1. एक तन .... (क्षणिकाएं) ...
लड़ते-लड़ते
धरा की गोद में
लहुलुहान
कोई सो गया
तिरंगे में
लिपटा हुआ
फिर एक तन
एक वतन
हो गया
... ... ... ... ... ... ... ... ...
2. शेष ....
गोली
बारूद
धमाके
लाशें
चीखें
धुऐं की गर्द
बस
हदों के झगड़ों का
यही था
शेष
... ... ... ... ... ... ... ... ... ...
3. हल ....
लिपट गया
तिरंगे में
भारत माँ का
एक लाल…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2016 at 8:21pm — 2 Comments
बहुत याद आऊंगा ....
रोज की तरह
आज भी भानु रश्मियों ने
एक नये जोश के साथ
धरती पर अपने
पाँव पसारे
चिडियों की चहचहाट ने
वातावरण को अपनी मधुर ध्वनि से
अलंकृत कर दिया
साइकिल की घंटी बजाता दूधवाला
घर घर दूध की आवाज देने लगा
सड़क पर सफाई वालों ने भी
अपना मोर्चा सम्भाल लिया
ये सारा नजारा
मैं अपनी युवा काल से
आज तक
इसी तरह देखता हूँ
आज मैं
अपने बदन पर
चंद पतियों के साथ
सड़क के…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2016 at 3:16pm — 2 Comments
कमलनयनी ब्रांड .... ...
अरे!
ये क्या हुआ
कल ही तो वर्कशाप में
ठीक करवाया था
टेस्ट ड्राईव भी
करवाई थी
कार्य प्रणाली
बिलकुल ठीक पाई थी
माना
टक्कर बहुत भारी थी
दिल के
कई टुकड़े हो गए थे
पर वर्कशाप में
कमलनयनी ब्रांड के
नयनों के फैविकोल से
टूटे दिल के टुकड़े
अच्छी तरह चिपकाए थे
उसकी मधुर मुस्कान ने
ओके किया था
दिल फिर अपने
मूल रूप में
धड़कने लगा था
गज़ब
ठीक होते ही
वर्कशाप के मेकैनिक…
Added by Sushil Sarna on September 20, 2016 at 1:30pm — 6 Comments
सिंदूरी हो गयी ... (क्षणिकाएं )....
१.
ठहर जाती है
ज़िदंगी
जब
लंबी हो जाती है
अपने से
अपनी
परछाईं
...... .... .... .... ....
२.
एक सिंदूर
क्या रूठा
ज़िन्दगी
बेनूरी हो गयी
इक नज़र
क्या बन्द हुई
हर नज़र
सिंदूरी हो गयी
..... ..... ..... ..... ..... ....
३.
ज़ख्म
भर जाते हैं
समय के साथ
शेष
रह जाते हैं
अवशेष
घरौंदों में
स्मृतियों के
इक अनबोली
टीस के…
Added by Sushil Sarna on September 15, 2016 at 3:55pm — 2 Comments
ढलक गया .... (क्षणिकाएं )
१.
बंद था
एक लम्हा
पलकों की मुट्ठी में
सह न सका
दस्तक
याद की
और
ढलक गया
हौले से
.... ... ... ... ... ...
२.
था
एक ख़्वाब
जो
हकीकत से पहले
जाने कब
हकीकत में
ख्वाब हो गया
.... .... .... .... .... ....
३.
वो
ज़िदंगी का
बीता कल था
जिया मरके
जिसमें
वो सुहाना पल था
वो पल
सुख का
रूह से
बतियाता रहा
मारने के बाद…
Added by Sushil Sarna on September 13, 2016 at 4:39pm — 12 Comments
तुम मुझे मिल जाओगे ...
ये सृष्टि
इतनी बड़ी भी नहीं
कि तुम मेरी दृष्टि की
दृश्यता से
ओझल हो जाओ
असंख्य मकरंदों की महक भी
तुम्हारी महक को
नहीं मिटा सकती
तुम मेरी स्मृति की
गहन कंदरा में
किसी कस्तूरी गन्ध से समाये हो
सच कहती हूँ
तुम मेरे रूहानी अहसासों की
हदों को तोड़ न पाओगे
क्यूँ असंभव को
संभव बनाने का
प्रयास करते हो
अपने अस्तित्व का
मेरे अस्तित्व से
इंकार…
Added by Sushil Sarna on September 12, 2016 at 4:58pm — 4 Comments
रिश्तों को समझ जाएगी ...
न आवाज़ हुई
न किसी ने कुछ महसूस किया
इक जलजला आया
इक सूखा पत्ता
दरख़्त से गिरा
और बेनूर हुआ
इक आदि का
अंत हुआ
सीने में ही घुट गया
किसी अपने के खोने का दर्द
हरी कोपल हँसी
जीवन के इस खेल का
ए दरख़्त
अफ़सोस कैसा ?
नमनाक नज़रों से
दरख़्त
आरम्भ को देखता रहा
गिरते हुए पत्तों में
रिश्तों का अंत
देखता रहा
वो अंश था मेरा
जो इस तन से
टूट…
Added by Sushil Sarna on September 4, 2016 at 1:30pm — 8 Comments
मृत्यु फिर जीत गयी .......
लम्हे यादों के
बढ़ती शब् के साथ
पिघलते रहे
मेरे अहसास
लफ़्ज़ों के पैरहन में
गूंगे बन
सिरहाने रखीं किताब में
पिघलते रहे
दीवारों पर
छाई शून्यता की काई में
ये नज़रें
किसी के बहते लावे के साथ
पिघलती रही
मैं और तुम
का अस्तित्व
पिघलकर
एक हुआ
ज़िस्म केज़िंदाँ में
अनबोले लम्स
पिघलते रहे
ज़िस्म मिटे
साये…
Added by Sushil Sarna on September 3, 2016 at 4:00pm — 12 Comments
तन्हा रह जाता है ....
कल की तरह
ये आज भी गुजर जाएगा
स्मृतियों की कोठरी में
फिर कुछ और पल समेट जाएगा
हर कल के साथ
अपने अस्तित्व की शिला से
अपने अमिट होने का
दम्भ को पुष्ट करता रहेगा
हर कल का सूरज
अस्त्तित्वहीन होकर
किसी कल के गर्भ में
लुप्त हो जाएगा
क्या है जीवन
वो
जो गुजर गया
या वो
जो आज है
या फिर वो
जो आने वाले
काल के गर्भ में
सांसें ले रहा है
हर रोज़
इक मैं जन्म लेता…
Added by Sushil Sarna on September 2, 2016 at 9:05pm — 6 Comments
रिश्तों के सीनों में ......
कितनी सीलन है
रिश्तों की इन क़बाओं में
सिसकियाँ
अपने दर्द के साथ
बेनूर बियाबाँ में
कहकहों के लिबासों में
रक़्स करती हैं
न जाने
कितने समझौतों के पैबंदों से
सांसें अपने तन को सजाये
जीने की
नाकाम कोशिश करती हैं
ये कैसी लहद है
जहां रिश्ते
ज़िस्म के साथ
ज़मीदोज़ होकर भी
धुंआ धुंआ होती ज़िन्दगी के साथ
अपने ज़िन्दा होने का
अहसास…
Added by Sushil Sarna on September 1, 2016 at 9:30pm — 10 Comments
ये तो ख़्वाब हैं ...
शब् के हों
या सहर के हों
सुकूं के हों
या कह्र के हों
ये तो ख़्वाब हैं
ये कभी मरते नहीं
ज़ज़्बातों के दिल हैं ये
ये किसी कफ़स में
कैद नहीं होते
ये नवा हैं (नवा=स्वर)
ये हवा हैं
ये ज़ुल्मों की आतिश से
तबाह नहीं होते
ये हर्फ़ हैं
ये नूर हैं
किसी सनाँ के वार से (सनाँ=भाला)
इन्हें अज़ल नहीं आती
पलकों की ज़िंदाँ में (ज़िंदाँ =कारागार)
ये सांस लेते हैं
ज़िस्म फ़ना होते हैं मगर…
Added by Sushil Sarna on August 20, 2016 at 9:02pm — 8 Comments
इन्सां के लिए ... (क्षणिकाएं)
1 .
एक पत्थर उठा
शैतां के लिए
एक पत्थर उठा
जहां के लिए
एक पत्थर उठा
मकां के लिए
देवता बन
जी उठा
एक पत्थर
इन्सां के लिए
...... ..... ..... .....
२.
मैं आज तक
वो रिक्तता
नहीं नाप सका
जिसमें
कोई माँ
अपने जन्मे को
तन्हा छोड़
ब्रह्मलीन हो जाती है
मन को शून्यता की
क़बा दे जाती है
..... ..... ..... ..... .....
३.
हमने
प्रवाहित कर दी थी…
Added by Sushil Sarna on August 16, 2016 at 2:19pm — 10 Comments
Added by Sushil Sarna on August 15, 2016 at 11:31am — 8 Comments
भ्रम ....
कितनी देर तक
तुम अपने जाने से पहले
मुझे ढाढस बंधाते रहे
मेरी अनुनय विनय को
अपनी मजबूरियों के बोझ से
बार बार दबाते रहे
तुम्हारे दो टूक शब्दों का
मुझपर क्या असर होगा
तुमने एक बार भी न सोचा
बस कह दिया
मुझे जाना होगा
कब आना हो
कह नहीं सकता
मैं अबोध अंजान
क्या करती
सिर हिला दिया
नज़रें झुका ली
अपनी व्यथा
पलकों में छुपा ली
तुम्हारे कठोर शब्दों का…
Added by Sushil Sarna on August 14, 2016 at 4:30pm — 2 Comments
बहुत डरता है ......
बहुत डरता है
मनुष्य अपने जीवन के
क्षितिज को देखकर
अपनी आकांक्षाओं के
असीमित आकाश में
जीवन के
सूक्ष्म रूप को देख कर
कल्प को अल्प
बनता देखकर
सच ! बहुत डरता है
मुखौटों को जीने से
थक जाता है
संवदनाओं के
आडंबर के बोझ ढोने से
हार जाता है
दुनिया के साथ जीते जीते
डर जाता है
हृदय की गहन कंदराओं में
अपने ही अस्तित्व की
मौन उपस्थिति…
Added by Sushil Sarna on August 9, 2016 at 5:00pm — 8 Comments
ग़ुल अहसासों के ......
क्यों
कोई
अपना
बेवज़ह
दर्द देता है
ख़्वाबों की क़बा से
सांसें चुरा लेता है
ज़िस्म
अजनबी हो जाता है
रूह बेबस हो जाती है
इक तड़प साथ होती है
इक आवाज़
साथ सोती है
कुछ लम्स
रक्स करते हैं
कुछ अक्स
बनते बिगड़ते हैं
शीशे के गुलदानों में
कागज़ी फूलों से रिश्ते
बिना किसी
अहसास की महक के
सालों साल चलते हैं
फिर क्यों
इंसानी अहसासों के रिश्ते
ज़िंदा होते हुए…
Added by Sushil Sarna on August 6, 2016 at 4:19pm — 6 Comments
कितना अच्छा होता .....
कितना अच्छा लगता है
फर्श पर
चाबी के चलते खिलौने देखकर
एक ही गति
एक ही भाव
न किसी से कोई गिला
न शिकवा
ऐ ख़ुदा
कितना अच्छा होता
ग़र तूने मुझे भी
शून्य अहसासों का
खिलौना बनाया होता
अपना ही ग़म होता
अपनी ही ख़ुशी होती
न लबों से मुस्कराहट जाती
न आँखों में नमी होती
सब अपने होते
हकीकत की ज़मीं न होती
ख़्वाबों का जहां न होता
बस ऐ ख़ुदा
तूने हमें भी वो चाबी अता की होती…
Added by Sushil Sarna on August 2, 2016 at 7:30pm — 24 Comments
इक माँ होती है ....
कितना ऊंचा
घोंसला बनाती है
नयी ज़िन्दगी का
ज़मीं से दूर
घर बनाती है
अपने पंखों से
अपने बच्चों को
हर मौसम के
कहर से बचाती है
न जाने कहाँ कहाँ से लाकर
अपने बच्चों को
दाना खिलाती है
पंख आते हैं
तो उड़ना सिखाती है
नए पंखों को
आसमां अच्छा लगता है
ज़मी से रिश्ता बस
सोने का लगता है
देर होते ही मां
घोंसले पे आती है
नहीं दिखते बच्चे
तो बैचैन हो जाती है
सांझ होते…
Added by Sushil Sarna on August 1, 2016 at 2:27pm — 14 Comments
1.
मैं
मेरा
हमारा
बीत गया
जीवन सारा
साँझ ने पुकारा
लपटों ने संवारा
2.
मैं
तुम
अधूरे
हैं अगर
देह देह की
प्रीत भाल पर
स्नेह चंदन नहीं
3.
हे
राम
तुम्हारा
करवद्ध
अभिनन्दन
प्रभु कृपा करो
हरो हर क्रन्दन
4.
क्या
जीता
क्या हारा
मैं निर्बल
मैं बेसहारा
प्रभु शरण लो
मैं अंश…
Added by Sushil Sarna on July 30, 2016 at 9:00pm — 5 Comments
यादें....
यादें भी
कितनी बेदर्द
हुआ करती हैं
दर्द देने वाले से ही
मिलने की दुआ करती हैं
अश्कों की झड़ी में
हिज्र की वजह
धुंधली हो जाती है
चाहतों के फर्श पर
आडंबर की काई
बिछ जाती है
दर्दीले सावन बरसते रहते हैं
फिसलन भरी काई पर
अश्क भी फिसल जाते हैं
अब सहर भी कुछ नहीं कहती
अब दामन में नमी नहीं रहती
ज़माने के साथ
प्यार के मायने भी
बदल गए हैं
अब प्यार के मायने
नाईट क्लब के अंधेरों में…
Added by Sushil Sarna on July 29, 2016 at 2:53pm — 4 Comments
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