Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 19, 2017 at 7:30pm — 6 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 5, 2017 at 7:34pm — 8 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 26, 2017 at 9:00pm — 9 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 14, 2017 at 5:30pm — 10 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 3, 2017 at 8:30pm — 26 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 21, 2017 at 9:30am — 16 Comments
मेरे मुस्कुराने का कारण हो तुम
तन्हाई में गुनगुनाने का कारण हो
तपती दोपहर में बरसते सावन में
भीड़ में और दूर तलक
वीरान उदास राहों में
कभी फूलों भरी और
कभी छितराए हुए काँटों में
बेपरवाह चलते जाने का कारण हो
जब कभी तन्हाई मुझे सताती है
दिल को झकझोरती है और
आत्मा को जलाती है
लेकिन वो भूल जाती है
उसके साथ-साथ तुम्हारी याद
हर लम्हा मुझे सहलाती है
और अहसास ये होता
तुम मेरे साथ हो…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 15, 2017 at 5:30pm — 6 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 5, 2017 at 9:30am — 23 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 17, 2016 at 5:09pm — 8 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 20, 2016 at 4:30pm — 16 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 29, 2016 at 12:00am — 2 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 23, 2016 at 12:14am — 8 Comments
बहरे हज़ज़ मुसम्मन मक्बुज.....
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
सरे निगाह शाम से ये क्या नया ठहर गया
ये कौन सीं हैं मंजिलें ये क्या गज़ब है आरजू
जिसे सँभाल कर रखा वही समा बिखर गया
अभी है वक़्त बेवफा अभी हवा भी तेज है
अभी यहीं जो साथ था वो हमनवा किधर गया
ये वादियाँ ये बस्तियाँ ये महफ़िलें ये रहगुजर
हज़ार गम गले पड़े…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2016 at 9:53pm — 8 Comments
2212 2212 2212
ढलती सुहानी शाम है आ जाइये
हर सू तुम्हारा नाम है आ जाइये
ये वादियाँ ये खुश्बुएं हैरान हैं
हर फूल पे इल्जाम है आ जाइये
कैसी चुभन है ये दिले नासाज़ की
दिल टूटना तो आम है आ जाइये
उजड़ा हुआ है मुद्दतों से आशियाँ
सूनी तभी से बाम है आ जाइये
नासूर बन जो रूह पे आयद हुआ
उस ज़ख्म का पैगाम है आ जाइये
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
©बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 2, 2016 at 3:00pm — 14 Comments
2122 2122 2122 212
तुम पिया आये नहीं बरसात बैरन आ गई
दिन गुजारा बेबसी में रात बैरन आ गई
था हवाओं ने कहा मनमीत का सन्देश है
ले जुदाई बेशरम की बात बैरन आ गई
ढोल ताशे बज उठे हैं गूंजती शहनाइयाँ
हाय रे महबूब की बारात बैरन आ गई
मुट्ठियों में दिल समेटा होंठ भी भींचे खड़े
आँसुओं की आँख से सौगात बैरन आ गई
भाइचारा भूल जाओ अब मियाँ तकरीर में
धर्म मजहब आदमी की जात बैरन आ…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 13, 2016 at 8:00pm — 12 Comments
2122 2122 2122
बेदिली के अनवरत ये सिलसिले हैं
इसलिये तो ख्वाब सारे अनमने हैं
बाद मुद्दत के सफ़र आया वतन तो
थे बशर बिखरे हुये घर अधजले हैं
बादलों औ बारिशों ने साजिशें कीं
भूख की संभावनायें सामने हैं
अस्ल ए इंसानियत मजबूत रक्खो
हर कदम पे ज़िन्दगी में जलजले हैं
इस शहर में चीखने से कुछ न होगा
गूंगी जनता शाह भी बहरे हुये हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 27, 2016 at 12:30pm — 10 Comments
1222 1222 1222 1222
तड़फते हैं सभी मंज़र कहीं से तुम चले आओ
खमोशी रात की औ दूर तक तन्हाई का आलम
रुके से जल में है कंकर कहीं से तुम चले आओ
क्षितिज के पार से किरणें सुहानी मुस्कुराईं यूँ
चुभे ज्यूँ रूह में खंजर कहीं से तुम चले आओ
मिटाने से नहीं मिटता ये रिश्ता आसमानी है
रहेगा जन्म जन्मान्तर कहीं से तुम चले आओ
अज़ब सी बेबसी हर सूं सफ़र भी कातिलाना…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 6, 2016 at 10:00pm — 4 Comments
1222 1222 1222 1222
तुम्हारी जान ले लेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
चलो माना ये चुप रहने से हल होंगे कई मुददे
कि सारे राज खोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
जो रखते हैं लगा के होंठ पे ताले रिवाजों के
जुबां से उनके बोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
तमस की आँधियों ने बाग को बर्बाद कर डाला
नयन अपने भिंगोयेगी किसी भी रोज ये…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 26, 2016 at 10:00am — 9 Comments
2212 2212 2212 2212
भरने लगीं आँहें तड़फ के संगदिल तनहाइयाँ
ढलने चला सूरज अभी बढ़ने लगी परछाइयाँ
थीं कोशिशें की थाम लें उड़ता हुआ दामन तेरा
पर मुददतों से फासले पसरे हुये हैं दरमियाँ
ये कौन सा माहौल है ये वादियाँ हैं कौन सीं ?
हर ओर सन्नाटा ज़हन में चीखतीं खामोशियाँ
तुमभी परेशां हो बड़े दिल की खलाओं से अभी
छू कर तुझे आईं हवायें करती हैं…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 12, 2016 at 5:13pm — 4 Comments
इस्लाह के लिए विशेषकर काफ़िए को लेकर मन में शंकायें हैं
2122 2122 2122 212
है ग़मों की इन्तहां अब आजमा लें दर्द को
बात पहले प्यार से फिर भी नहीं जो मानता
गेंद की तरहा हवा में फिर उछालें दर्द को
गर ग़मों की चाहतें हैं ज़िन्दगी भर साथ की
हमसफ़र अपना बना उर में छुपा लें दर्द को
नफरतों के राज में क्या रीत…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 2, 2016 at 8:36pm — 12 Comments
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