ग़ज़ल
by Tarlok Singh Judge
गिर गया कोई तो उसको भी संभल कर देखिये
ऐसा न हो बाद में खुद हाथ मल कर देखिये
कौन कहता है कि राहें इश्क की आसन हैं
आप इन राहों पे, थोडा सा तो चल कर देखिये
पाँव में छाले हैं, आँखों में उमीन्दें बरकरार
देख कर हमको हसद से, थोडा जल कर देखिये
आप तो लिखते हो माशाल्लाह, बड़ा ही खूब जी
कलम का यह सफर मेरे साथ चल कर देखिये
क्या हुआ दुनिया ने ठुकराया है, रोना छोडिये
बन के सपना, मेरी आँखों में मचल कर…
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Added by Tarlok Singh Judge on September 17, 2010 at 9:27pm —
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कांपते हाथों से
वह साफ़ करता है कांच का गोला
कालिख पोंछकर लगाता है जतन से ..
लौ टिमटिमाने लगी है ..
इस पीली झुंसी रोशनी में
उसके माथे पर लकीरें उभरती हैं
बाहर जोते खेत की तरह
समय ने कितने हल चलाये हैं माथे पर ?
पानी की टिपटिप सुनाई देती है
बादलों की नालियाँ छप्पर से बह चली हैं
बारह मासा - धूप, पानी ,सर्दी को
अपनी झिर्रियों से आने देती
काला पड़ा पुआल तिकोना मुंह बना
हँसता है
और वह…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 17, 2010 at 5:00pm —
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अधीरता
व्यग्र हो अधीर हो,कौतुक हो जिज्ञाशु हो ,
जोड़ ले पैमाना उत्थान का,
घटा ले पैमाना पतन का,
हुआ वही जो होना था,
होगा वही जो तय होगा,
परिणिति शास्वत विनिश्चित है ,
ईश्वरीय परिधि में,
मानवीय स्वाभाव न बदला है,न बदलेगा,
होगा वही जो होना है, शाश्वत युगों से.
....अलका तिवारी
Added by alka tiwari on September 16, 2010 at 3:35pm —
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याद है मुझे !
पिछला सावन
जमकर बरसी थी
घटाएँ
मुस्कुरा उठी थी पूरी वादीयाँ
फूल, पत्तियां मानो
लौट आया हो यौवन
सब-कुछ हरा-भरा
भीगा-भीगा सा
ओस की बूँदें
हरी डूब से लिपट
मोतियों सी
बिछ गई थी
हरे-भरे बगीचे में
याद है मुझे !
गिर पडा था मैं
बहुत रोया
माँ ने लपक कर
समेट लिया था
उन मोतियों को
अपने आँचल में
मेरे छिले घुटने पे
लगाया था मरहम
पौंछ कर मेरे आँसू और
मुझे बगीचे… Continue
Added by Narendra Vyas on September 15, 2010 at 10:16pm —
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तोड़ना जीस्त का हासिल समझ लिया होगा
आइने को भी मेरा दिल समझ लिया होगा
जाने क्यूँ डूबने वाले की नज़र थी तुम पर
उसने शायद तुम्हे साहिल समझ लिया होगा
चीख उठे वो अँधेरे में होश खो बैठे
अपनी परछाई को कातिल समझ लिया होगा
यूँ भी देता है अजनबी को आसरा कोई
जान पहचान के काबिल समझ लिया होगा
हर ख़ुशी लौट गई आप की तरह दर से
दिल को उजड़ी हुई महफ़िल समझ लिया होगा
ऐ तपिश तेरी ग़ज़ल को वो ख़त समझते हैं
खुद को हर लफ्ज़ में शामिल समझ…
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Added by jagdishtapish on September 15, 2010 at 7:12pm —
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नवगीत:
संजीव 'सलिल'
*
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 15, 2010 at 7:54am —
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आज हिन्दी दिवस है . लेकिन क्या हम सही मायने में हिन्दी को वो सम्मान दे पा रहे है जो चाहिये, आज हिन्दी केवल कहने मात्र की राष्ट्र भाषा रह गई है | आज के युग में जहाँ हर तरफ पश्चिमी सभ्यता का चलन है इसलिये हमे हिन्दी का अस्तित्व बचाने के लिए बहुत प्रयास करना होगा तभी हिन्दी की गरिमा बच सकेगी और हिन्दी सही मायने में भारत की राष्ट्र भाषा बन सकेगी |
जय हिंद |
Added by Pooja Singh on September 14, 2010 at 5:30pm —
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तीन पद:
संजीव 'सलिल'
*
धर्म की, कर्म की भूमि है भारत,
नेह निबाहिबो हिरदै को भात है.
रंगी तिरंगी पताका मनोहर-
फर-फर अम्बर में फहरात है.
चाँदी सी चमचम रेवा है करधन,
शीश मुकुट नगराज सुहात है.
पाँव पखारे 'सलिल' रत्नाकर,
रवि, ससि, तारे, शोभा बढ़ात है..
*
नीम बिराजी हैं माता भवानी,
बंसी लै कान्हा कदम्ब की छैयां.
संकर बेल के पत्र बिराजे,
तुलसी में सालिगराम रमैया.
सदा सुहागन अँगना की सोभा-
चम्पा, चमेली, जुही में…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 13, 2010 at 11:33pm —
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:::::
हिंदी दिवस :::::
::::: (
क्या इस दिवस का नाम लेने भर की भी हैसियत है हमारी ?) :::: ©
हिंदी हिंदी हिंदी !!!
► . . . आज सभी इस शब्द केपीछे पड़े हैं, जैसे शब्द न हुआ तरक्की पाने अथवा नाम कमाने का वायस हो गया l खुद के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में चाहेंगे और शोर ऐसा कि बिना हिंदी के जान निकल जाने वाली है l अरे मेरे बंधु यह दोगलापन किसलिए ? स्वयं को धोखा किस प्रकार दे लेते हैं हम ? किसी से बात करते समय खुद को अगर ऊँचे…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 14, 2010 at 1:30pm —
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दो शब्द हिन्दी दिवस पर: 14 सितम्बर की बधाई
हिम तुल्य शितल, न्याय तुल्य निश्चल, दीप तुल्य उज्जवल
तीन अक्षर का संगम हिन्दी! सुबोध भाव अति निर्मल
अभिन्न भेष-भुषा सस्ंकृति से मान बढ़े लोकप्रियता का
केवल नागरिकता नहीं उचित परिचय राष्ट्रीयता का
भारतीयता का पूर्णतः प्रतीक हिन्दी बोल विशिष्ट विमल
वर्णित भारतीय सविंधान में है प्रस्तावना का प्रालेख
स्वीकृति सम्पूर्ण भारत में हो हिन्दी नियमित उल्लेख
कारण कई उत्तमता का लिपि सहज सरस सरल
गगन…
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Added by Subodh kumar on September 14, 2010 at 7:00am —
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आग हूँ कुछ पल दहक जाने की मोहलत चाहता हूँ ,
दर्द को पीकर बहक जाने की मोहलत चाहता हूँ.
फिर बिखर जाऊँगा एक दिन पिछले मौसम की तरह ,
फूल हूँ कुछ पल महक जाने की मोहलत चाहता हूँ,
पहले कीलें ठोकिये पहनाईए काँटों का ताज ,
फिर मैं सूली पर लटक जाने की मोहलत चाहता हूँ.
आपकी इन बूढ़ी आँखों का सहारा बन सकूं ,
इसलिए बाबा शहर जाने की मोहलत चाहता हूँ.
कतरा कतरा चूसकर हर शख्स मीठा हो गया…
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Added by Abhinav Arun on September 12, 2010 at 10:38pm —
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Added by Subodh kumar on September 11, 2010 at 11:00am —
4 Comments
बन्द कमरे में जो मिली होगी
वो परेशान जिन्दगी होगी
यूं भी कतरा के गुजरने की वजह
हममें तुममें कहीं कमी होगी
हम सितम को वहम समझ बैठे
कौन सी चीज आदमी होगी
और भी कई निशान उभरे है
तेरी मंजिल यहीं कहीं होगी
ये है दस्तूरे आशनाई तपिश
उनकी आँखों में भी नमी होगी --
मेरे काव्य संग्रह ---कनक ---से -
Added by jagdishtapish on September 8, 2010 at 8:20am —
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.
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©
::::: मैं एक हर्फ़ हूँ ::::: Copyright © (मेरी नयी कविता)
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 09 अगस्त 2010 )
मेरे मित्र आर.बी. की लिखी एक रचना जो नीचे ब्रैकेट्स में लिखी है से प्रेरित होकर मैंने अपनी रचना रची है..
आर.बी. की मूल रचना नीचे है आप देख सकते हैं ► ► ►
((hum dono jo harf hain....
hum ek roz mile....
ek lafz bana...
aur humne ek maane…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 5, 2010 at 10:00pm —
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नफरत के बदले प्यार को लुटा रहा हूँ मैं
सदियों पुरानी रस्म को ठुकरा रहा हूँ मैं
मेरी ज़ात को समा ले अपनी ही ज़ात में
है बचा खुचा जो चेहरा वो मिटा रहा हूँ मैं
गीतों में मेरे ख़ुशबू अब होने लगी दोबाला
अब इनमे तेरी रंगत को मिला रहा हूँ मैं
नगमे वफ़ा के शायद निकले तुम्हारी रूह से
यही सोच शेख साहिब तुझे पिला रहा हूँ मैं
तेरे मतब पे जाकर भी इन्सां बना रहूँगा
तेरी रिवायत की जड़ें हिलाने जा रहा हूँ मैं
देता रहा वाईज मुझे जो…
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Added by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on September 5, 2010 at 11:19am —
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अक्सर कई मित्र पूछ लेते हैं हंसी मजाक में --भाई ये ग़ज़ल क्या होती है --
ग़ज़ल कह के ही समझाओ हमें --ऐसी ही मुश्किल को आसान करने का छोटा सा प्रयास
किया है हमने ---उन्हीं मित्रों को सादर समर्पित है
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शमां से आँख लड़ी हो तो ग़ज़ल होती है ---
या के फिर खूब चढ़ी हो तो ग़ज़ल होती है |
तुम किसी शोख हसीना को छेड़ कर देखो --
जेल जाने की घडी हो तो ग़ज़ल होती है --|
वो शाम से ही अगर ले रहे हों अंगड़ाई --
तमाम रात…
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Added by jagdishtapish on September 5, 2010 at 9:30am —
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आज...
मैं बहुत खुश हूँ...
पूरी दुनिया 'कल' थी...
पर 'मैं' आज हूँ..
क्योंकि आ ज मिला है मुझे...
एक नया खिलौना...
जिसे सब कह रहे थे 'तिरंगा'...
कल था ये सबके हाथों में...
चाहता था मैं भी...
इसे छूना...
लहराना...
फेहराना...
पर किसी ने ना दिया इसे हाथ लगाना...
जैसे ना हो 'हक' मुझे इन सबका...
कल था तरसता सिर्फ 'एक' को...
आज पाया है पड़ा 'अनेक' को...
कल… Continue
Added by Julie on September 5, 2010 at 9:37pm —
4 Comments
मुक्तिका:
चुप रहो...
संजीव 'सलिल'
*
महानगरों में हुआ नीलाम होरी चुप रहो.
गुम हुई कल रात थाने गयी छोरी चुप रहो..
टंग गया सूली पे ईमां मौन है इंसान हर.
बेईमानी ने अकड़ मूंछें मरोड़ी चुप रहो..
टोफियों की चाह में है बाँवरी चौपाल अब.
सिसकती कदमों तले अमिया-निम्बोरी चुप रहो..
सियासत की सड़क काली हो रही मजबूत है.
उखड़ती है डगर सेवा की निगोड़ी चुप रहो..
बचा रखना है अगर किस्सा-ए-बाबा भारती.
खड़कसिंह ले…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 4, 2010 at 8:30am —
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तुम कौन ?
तुम कौन जो धीमे सा एक गीत सुना देते हो ,
मन के अन्दर एक रौशन करता दीप जला देते हो|
बंद कर ली मैंने सुननी कानों से आवाजें ,
जब से सुन ली मैंने अपने दिल की ही आवाजें ||
तुम भूखे बच्चो के मुंह से निकली क्रंदन वेदना सी,
तुम जर्जर होते अपेक्षित माँ बापू के विस्मय सी |
तुम पेट की भूख की खातिर दौड़ते बेरोजगार युवा सी,
तुम खुद को स्थापित करती एक नारी की कोशिश सी,
तुम आतंकियों की भेदी…
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Added by Dr Nutan on September 4, 2010 at 4:00pm —
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Added by Subodh kumar on September 3, 2010 at 5:00pm —
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