गीत :
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
संजीव 'सलिल'
*
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
मेरा जीवन वन प्रांतर सा
उजड़ा उखड़ा नीरस सूना-सूना.
हो गया अचानक मधुर-सरस
आशा-उछाह लेकर दूना.
उमगा-उछला बन मृग-छौना
जब तुम बसंत बन थीं आयीं..
*
दिन में भी देखे थे सपने,
कुछ गैर बन गये थे अपने.
तब बेमानी से पाये थे
जग के…
Added by sanjiv verma 'salil' on January 10, 2012 at 10:00am — 1 Comment
मुक्तक:
भारत
संजीव 'सलिल'
*
तम हरकर प्रकाश पा-देने में जो रत है.
दंडित उद्दंडों को कर, सज्जन हित नत है..
सत-शिव सुंदर, सत-चित आनंद जीवन दर्शन-
जिसका जग में देश वही अपना भारत है..
*
भारत को भाता है, जीवन का पथ सच्चा.
नहीं सुहाता देना-पाना धोखा-गच्चा..
धीर-वीर गंभीर रहे आदर्श हमारे-
पाक नासमझ समझ रहा है नाहक कच्चा..
*
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम-आप नेक हों…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 21, 2011 at 7:31am — 2 Comments
दोहा मुक्तिका
यादों की खिड़की खुली...
संजीव 'सलिल'
*
यादों की खिड़की खुली, पा पाँखुरी-गुलाब.
हूँ तो मैं खोले हुए, पढ़ता नहीं किताब..
गिनती की सांसें मिलीं, रखी तनिक हिसाब.
किसे पाता कहना पड़े, कब अलविदा जनाब..
हम दकियानूसी हुए, पिया नारियल-डाब.
प्रगतिशील पी कोल्डड्रिंक, करते गला ख़राब..
किसने लब से छू दिया पानी हुआ शराब.
मैंने थामा हाथ तो, टूट गया झट ख्वाब..
सच्चाई छिपती नहीं, ओढ़ें लाख…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 20, 2011 at 11:53am — No Comments
दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
--संजीव 'सलिल'
*
जिस का रण वह ही लड़े, किस कारण रह मौन.
साथ न देते शेष क्यों?, बतलायेगा कौन??
*
ताज महल में सो रही, बिना ताज मुमताज.
शिव मंदिर को मकबरा, बना दिया बेकाज..
*
भोग लगा प्रभु को प्रथम, फिर करना सुख-भोग.
हरि को अर्पण किये बिन, बनता भोग कुरोग..
*
योग लगाते सेठ जी, निन्यान्नबे का फेर.
योग न कर दुर्योग से, रहे चिकित्सक-टेर..
*
दस सर तो देखे मगर,…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on November 12, 2011 at 1:00am — No Comments
दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*
तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
*
तार रहे पुरखे- भले, मध्य न कोई तार.
तार-तम्यता बनी है, सतत तार-बे-तार..
*
हर आकार -प्रकार में, है वह निर-आकार.
देखें हर व्यापार में, वही मिला साकार..
*
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
*…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 5, 2011 at 1:23pm — No Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 30, 2011 at 10:29am — 6 Comments
दोहा सलिला:
दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.....
संजीव 'सलिल'
*
दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
*
दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल.. -यमक
*
गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार. -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो बेजार?. -यमक,
*
मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण. …
Added by sanjiv verma 'salil' on October 27, 2011 at 9:07am — 5 Comments
व्यंग्य रचना:
दीवाली : कुछ शब्द चित्र:
संजीव 'सलिल'
*
माँ-बाप को
ठेंगा दिखायें.
सास-ससुर पर
बलि-बलि जायें.
अधिकारी को
तेल लगायें.
गृह-लक्ष्मी के
चरण दबायें.
दिवाली मनाएँ..
*
लक्ष्मी पूजन के
महापर्व को
सार्थक बनायें.
ससुरे से मांगें
नगद-नारायण.
न मिले लक्ष्मी
तो गृह-लक्ष्मी को
होलिका बनायें.
दूसरी को…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 26, 2011 at 8:00am — 4 Comments
दोहा सलिला :
दोहों की दीपावली:
--संजीव 'सलिल'
दोहों की दीपावली, रमा भाव-रस खान.
श्री गणेश के बिम्ब को, अलंकार अनुमान..
दीप सदृश जलते रहें, करें तिमिर का पान.
सुख समृद्धि यश पा बनें, आप चन्द्र-दिनमान..
अँधियारे का पान कर करे उजाला दान.
माटी का दीपक 'सलिल', सर्वाधिक गुणवान..
मन का दीपक लो जला, तन की बाती डाल.
इच्छाओं का घृत जले, मन नाचे दे ताल..
दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 25, 2011 at 5:00pm — 4 Comments
मुक्तिका :
भजे लछमी मनचली को..
संजीव 'सलिल'
*
चाहते हैं सब लला, कोई न चाहे क्यों लली को?
नमक खाते भूलते, रख याद मिसरी की डली को..
गम न कर गर दोस्त कोई नहीं तेरा बन सका तो.
चाह में नेकी नहीं, तू बाँह में पाये छली को..
कौन चाहे शाक-भाजी-फल खिलाना दावतों में
चाहते मदिरा पिलाना, खिलाना मछली तली को..
ज़माने में अब नहीं है कद्र फनकारों की बाकी.
बुलाता बिग बोंस घर में चोर डाकू औ' खली को.. …
Added by sanjiv verma 'salil' on October 11, 2011 at 1:23am — No Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 6, 2011 at 10:36am — No Comments
एक गीत:
आईने अब भी वही हैं
-- संजीव 'सलिल'
*
आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 5, 2011 at 2:12am — 1 Comment
Added by sanjiv verma 'salil' on October 4, 2011 at 10:11pm — 2 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 3, 2011 at 7:30am — 5 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 2, 2011 at 6:30pm — 3 Comments
एक रचना:
कम हैं...
--संजीव 'सलिल'
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 2, 2011 at 8:00am — 5 Comments
एक गीत:
शेष है...
संजीव 'सलिल'
*
किरण आशा की
अभी भी शेष है...
*
देखकर छाया न सोचें
उजाला ही खो गया है.
टूटता सपना नयी आशाएँ
मन में बो गया है.
हताशा कहती है इतना
सदाशा भी लेश है...
*
भ्रष्ट है आचार तो क्या?
सोच है-विचार है.
माटी का तन निर्बल
दैव का आगार है.
कालिमा अमावसी में
लालिमा अशेष है...
*
कुछ न कहीं खोया…
Added by sanjiv verma 'salil' on September 30, 2011 at 1:41am — No Comments
एक हुए दोहा यमक:
संजीव 'सलिल'
*
लिए विरासत गंग की, चलो नहायें गंग.
भंग न हो सपना 'सलिल', घोंटें-खायें भंग..
*
सुबह शुबह में फर्क है, सकल शकल में फर्क.
उच्चारण में फर्क से, होता तर्क कु-तर्क..
*
बुला कहा आ धार पर, तजा नहीं आधार.
निरा धार होकर हुआ, निराधार साधार..
*
ग्रहण किया आ भार तो, विहँस कहा आभार.
देय - अ-देय ग्रहण किया, तत्क्षण ही साभार..
*
नाप सके भू-चाल जो बना लिये हैं यंत्र.
नाप सके भूचाल जो, बना न पाये…
Added by sanjiv verma 'salil' on September 27, 2011 at 7:30am — 1 Comment
एक गीत:
गरल पिया है...
संजीव 'सलिल'
*
तुमने तो बस गरल पिया है...
तुम संतोष करे बैठे हो.
असंतोष को हमने पाला.
तुमने ज्यों का त्यों स्वीकारा.
हमने तम में दीपक बाला.
जैसा भी जब भी जो पाया
हमने जी भर उसे जिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...
हम जो ठानें वही करेंगे.
जग का क्या है? हँसी उड़ाये.
चाहे हमको पत्थर मारे
या प्रशस्ति के स्वर गुंजाये.
कलियों की रक्षा करने को
हमने पत्थर किया हिया है…
Added by sanjiv verma 'salil' on September 26, 2011 at 9:30pm — 1 Comment
एक हुए दोहा यमक:
-- संजीव 'सलिल'
*
हरि से हरि-मुख पा हुए, हरि अतिशय नाराज.
बनना था हरि, हरि बने, बना-बिगाड़ा काज?
हरि = विष्णु, वानर, मनुष्य (नारद), देवरूप, वानर
*
नर, सिंह, पुर पाये नहीं, पर नरसिंहपुर नाम.
अब हर नर कर रहा है, नित सियार सा काम..
*
बैठ डाल पर काटता, व्यर्थ रहा तू डाल.
मत उनको मत डाल तू, जिन्हें रहा मत डाल..
*
करने कन्यादान जो, चाह रहे वरदान.
करें नहीं वर-दान तो, मत कर कन्यादान..
*
खान-पान कर…
Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2011 at 9:00am — 1 Comment
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