ग़ज़ल
अज़ीज़ बेलगामी
ग़म उठाना अब ज़रूरी हो गया
चैन पाना अब ज़रूरी हो गया
आफियत की ज़िन्दगी जीते रहे
चोट खाना अब ज़रूरी हो गया
गूँज उट्ठे जिस से सारी काएनात
वो तराना अब ज़रूरी हो गया
जारहिय्यत के दबे एहसास का
सर उठाना अब ज़रूरी हो गया
अब करम पर कोई आमादा नहीं
दिल दुखाना अब ज़रूरी हो गया
साज़िशौं, रुस्वायियौं को दफ'अतन…
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Added by Azeez Belgaumi on December 26, 2010 at 2:00pm —
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ऐसे समय में
जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है
बाजार हो रहा है हावी
और आदमी बिक रहा है
कैसी बच सकेगी आदमियत
यह सोचना जरूरी है।
टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें
हकीकत नहीं है
और न ही पेज 3 पर के चेहरे
आज भी बच्चे
दो जून की रोटी के लिये
चुनते हैं कचरे
और करते हैं बूट पालिष
अरमानों को संजोये
हजारों लडकियां
पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में
और यही हकीकत है।
पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है
जब बाजार हो रहा है…
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Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:29pm —
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Added by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 1:30am —
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मुक्तिका:
कौन चला वनवास रे जोगी?
संजीव 'सलिल'
**
कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
*
बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
*
भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
*
गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर…
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Added by sanjiv verma 'salil' on December 21, 2010 at 11:36pm —
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घनाक्षरी :
जवानी
संजीव 'सलिल'
*
१.
बिना सोचे काम करे, बिना परिणाम करे, व्यर्थ ही हमेशा होती ऐसी कुर्बानी है.
आगा-पीछा सोचे नहीं, भूल से भी सीखे नहीं, सच कहूँ नाम इसी दशा का नादानी है..
बूझ के, समझ के जो काम न अधूरा तजे- मानें या न मानें वही बुद्धिमान-ज्ञानी है.
'सलिल' जो काल-महाकाल से भी टकराए- नित्य बदलाव की कहानी ही जवानी है..
२.
लहर-लहर लड़े, भँवर-भँवर भिड़े, झर-झर झरने की ऐसी ही रवानी है.
सुरों में निवास करे,…
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Added by sanjiv verma 'salil' on December 20, 2010 at 5:00pm —
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ग़ज़ल
by
अज़ीज़ बेलगामी
हम समझते रहे हयात गयी
क्या खबर थी बस एक रात गयी
खान्खाहूँ से मैं निकल आया
अब वो महदूद काएनात…
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Added by Azeez Belgaumi on December 19, 2010 at 4:00pm —
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कविता :- हमें माफ करना स्वस्तिका
हमें माफ करना स्वस्तिका
हमने भुला दी है इंसान होने की संवेदना
अब हमें तुम्हारे…
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Added by Abhinav Arun on December 10, 2010 at 4:51pm —
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पत्थर
वह रोज उसे ठोकर मारता |
आते जाते |
मगर वह टस से मस नहीं हुआ |
एक दिन जोर की ठोकर मारते ही उसके पांव लहू लुहान हो गए |
अब वह उस पत्थर की पूजा करता है |
हाँथ जोड़कर उसी तरह रोज आते जाते |
पानी
बाप ने कहा "बेटा पानी अब सर से ऊपर हो रहा है "
"आप वसीयत कर दे "
"तुम्हारी बहन को भी तो हिस्सा देना होगा "
"शादी में जितना दिया था उसका हिसाब…
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Added by Abhinav Arun on December 4, 2010 at 4:55pm —
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मुक्तिका:
जीवन की जय गायें हम..
संजीव 'सलिल'.
*
जीवन की जय गायें हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहरायें हम..
*
बाधा-संकट -अड़चन से
जूझ-जीत मुस्कायें हम..
*
गिरने से क्यों डरें?, गिरें.
उठ-बढ़ मंजिल पायें हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गायें हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खायें हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 8:49pm —
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तुम और तुम्हारी यादें .. दिल से जाती ही नहीं ...
कई बार चाहा तुम चले जाओ..
मेरे दिल से .. मेरे दिमाग से ...
हर मुमकिन कोशिश कर के देख लिया ..
पर नाकाम रहे ...
कभी कभी सोचते हैं ..ऐसा क्या है हमारे बीच ...
जिसने हमें बांध कर रक्खा है ..
हमारा तो कोई रिश्ता भी नहीं ..
फिर क्या है ये ...?
"लेकिन नहीं" हैं न ..हमारे बीच एक सम्बन्ध ..
एहसास का सम्बन्ध ..
ये क्या है ..नहीं बता सकती मैं ..
एहसास को शब्दों में नहीं बाँध सकती मैं…
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Added by Anita Maurya on November 19, 2010 at 6:32pm —
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तम से लड़ता रहा, दीप जलता रहा
एक, नन्हा सा दिया,
बस ठान बैठा, मन में हठ
अंधियार, मैं रहने न दूं,
मैं ही अकेला, लूं निपट
मन में सुदृढ़ संकल्प ले
जलने लगा वो अनवरत,
संत्रास के झोकों ने घेरा
जान दुर्वल, लघु, विनत
दूसरा आकर जुड़ा,
देख उसको थका हारा
धन्य समझूं, मैं स्वयं को
जल मरूं, पर दूं सहारा
इस तरह जुड़ते गए,
और श्रृंखला बनती गयी
निष्काम,परहित काम आयें
भावना पलती गयी
एक होता… Continue
Added by Shriprakash shukla on November 19, 2010 at 2:00pm —
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प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
मुद्दतों हमने किया, पागलपन
हमने आवाज़ उठाई हक की
जबकि लोगों ने कहा, पागलपन
जाने वालों को सदा देने से
सोच क्या तुझको मिला, पागलपन
लोग सच्चाई से कतरा के गए
मुझ पे ही टूट पड़ा, पागलपन
जब भी देखा कभी मुड़ कर पीछे
अपना माज़ी ही लगा, पागलपन
खो गए वस्ल के लम्हे "श्रद्धा"
मूंद मत आँख, ये क्या पागलपन
Added by Shrddha on November 17, 2010 at 6:00pm —
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सर्व शक्तिमान एवं प्रत्यक्ष भगवान सूर्य के उपासना का पर्व छठ पिछले दिनों उत्तर भारत सहित पूरे भारत मे काफी श्रद्धा और उल्लास से मनाया गया, बिहार से सटे उत्तर प्रदेश के बलिया जिले मे भी छठ का पवित्र त्यौहार धूम धाम से मनाया गया |
इस त्यौहार की खास बात यह है कि छठ पूजा मे प्रथम अर्ध्य डूबते हुये सूर्य को दिया जाता है तथा दूसरा अर्ध्य उगते हुये सूर्य का किया जाता है, यह परंपरा एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत कि " उगते सूर्य को सभी सलाम करते है तथा डूबते…
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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 16, 2010 at 9:30am —
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ग़ज़ल:- आज़ादी की बस इतनी परिभाषा
पोर पोर पर प्रकृति ने फेंका पासा देख
क्यों उदास है तू बसंत की भाषा देख |
श्रमजीवी कलमें कहतीं रूमानी शेर
कैसी उभरी अंतस की अभिलाषा देख |
युग के विश्वामित्र ने फिर छेड़ी है रार
फिर त्रिशंकु की टूट रही है आशा देख |
ठूंठ भरी इस राह में रोड़े और छाले
इस पथ जाता कौन पथिक रुआंसा देख |
भूख ग़रीबी महंगाई और भ्रष्टाचार
आजादी की…
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Added by Abhinav Arun on November 15, 2010 at 3:25pm —
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देवोत्थानी एकादशी के अवसर पर मेरे पूज्य पिताजी देवों को जगाया करते थे आज उनकी स्मृति को मन मे संजोए उनकी परंपरा का निर्वाह मै निम्न शब्दों से करता हुआ आप सबको देव- उठानी एकादशी की बधाई देता हूँ.
जागो मेरे स्वामी जागो...
तुम सोए तो सो जाती है...
इस जग की ममता अनजानी,
कहाँ... न जाने खो जाती है,
मेरी भी क्षमता अनचीन्ही..
तुम जागो तो विश्व जागेगा
मानवता..विश्वास जगेगा...
भेद भावना ,… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on November 14, 2010 at 9:30pm —
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बाल दिवस पर विशेष
आज का दिन बहुत ही विशेष दिन है क्योकि आज का दिवस उन नन्हे-मुन्नों का है,जो आगे चलकर देश का बागडोर संभालेंगे !ये वही बच्चे है जिन्हें चाचा नेहरु ने देश का भविष्य कहा था .
आज पूरा देश पंडित जवाहरलाल नेहरु को याद कर उनका जन्मदिवस बाल दिवस के रूप में मना रहा है .चाचा नेहरु के देश में आज भी कुछ ऐसे बच्चे रह गए है जो इन…
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Added by Ratnesh Raman Pathak on November 14, 2010 at 12:41pm —
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हिन्दी कविता एक नए युग में प्रवेश कर चुकी है। इस युग में हिन्दी कविता वैश्विक मंच पर अन्तर्जाल के माध्यम से अपनी पहचान बना रही है । इसलिए इस युग को “अन्तर्जाल युग” ही कहा जाय तो ठीक रहेगा। आज के समय में अन्तर्जाल का प्रयोग करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। इसमें हिन्दीभाषी लोगों की संख्या भी कम नहीं है। धीरे धीरे ही सही अन्तर्जाल के माध्यम से हिन्दी कविता विश्व के कोने कोने तक पहुँच रही है। आज अधिकांश हिन्दी कविताएँ अन्तर्जाल पर उपलब्ध हैं। अब उभरते हुए कवियों को प्रकाशित होने के लिए…
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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 11, 2010 at 3:43pm —
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नवगीत ::
शेष धर
संजीव 'सलिल'
*
किया देना-पावना बहुत,
अब तो कुछ शेष धर...
*
आया हूँ जाने को,
जाऊँगा आने को.
अपने स्वर में अपनी-
खुशी-पीर गाने को.
पिया अमिय-गरल एक संग
चिंता मत लेश धर.
किया देना-पावना बहुत,
अब तो कुछ शेष धर...
*
कोशिश का साथी हूँ.
आलस-आराती हूँ.
मंजिल है दूल्हा तो-
मैं भी बाराती हूँ..
शिल्प, कथ्य, भाव, बिम्ब, रस.
सर पर कर केश धर.
किया देना-पावना…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 11, 2010 at 9:55am —
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ना यहाँ है ना वहाँ है साथियो
आजकल इंसां कहाँ है साथियो
आम जनता डर रही है पुलिस से
चुप यहाँ सब की जबाँ है साथियो
पार्टी में हाथ है हाथी कमल
आदमी का क्या निशां है साथियो
लीडरों का एक्स-रे कर लीजिए
झूठ रग रग में रवाँ है साथियो
ये उठा दें रैंट पर या बेच दें
मुल्क तो इनका मकां है साथियो
Added by Arun Chaturvedi on November 10, 2010 at 5:44pm —
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शब-ए-अमावस को चिढ़ाने कल निकला था चाँद
काली चादर ओढ़कर भी कितना उजला था चाँद
खूब कोशिशों पर भी कुछ समेट ना पाया आसमाँ
सुबह होते ही बुलबुले सा फूटकर बिखरा था चाँद
दिखती है दरिया में कैद आज तलक परछाई
उस रोज़ कभी नहाते वक़्त जो फिसला था चाँद
क्या पता रंजिश थी या जमाने का कोई दस्तूर
रोज़ की तरह आज भी सूरज निगला था चाँद
दोनों जले थे रात भर अलाव भी और चाँद भी
तेरे लम्स के पश्मीने में भी…
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Added by विवेक मिश्र on November 9, 2010 at 12:23pm —
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