दोहा सलिला:
जिज्ञासा ही धर्म है
संजीव 'सलिल'
*
धर्म बताता है यही, निराकार है ईश.
सुनते अनहद नाद हैं, ऋषि, मुनि, संत, महीश..
मोहक अनहद नाद यह, कहा गया ओंकार.
सघन हुए ध्वनि कण, हुआ रव में भव संचार..
चित्र गुप्त था नाद का. कण बन हो साकार.
परम पिता ने किया निज, लीला का विस्तार..
अजर अमर अक्षर यही, 'ॐ' करें जो जाप.
ध्वनि से ही इस सृष्टि में, जाता पल में व्याप..
'ॐ' बना कण फिर हुए, ऊर्जा के…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 18, 2010 at 11:30pm —
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कोहरे से और बर्फ से, मिला हवा ने हाथ!
अबकी जाड़े में दिया, फिर सूरज को मात !! १
काँप रहा है भीति से, लोक तंत्र का बाघ!
संबंधों में शीत है, और फिजां में आग !!२
रिश्ते नातों में लगा, शीतलता का दाग !
काँप रही है देखिये, कैसे थर-थर आग !!३
फिर पतझड़ की याद में, वृक्ष हो गए म्लान!
छेड़ रहे हैं रात भर, दर्द भरी एक तान !!४
धूप भली लगती कहाँ, याद आ रही रात !
ऊष्ण वस्त्र तो हैं नहीं होना है हिमपात !!५
पहरा देती है हवा,…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 15, 2010 at 11:00pm —
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(मेरी ये रचना बिल्कुल नवीन, अप्रकाशित और अप्रसारित है।)
इस बार दशहरे पे नया काम हम करें,
रावण को अपने मन के चलो राम हम करें ।
दूजे के घर में फेंक के पत्थर, लगा के आग,
मज़हब को अपने-अपने न बदनाम हम करें ।
उसका धरम अलग सही, इन्सान वो भी है,
तकलीफ़ में है वो तो क्यूं आराम हम करें ।
माज़ी की तल्ख़ याद को दिल से निकाल कर,
मिलजुल के सब रहें, ये इन्तिज़ाम हम करें ।
अपने किसी अमल से किसी का न दिल दुखे,
जज़बात का सभी…
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Added by moin shamsi on October 12, 2010 at 5:25pm —
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शैतान अपना काम बनाकर चला गया
आपस में भाइयों को लड़ाकर चला गया
फिर आदतन वो मुझको सताकर चला गया
हँसता हुआ जो देखा रुलाकर चला गया
उल्फत का मेरी कैसा सिला दे गया मुझे
पलकों पे मेरी अश्क सजाकर चला गया
"जाने से जिसके नींद न आई तमाम रात"
वो कौन था जो ख्वाब में आकर चला गया
बदनाम कर रहा था जो मुझको गली गली
देखा मुझे तो नज़रें झुकाकर चला गया
कातिल को जब वफाएं मेरी याद आ गयीं
तुरबत पे मेरी अश्क बहाकर चला…
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Added by Hilal Badayuni on October 11, 2010 at 11:00pm —
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देखो पुकार कर कहता है
भारत माँ का कण-कण, जन जन
हम बने विजय के अग्रदूत
भारत माँ के सच्चे सपूत...
हम बढ़ें अमरता बुला रही...
यश वैभव का पथ दिखा रही ...
यश-धर्म वहीँ है, विजय वहीँ..
जिस पल जीवन से मोह नहीं
आसक्ति अशक्त बनाती है ...
यश के पथ से भटकाती है ...
जो मरने से डर जाता है...
वह पहले ही मर जाता है ...
हम पहन चलें फिर विजयमाल,
रोली अक्षत से सजा भाल...
हम बनें विजय के अग्रदूत...
भारत माँ के सच्चे… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 6, 2010 at 9:11am —
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फूल जैसे किसी बच्चे की झलक है मुझ मे,
कितने मासूम ख्यालों की महक है मुझ में !
रोज़ चलता हूँ हजारों किलोमीटर लेकिन,
खत्म होती ही नहीं कैसी सड़क है मुझ में !
मैं उफ़क हूँ मेरा सूरज से है रिश्ता गहरा,
एक दो रंग नही सारी धनक है मुझ में !
वो मुहब्बत वो निगाहें वो छलकते आँसू,
चंद यादों की अभी बाक़ी खनक है मुझ में
चाँद से कह दो हिकारत से ना देखे मुझ को,
माना जुगनू हूँ मगर अपनी चमक है मुझ में !
Added by SYED BASEERUL HASAN WAFA NAQVI on September 30, 2010 at 7:30pm —
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मुखौटे
हर तरफ मुखौटे..
इसके-उसके हर चहरे पर
चेहरों के अनुरूप
चेहरों से सटे
व्यक्तित्व से अँटे
ज़िन्दा.. ताज़ा.. छल के माकूल..।
मुखौटे जो अब नहीं दीखाते -
तीखे-लम्बे दाँत, या -
उलझे-बिखरे बाल, चौरस-भोथर होंठ
नहीं दीखती लोलुप जिह्वा
निरंतर षडयंत्र बुनता मन
उलझा लेने को वैचारिक जाल..
..... शैवाल.. शैवाल.. शैवाल..
तत्पर छल, ठगी तक निर्भय
आभासी रिश्तों का क्रय-विक्रय
होनी तक में अनबुझ व्यतिक्रम
अनहोनी का…
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Added by Saurabh Pandey on September 27, 2010 at 1:00pm —
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खुदाई जिनको आजमा रही है,
उन्हें रोटी दिखाई जा रही है.
शजर कैसे तरक्की का हरा हो,
जड़ें दीमक ही खाए जा रही है.
राम उनके भी मुंह फबने लगे हैं,
बगल में जिनके छुरी भा रही है .
कहाँ से आयी है कैसी हवा है ,
हमारी अस्मिता को खा रही है.
तिलक गांधी की चेरी जो कभी थी ,
सियासत माफिया को भा रही है.
हाई-ब्रिड बीज सी पश्चिम की संस्कृति ,
ज़हर भी साथ अपने ला रही है .
शेयर बाज़ार ने हमको दिया क्या ,
गरीबी और बढती…
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Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:00pm —
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कैसी तरखा हो गयी है गंगा ! यूँ पूरी गरमी में तरसते रह जाते हैं , पतली धार बनकर मुँह चिढ़ाती है ; ठेंगा दिखाती है और पता नहीं कितने उपालंभ ले-देकर किनारे से चुपचाप निकल जाती है ! गंगा है ; शिव लाख बांधें जटाओं में -मौज और रवानी रूकती है भला ? प्राबी गंगा के उन्मुक्त प्रवाह को देख रही है. प्रांतर से कुररी के चीखने की आवाज़ सुनाई देती है. उसका ध्यान टूटता है. बड़ी-बड़ी हिरणी- आँखों से उस दिशा को देखती है जहां से टिटहरी का डीडीटीट- टिट स्वर मुखर हो रहा था…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 22, 2010 at 10:07am —
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बात उनसे कभी हो गयी
ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो गयी
दिल्लगी आशिकी हो गयी
आशिकी बंदगी हो गयी
वो तसव्वुर में क्या आ गए
क़ल्ब में रौशनी हो गयी
जब कभी उनसे नज़रें मिली
अपनी तो मैकशी हो गयी
बात फिर से जो होनी न थी
बात फिर से वो ही हो गयी
जब कभी वो खफा हो गए
ख़त्म सारी ख़ुशी हो गयी
बादलो क जब आंसू गिरे
कुल जहाँ में नमी हो गयी
सैकड़ो घोंसले गिर गए
क्यों हवा सरफिरी हो गयी
ध्यान उनका…
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Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 3:30pm —
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उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया
इस जीवन से तूने क्या लिया |
इस जीवन को तूने क्या दिया
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया |
ता उम्र तू रहा इस कदर बेखबर
रही न तुझे अपनी जमीर की खबर |
करता रहा तू मनमानी अपनी
रही न तुझे वक्त की खबर
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया |
करता रहा तू मेरा - मेरा
नही है , यहा कुछ तेरा - मेरा |
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया
मनुष्य जन्म तुझे है , किसलिए मिला
इस जन्म को किया क्या सार्थक तूने |
उम्रे तमाम गुजारी…
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Added by Pooja Singh on September 21, 2010 at 9:35am —
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काश रहबर मिला नहीं होता
मै सफ़र में लुटा नहीं होता
गुंडागर्दी फरेब मक्कारी
इस ज़माने में क्या नहीं होता
हम तो कब के बिखर गए होते
जो तेरा आसरा नहीं होता
आग नफरत की जिसमे लग जाये
पेढ़ फिर वो हरा नहीं होता
हम शराबी अगर नहीं बनते
एक भी मैकदा नहीं होता
हिन्दू मुस्लिम में फूट मत डालो
भाई भाई जुदा नहीं होता
ये सियासत की चाल है लोगो
धर्म कोई बुरा नहीं होता
मंदिरों मस्जिदों पे लढ़ते…
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Added by Hilal Badayuni on September 21, 2010 at 12:56pm —
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इस बार वो ये बात अजब पूछते रहे
मेरी उदासियो का सबब पूछते रहे
अब ये मलाल है कि बता देते राज़-ऐ-दिल
तब कह सके न कुछ भी वो जब पूछते रहे
Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 4:00pm —
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तुम्हारे देश के उम्र की है
अपने चेहरे की सलवटों को तह करके
इत्मीनान से बैठी है
पश्मीना बालों में उलझी
समय की गर्मी
तभी सूरज गोलियां दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के
तुम्हारी आँखों की सुइयां
बुन रही हैं रेशमी शालू
कसीदे
फुलकारियाँ
दरियां ..
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़
अभी-अभी देख आई है
कि चीड और…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 20, 2010 at 4:00pm —
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खु़दा मेरी दीवानगी का राज फा़श हो जाये
वो हैं मेरी ज़िन्दगी उन्हें एहसास हो जाये
सांसे उधर चलती है धड़कता है दिल मेरा
एक ऐसा दिल उनके भी पास हो जाये
हर मुलाकात के बाद रहे हसरत दीदार की
ऐसे मिले हम दूर वस्ल की प्यास हो जाये
तड़पता है दिल उनके लिये तन्हाई में कितना
बेताबी भरा जज़्बात उधर भी काश हो जाये
तश्नाकामी इस कदर रहे नामौजुदगी में उनकी
जैसे सूखी जमीं को सबनमी तलाश हो जाये
करे तफ़सीर कैसे दिल उल्फत का ब्यां…
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Added by Subodh kumar on September 19, 2010 at 9:44pm —
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अपनी बुराइयाँ जो कभी देखता नही
लगता है उसके पास कोई आईना नही
गुलशन मे रहके फूल से जो आशना नही
उसका तो खुश्बुओ से कोई वास्ता नही
हम सा वफ़ा परस्त वतन को मिला नही
लेकिन हमारा नाम किसी से सिवा नही
मैं उससे कर रहा हू वफाओं की आरज़ू
जिस शक्स का वफ़ा से कोई राबता नही
तुम मिल गये तो मिल गयी दुनिया की हर खुशी
पास आने से तुम्हारे मेरे पास क्या नही
उनका ख्याल आया तो अशआर हो गये
अशआर कहने के लिए मैं सोचता…
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Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 2:30pm —
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वह सामने खड़ी थी . मैं उसकी कौन थी ? क्यों आई थी वह मेरे पास ? बिना कुछ लिए चली क्यों गयी थी? न मैंने रोका, न वह रुकी. एक बिजली बनकर कौंधी थी, घटा बनकर बरसी थी और बिना किनारे गीले किये चली भी गयी . कुछ छींटे मेरे दामन पर भी गिरे थे. मैंने अपना आँचल निचोड़ लिया था. लेकिन न जाने उस छींट में ऐसा क्या था कि आज भी मैं उसकी नमी महसूस करती हूँ - रिसती रहती है- टप-टप और अचानक ऐसी बिजली कौंधती है कि मेरा खून जम जाता है -हर बूंद आकार लेती है ; तस्वीर बनती है -धुंधली -धुंधली ,सिमटी-सिमटी फिर कोई गर्म…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 19, 2010 at 5:00pm —
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क्या स्वीकार कर पाएगी वह ?
कोयला उसे बहुत नरम लगता है
और कहीं ठंडा ..
उसके शरीर में
जो कोयला ईश्वर ने भरा है
वह अजीब काला है
सख्त है
और कहीं गरम .!
अक्सर जब रात को आँखों में घड़ियाँ दब जाती हैं
और उनकी टिकटिक सन्नाटे में खो जाती है ..
तब अचानक कुछ जल उठता है ..
और सारे सपनों को कुदाल से तोड़
वह न जाने किस खंदक में जा पहुँचती है l
तभी पहाड़ों से लिपटकर
कई बादल…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 18, 2010 at 7:00pm —
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क्या हुआ ? ज़िन्दगी ज़िन्दगी ना रही
खुश्क आँखों में केवल नमी रह गई --
तुझको पाने की हसरत कहीं खो गई
सब मिला बस तेरी एक कमी रह गई |
आँधियों की चरागों से थी दुश्मनी
अब कहाँ घर मेरे रौशनी रह गई |
ना वो सजदे रहे ना वो सर ही रहे
अब तो बस नाम की बन्दगी रह गई |
अय तपिश जी रहे हो तो किसके लिए ?
किसके हिस्से की अब ज़िन्दगी रह गई |
Added by jagdishtapish on September 18, 2010 at 12:30pm —
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क़ल्ब ने पाई है राहत आप से मिलने के बाद,
हो गयी ज़ाहिर मोहब्बत आप से मिलने के बाद,
ये इनायत है नवाज़िश है करम है आपका,
बढ़ गयी है मेरी इज़्ज़त आप से मिलने के बाद,
Added by Hilal Badayuni on September 18, 2010 at 2:30pm —
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