2122 2122 212
धीरे धीरे फासला घटना ही था
हौले हौले रास्ता कटना ही था
एक भ्रम का कोई पर्दा अब तलक
मन पे अपने था पड़ा, हटना ही था
ख़ाहिशें हैं जब मेरी तुमसे ही तो
लब से तेरे नाम को रटना ही था
हर तरफ़ है लोभ प्रेरित आचरण
चित ये जग से तो मेरा फटना ही था
किस तरफ जाता कुहासा था घना
तेरे आने से धुंआ छँटना ही था
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 5, 2017 at 10:35pm —
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2122 2122 2122 2122
धीरे धीरे दूर दुनिया से हुआ है कौन आख़िर
हौले हौले तेरी यादों में घुला है कौन आख़िर
आग के शोले जले जब भी हुआ उत्पात तब तब
इक सिवा परमेश्वर के औ'र जला है कौन आख़िर
ग्रन्थ लाखों और पढ़ने वाले अरबों लोग तो हैं
पर मुझे मिलता नहीं पढ़ कर जगा है कौन आख़िर
माँ पिता गुरु के चरण रज से रहा जो दूर है वो
पत्थरों के घर में प्रभु से मिल सका है कौन आख़िर
इक मधुर अहसास खश्बू से भरी है साँस 'पंकज'
धड़कनों से रागिनी बन कर…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 12, 2017 at 5:30pm —
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मुझे रात भर ये भगाता बहुत है।
सवालों का पंछी सताता बहुत है।।
कभी भूख से बिलबिलाता ये आए
कभी आँख पानी भरी ले के आए
कभी खूँ से लथपथ लुटी आबरू बन
तो आये कभी मेनका खूबरू बन
ये धड़कन को मेरी थकाता बहुत है
सवालों का पंछी सताता बहुत है।।1।।
कभी युद्ध की खुद वकालत करे ये
अचानक शहीदों की बेवा बने ये
कभी गर्भ अनचाहा कचरे में बनकर
मिले है कभी भ्रूण कन्या का बनकर
निगाहों को मेरी रुलाता बहुत…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 11, 2017 at 9:30pm —
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22 22 22 22
खुद से मुझ को अलग करो तो
फिर कहना तुम ज़िंदा भी हो
याद मुझे करते हो तुम भी
हिचकी से ये कहलाया तो
कोल कर दिया अरमाँ जिससे
कोहेनूर बन कर चमकें वो
दुर्लभ एक सुकून प्यास में
साक़ी को ही लौटाया तो
बदली छाई मानो तुमने
ज़ुल्फ़ घनी फिर बिखराया हो
मौलिक अप्रकाशित
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2017 at 5:30pm —
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1212 1212 222 222
निहारता तो हूँ तुम्हें, चोरी से चुपके से
विचारता तो हूँ तुम्हें, झपकी ले चुपके से
कभी तुम्हारे नाम से ज्यादा कुछ लिक्खा कब?
सँवारता तो हूँ तुम्हें, कॉपी पे चुपके से
मिलन को जब भी तुम मेरे सपनों में आई हो
निखारता तो हूँ तुम्हें, लाली दे चुपके से
बजे है जल तरंग सी छन छन तेरी पायल जब
उतारता तो हूँ तुम्हें, वंशी पे चुपके से
उदासियों से जब भी घिर जाता है मेरा मन
पुकारता तो हूँ तुम्हें, आ भी रे चुपके से
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 14, 2017 at 12:05am —
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1212 1122 1212 22
मेरे वतन की फ़िज़ाओं में जो मुहब्बत है
इसे बचाऊँ मैं हर हाल, मेरी चाहत है
हिमालया से लगायत महान सागर तक
परम पिता ने लिखी हिन्द की ये आयत है
तमाम लोगों ने कोशिश करी बदलने की
मगर वो हारे, विविधता में इसकी ताकत है
सफ़ेद पगड़ी हरा कुर्ता केसरी धोती
ये चक्र धारी तिरंगे में ही नज़ाफ़त है
अज़ान भी है भजन भी है चर्च की घण्टी
इसी वजह से वतन अपना खूबसूरत है
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 6, 2017 at 12:00am —
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22 22 22 22 22 22
रिश्ते में नुकसान जोड़ते पाई पाई।
आँगन में दीवार खींचते भाई भाई।।
वाह रुपये खूब तुम्हारी भी है माया।
पुत्र बसा परदेश गाँव में बाबू- माई।।
कलयुग कैसी है ये तेरी काली छाया
साथ नहीं देती है खुद की ही परछाई।।
नातेदारी मृग मरीचिका में उलझी है
जानें कितनी लाश गिरेगी रे'त में भाई।।
पंकज बैठा लिये तराजू आओ लोगों
नाप-जोख कर भाव लगाकर करो मिताई।।
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 11, 2017 at 11:00am —
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22 22 22 22 22 22 22 22
आँखों के दरिया के जल का भी बँटवारा होना चहिये
दुखिया के गम का कुछ ऐसे वारा न्यारा होना चहिये
मज़हब कौम पंथ वंशावलि सबका आप ध्यान धरिये पर
जिसकी वादी में रहते हैं मुल्क वो प्यारा होना चहिये
गीत ग़ज़ल कविता अभिभाषण विधा भले ही चाहे जो हो
पर पंकज के शब्दों में एहसास तुम्हारा होना चहिये
ऊँचा उठने की ख्वाहिश हो तो अन्तस को क्षितिज बनाएं
पर ये याद रहे धरती पर पाँव हमारा होना चहिये
बन्दर घुड़की कब तक साहब कब…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 27, 2017 at 12:01am —
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1222 1222 122
भुला दूँ अपनी आदत है? नहीं तो
यहाँ मन खुश निहायत है? नहीं तो
सुकूँ है चीज़ क्या एहसास तो दे
सिवा तेरे भी आयत है? नहीं तो
नज़र में है नमीं सब स्वप्न भींगे
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो
महज़ है नाम का भ्रम औ नहीं कुछ
तिलक टोपी इबादत है? नहीं तो
मिलो तो मन से वर्ना तुम न मिलना
छिपाने की इजाज़त है? नहीं तो
मौलिक अप्रकाशित
तरही ग़ज़ल माह अप्रैल के अनुरूप, देर से पेश
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 1, 2017 at 12:00am —
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22 22 22 22 22 22 22 22
कब रात हुई कब सुब्ह हुई, इस पत्थर ने कब है जानी
जब ताप चढ़ा ग़म का बेहद, तब धड़कन ने की मनमानी
चिंगारी पैदा होनी है, इस पत्थर से मत टकराओ
शोला ए इश्क़ ही भड़केगा, ग़र तूने बात नहीं मानी
वो सभी कथानक कल्पित हैं, जिनमें प्रियतम से मिलन हुआ
इस देवदास की प्यास अमिट, जो साथ घाट तक है जानी
ले जाना है तो ले जाओ, ये कुंडल कलम व ग़ज़ल कवच
इतिहास भला कैसे बदले, हर युग में कर्ण परम् दानी
इस दर पर लक्ष्मण का स्वागत,…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 12, 2017 at 11:00am —
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22 22 22 22 22 22 22 2
(बह्र ए मीर)
वो आएं मैं चहक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है
उन्हें देख कर चमक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है
तन पाटल चन्दन मन सुरभित वाणी ज्यों कचनार झरे
उनसे मिल कर महक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है
गेंहुवन रंग लटें नागिन सी हृदय पे सीधे वार करें
फिर भी उनके निकट न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है
सुर सरिता अधरों से बहती, इधर राग स्नेहिल पंछी
कोकिल स्वर संग कुहक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है
भाव भंगिमाओं का उत्तर,…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 8, 2017 at 10:48pm —
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ए ज़िन्दगी गुनगुनाने दे यूँ ही
मासूम बच्चों की किलकारियों में
खोया हुनर अपना हम आज ढूंढें
चलते ठुमक कर के नन्हें पगों सं'ग
हम भी तो चलने का कुछ सीख लें ढं'ग
जीने का अंदाज़ पाने दे यूँ ही
ए ज़िन्दगी गुनगुनाने दे यूँ ही।।
गिल्लू फुदकती, चहकते परिंदे
हम सीख लें मस्त, रहना तो इनसे
कल कल का संगीत बहती नदी से
कोयल की कू कू, से स्वर सीखने दे
हो के मगन मुस्कुराने दे यूँ ही
ए ज़िन्दगी गुनगुनाने दे यूँ…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 5, 2017 at 4:15pm —
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221 1222 221 1222
ये जाम अलग रख दे, आँखों से पिला साक़ी
सदियों से अधूरी है, होठों से पिला साक़ी
अंगूर की मदिरा तो, करती है असर कुछ पल
ता उम्र नशा होए, साँसों से पिला साक़ी
गिर जाते जिसे पीकर, वो जाम नहीं चाहूँ
आऊँ मैं नज़र खुद को आँखों से पिला साक़ी
मैं तोड़ भी लाऊँगा कह दे तो सितारे भी
तू इश्क़ को ग़र अपने ख्वाबों से पिला साक़ी
शीशे के ये पैमाने बेजान नहीं भाते
मैं ज़िन्दगी का आशिक़, भावों से पिला साक़ी
मौलिक…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 9:30am —
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2122 2122 2122 212
ज़िक्र उनका, दुश्मनों की भीड़ बढ़ती ही रही
और मीरा पर नशे सी प्रीत चढ़ती ही रही
फैसला दुनिया का कुछ औ इश्क़ को मंजूर कुछ
कोई दीवानी मुरत अश्कों से गढ़ती ही रही
रास राधा संग कान्हा का हुआ ब्रज भूमि में
एक पगली मूर्ति की मुस्कान पढ़ती ही रही
तान मुरली पर मचल कर नृत्य करतीं गोपियाँ
इक दिवानी प्रिय को अपने हिय में मढ़ती ही रही
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 1, 2017 at 12:25pm —
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2122 2122 2122 2122
ये भला कैसा प्रहर है, दूर मुझ से हमसफर है
नाम उसका ही जपे मन, खुद से लेकिन बेखबर है
मन्द सी मुस्कान ले कर, नूर बिखराया है किसने
आईने में खुद नहीं मैं, इश्क़ का कैसा असर है
इक दफ़ा ही तो मिलीं थीं, पर खुमारी अब भी बाकी
उम्र भर मदहोश रहना, यूँ नशीली वो नज़र है
सर्द अहसासों का मौसम, तो है पतझड़ बाग़ में
उफ़्फ़, ख्वाबों के झरे पत्ते घिरा बेबस शजर है
कंकरीटों की दीवारों बीच रहता ख़ुश्क कोई
कब्र जाने आदमी है, मत…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 29, 2017 at 11:00am —
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वैविध्य से परिपूर्ण है गणतंत्र हमारा।
हम सब से ही सम्पूर्ण है गणतन्त्र हमारा।।
समता के अनुच्छेद के पालन बिना सुनो।
हर हाल में अपूर्ण है गणतन्त्र हमारा।।
अभिव्यक्ति का अधिकार सभी को है मित्रवर।
पर पहले महत्वपूर्ण है गणतन्त्र हमारा।।
धर्मों का यहाँ संगम अद्भुत है ये धरा।
समरसता से अभिपूर्ण है गणतन्त्र हमारा।।
संसार के क्षितिज पे दमकता नक्षत्र है।
आदित्य सा प्रतूर्ण है गणतन्त्र हमारा।।
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 24, 2017 at 9:52am —
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तेरी राहों में ठहरा हूँ
जो तू आये तो मैं निखरूँ
यहाँ चाहत हज़ारों हैं
इज़ाज़त हो तो सब कह दूँ
ज़माने को बता भी दो
ग़ज़ल तुम पर ही सब लिक्खूँ
अभी माटी का पुतला है
छुएँ जो राम तो बोलूँ
सुदामा है गरीबी में
किशन आये तो धन पाऊँ
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 20, 2017 at 8:37pm —
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2122 2122 22 1222
सब किताबों से अलग तेरा फ़लसफ़ा क्यूँ है?
उस ने पूछा तू बता दुनिया से जुदा क्यूँ है?
सर्द रातों की वजह पछुवा ये पवन है क्या?
प्रश्न सूरज पे ये होना था, वो छिपा क्यूँ है?
पेट खाली औ न हो घर तो फिर यही तय था
पूछ मत यारा धुआँ घाटों पे उठा क्यूँ है?
छोड़ चिंता ये गरीबों की चल रज़ाई में
नींद में अपनी ख़लल खुद ही डालता क्यूँ है?
कर्म का फल तो सभी को ही है यहाँ मिलना
प्रीत तू भय से जगाने की सोचता क्यूँ…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 14, 2017 at 8:26pm —
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प्रिये हमनें तुमको ये हक़ दे दिया है
चले आना बेवक्त भी घर खुला है
तुम्हें देख चेहरे पे रौनक हुई तो
न समझो यही हाल पहले रहा है
धुँआ रौशनी ये अचानक नहीं सब
किसी घाट पर कोई आशिक़ जला है
कलम स्याह आँसू न यूँ ही बहाये
वियोगी कोई आज फिर लिख रहा है
उन्होंने तो इसको दिया ग़म का सागर
अलग बात उसमें भी पंकज खिला है
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 7, 2017 at 12:30am —
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वो दिन बेहतर थे जो गुजरे मेरे आवारगी में ही
शराफ़त रास दुनिया को कहाँ आती है कहिये भी
जला डाले सभी सपने ये दुनिया तो सितमगर है
कहाँ पहले कभी बिखरी थी मन पे रात की स्याही
न अब मासूमियत बाक़ी न अब बेफ़िक्री का मौसम
सहर आते थमा देती पिटारी जिम्मेदारी की
न जाने ढूँढता है क्या किधर को जा रहा है मन
भला क्यूँ रास आती ही नहीं दुनिया की ये क्यारी
गज़ब इंसानियत बदली फ़िदा है बस दिखावे पर
नज़र हर आंकती कीमत हुआ…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 3, 2017 at 11:30pm —
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