकेस इधर ला न।हां सर! ये 50-50 के 10 बंडल हैं-अर्जुन बाबू ने ब्रीफकेस लेखपाल की ओर बढ़ाते…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 30, 2012 at 8:42pm —
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जीवन एक किताब है,तीन प्रमुख अध्याय।
बचपन यौवन वृद्धपन,कहैं सुकवि समुझाय॥
बचपन जीवन भूमिका,यौवन ललित निबंध।
वृद्धापन सारांश है,उत्तम काव्य प्रबंध॥
भाषा रूपी ज्ञान हो,रस चरित्र व्यवहार।
कर्म रीति से युक्त हो,अलंकार गुण भार॥
अनुशासन का व्याकरण,पद लालित्य अनूप।
छंद बद्ध हर पल रहे,कथ्य शास्त्र अनुरूप॥
जीवन पुस्तक में नहीं,यदि बातें उपरोक्त।
श्याम वर्ण पुस्तक लगे,जीवन जैसे शोक॥
अल्ट्रामार्डन हो गये,काव्य और सब…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 29, 2012 at 10:04pm —
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नव मन की नव कल्पना,
नव अन्नत में उड़ने की है।
समस्त जगत के अंदर,
नव चेतना भरने की है॥
चाहता है यह नव मन,
मेरा संसार नवल हो जाये।
प्रेम क्षमा दया करुणा,
हर जन उर अंतर भर जाये॥
सब बन जायें अपने भाई,
ऊंच नीच भेद मिट जाये।
देश जाति धर्म भाषा के,
बंधन सारे टुट जायें॥
सब पर सब विश्वास करें,
अविश्वास की न हो रेखा।
इस मेरे नव मन ने भाई,
बस यही है सपना देखा॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 25, 2012 at 1:02pm —
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एक गुड़िया जो बहुत ही सस्ती है।लोग उसे खरीदते हैं चंद रुपयों में।बच्चों की खातिर या सजाने के लिए।वे गुड़ियां जो तराशबीनों के हाथ पड़ती हैं,उन्हें वे विविध रूपों में तराशते हैं और फिर उसे चौकीदार की नौकरी दे देते हैं,बिना प्रमाण पत्र के।वह गुड़िया किसी मेज या स्टूल या आलमारी पर रात-दिन खड़ी रहती है,पहरा देती है बिना वेतन के।
वहीं वे गुड़ियां जो नादान बच्चों के हाथ जाती हैं,उन्हें वे पटकते हैं,धूल पोतते हैं,शादी रचाते हैं,जूड़ा बांधते हैं और फिर अपन पास रखकर सोते हैं।उसे थपकी दे देकर सुलाते…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 25, 2012 at 11:40am —
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ऐ सुमन ऐसे न घूरो,मेरा दिल जला जाता है,
मैं वो भूला राही हूं,जो भूला चला जाता है।
मैं तो बहता पानी हूं,है जिसका नहीं भरोसा,
कल वां था आज यहां कल,कहीं और चला जाता है....................॥
कांटों से है राह भरा,जिस पर चलना मजबूरी,
तेरा मेरे साथ चलना,ऐसा भी क्या जरूरी।
हो फूल नाजुक तुम हवा,के साथ हिल मिलकर रहो,
गर्दिशों में आफतों में,तू फिर क्यों चला जाता है...................॥
तू जा किसी का हार बन,शोभा बढ़ा दिलदार की,
या तू किसी मंदिर में…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 24, 2012 at 5:57pm —
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॥राजनीति दंश है॥
(घनाक्षरी छंद)
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ये राजनीति दंश है,कौरव कंस वंश है,
ईश यदुवंश अवतार होना चाहिए।
लुटेरे या भिखारी हैं,अथवा भ्रष्टाचारी हैं,
इनसे तो युद्ध आर पार होना चाहिए॥
क्रान्ति आज आहवान,तोड़ सब व्यवधान,
अब हिन्दुस्तान में हुंकार होना चाहिए।
भ्रष्टतंत्र ध्वस्त तंत्र,विकृत विक्षिप्त तंत्र,
गणतंत्र हंत पे प्रहार होना चाहिए॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 21, 2012 at 11:33pm —
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जैसाकि हम सभी जानते हैं कि मच्छर खून चूसते हैं।बरसात के मौसम में गंदगी के कारण इनकी संख्या और भी बढ़ जाती है,ये हमें और भी पीड़ा पहुंचाने लगते हैं।कुछ समय पहले की बात है मच्छरों से पीड़ित कुछ उपद्रवी आन्दोलनकारी मच्छरों के खून चूसने की क्रिया पर प्रतिबंध की मांग करने लगे।वो "खून मत चूसो कानून" पारित करवाने की जिद पे अड़ गये।तत्कालीन कठमुल्ला भारत सरकार ने उन उपद्रवियों की जिद मानते हुए बिल पास कर दिया।मच्छरों के क्रिया-कलाप पर प्रतिबंध लगा दिया गया।उनकी गिरफ्तारियां होने लगी।उनसे सुरक्षा के लिए…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 5, 2012 at 2:00pm —
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सावन का सवैया
(प्रस्तुत रचना "सिंहावलोकन सवैया" में रचित है,जिसे सवैया के सभी प्रकारों में लिखा जा सकता है(मेरी रचना मदिरा सवैय पर आधारित है)।सिंहावलोकन सवैया जिन वर्णों और शब्दों से प्रारम्भ किया जाता है,उसी पर अन्त भी किया जाता है।चरणान्त के शब्द चरण के आगे के शब्द होते हैं।)
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सावन में गरजे बदरा,
मन मोर नचै वन कानन में।
कानन में मनमोह छटा,
घनघोर घटा घिरि गागन में॥
गागन में चमके बिजुरी,
सिकुरी सुनरी निज आंगन में।
आंगन…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 23, 2012 at 9:47pm —
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चल चंदा उस ओर,
जहां नहाती प्रिया सुन्दरी थामें आंचल कोर ।
स्वच्छ चांदनी छटा दिखाना,
भूलूं यदि तो राह दिखाना।
विस्मृत हो जाये तन सुध तो,
देना तन झकझोर.........................।
मस्त बसंती हवा बहाना,
उसको प्रिय का पता बताना।
हवा तनिक भूले पथ जो,
कर देना उस ओर........................।
देख निशा गहराती जाती,
बुझती लौ घटती रे बाती।
लौ तनिक तेज करना,
भरना सुखद अजोर....................।
सनी नीर…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 23, 2012 at 8:00pm —
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खुले शहरों में मेरी मुस्कराहट अदा है।
बंद शहरों में हमारी अदा ही कजा है॥
खुले शहरों में भी खिलखिलाना मना है।
यही सवाल मेरा इसकी क्या वजा है॥
यूं तो मेरे चाम से मुहब्बत है सबको।
फिर छोटा सा ये क्यों मेरा आसमां है॥
यह तो मुझे बताओ दिल पे हाथ रखकर।
तेरे खुदा से बदतर क्या मेरा खुदा है॥
क्या उसी गुम खुदा की मैं कुदरत नहीं।
गर मेरा नहीं तो क्या तुम्हारा पता है॥
दोगली दुनिया से हम और क्या कहें।
हर सुबूत पेश फिर भी पूछता कहां है॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 23, 2012 at 7:44pm —
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(प्रस्तुत रचना रोला छन्द में आबद्ध है।रोला के प्रत्येक चरण में11-13 पर यति(विराम) के साथ 24-24 मात्रायें होती हैं।चरणान्त में लघु गुरु की विशेष बाध्यता नहीं है।)
रहिमन आये याद,हमें तुम्हारा पानी।
घटा जलस्तर किन्तु,बढ़ा आंखों में पानी॥
मोती चूना और,मनुज सभी गये सूखे।
प्यासी सारी भूमि ,त्राहि-त्राहि जन चीखे॥
पिघल रहा हिमवान,जलधि तल ऊपर आया।
क्षरण परत ओजोन,काल की काली छाया॥
ऑक्सीजन में कमी,वायु में कार्बन भारी।
मलवे से है पटी,प्रदूषित…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on May 4, 2012 at 8:47pm —
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गंग नहाये जात हैं,दूर करै तन पाप।
जौ उनका पापी कहौं,क्योंकर हो संताप॥
माँ पत्नी भगिनी चहौं,ममता सेवा प्यार।
बेटी जनकर दुखी क्यों,हो जाते सरकार॥
आशा मन अच्छा करैं,लोग बाग बर्ताव।
क्यों रखते कुछ एक से,निज मन में दुर्भाव॥
अनुशासन जन में रहे,बना देश कानून।
क्यों होता है तब यहां,रोज कत्ल कानून॥
अंधे से नहि पूछते,बुरे भले की बात।
अंधा तो कानून भी,शरण चले क्यों जात॥
ललचाइ अंखियां लखै,तिरिया बेटी आन।
जौ कोई इनकै…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 26, 2012 at 7:00am —
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(प्रस्तुत रचना 'सार' छन्द पर आधारित है।इसके अनुसार छन्द के प्रत्येक चरण में 28 मात्रायें होती हैं,16वीं तथा 12वीं मात्रा पर यति होती है।चरणान्त में दो गुरु अवश्य होने चाहिए।)
जीवन का आधार कहां है,आफत सिर पर भारी।
अपने में ही लिप्त घूमती,पागल दुनिया सारी॥
समय नहीं है पास किसी के,जीवन भागा दौड़ी।
प्यार-व्यार का रिश्ता झूठा,नफरत दरिया चौड़ी॥
कहां बची है वही मनुजता,मानव कहां पुराना।
और अधिक विकसित है दुनिया,मार्डन हुआ जमाना॥
वृद्धों का सम्मान कहां है,छूकर चरन…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 12, 2012 at 8:00pm —
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(प्रस्तुत पंक्तियों को उल्लाला छंद में लिखने का प्रयास किया गया है,इसके प्रत्येक चरण में 13-13मात्रायें होती हैं।लघु-गुरू का कोई विशेष नियम नहीं होता,किन्तु 11वीं मात्रा लघु होनी चाहिए)
भूखी आंतों के लिए,
सेंसेक्स बस बवाल है।
तीसमार खां कह रहे,
मार्केट में उछाल है॥
जेब नहीं कौड़ी फुटी,
जनता सब बेहाल है।
भारत विकसित हो रहा,
वाह!बढ़िया कमाल है॥
कर्ज बोझ सिर पे लदा,
कृषक हुआ बदहाल है।
हम विकसित हो जायगें,
यह कोरा भौकाल…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 10, 2012 at 9:30pm —
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जब तुम रहते हो पास मेरे,
जग भरा भरा सा लगता है।
व्याकुल करती गर्मी के ऋतु में,
मलय समीर बहा लगता है।
चिलचिल करती कड़क धूप में,
बरगद का छांव मिला लगता है।
बारिस के मौसम में सिर पर,
मजबूत एक छत टिका लगता है।
कई दिनों से प्यासे मुख में,
शीतल नीर पड़ा लगता है।
कई दिनों से भूखे जन को,
मधुर भोज्य मिला लगता है।
एक अंधेरी अंजान गुफा में,
प्रकाश पुंज खिला लगता है।
कई जन्म से बिछड़ा प्रेमी,
इस जन्म में मिला लगता…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 10:29pm —
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खामोश इन निगाहों का इश्तिहार जरा देखें।
टूटे हुए दिलों के पुकार जरा देखें॥
जरूरी नहीं जरूरतमंद की जरूरत पुरी हो।
जरूरत से ज्यादा लम्बी कतार जरा देखें॥
घनानन्द यहां मरता है हरवक्त प्यार में।
मगर सुजान का मौसमी प्यार जरा देखें॥
हर सूं यहां कुबेर का दबदबा बना हुआ है।
और दवताओं के पुरअसरार जरा देखें॥
इस दुनिया में जीने से मर जाना भला है।
पटे मौत की खबर से अखबार जरा देखें॥
दोस्त गर जीने की चाहत अभी बची है।
इकबार चलो चांद के उस पार जरा देखें॥
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 9:30pm —
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खिला धूप चेहरा मदमाती वो आंखें।
सुर्ख से अधर, पर शर्माती वो आंखें॥
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देखूं जो नजर भर चुराती वो आंखें।
हटे जो नजर तो बल खाती वो आंखें॥
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लगे दर्द दिल में छुपाती वो आंखें।
छुपे राजे दिल को बताती वो आंखे॥
.
क्यों ही न जाने दिल जलाती वो आंखें।
बहा अश्क फिर से बुझाती वो आंखें॥
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सब्र के अब्र को छेद जाती वो आंखें।
अब्र से आब ले बरसाती वो आंखें॥
.
सुनो दोस्त मेरे मदमाती वो…
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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 9:30pm —
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