सर्दी मैं गर्मी और
गरमी मैं शीतलता
का एहसास
प्यार के ताने बने से बुनी
ममतामयी माँ
के आँचल सी
खादी केवल नाम नही हैं
खादी केवल काम नहीं हैं
खादी परिचायक है
सवाव्लंबन का
स्वाभिमान का
देश के प्रति
आपके अभिमान का
रंग उमंग और
प्यार के धागे से बुनी
देश ही नहीं
विदेश मैं भी पाए विस्तार
खादी को बनाइये
अपना जूनून
खादी दे
तन मन को सुकून
Added by rajni chhabra on June 14, 2010 at 4:35pm —
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सदियों से भोजपुरिया माटी की एक अलग पहचान रही है। इस माटी ने केवल भोजपुरी समाज को ही नहीं अपितु माँ भारती को ऐसे-ऐसे लाल दिए जिन्होंने भारतीय समाज को हर एक क्षेत्र में एक नई दिशा एवं ऊँचाई दी एवं विश्व स्तर पर माँ भारती के परचम को लहराया। भोजपुरिया माटी की सोंधी सुगंध से सराबोर ये महापुरुष केवल भारत का ही नहीं अपितु विश्व का मार्गदर्शन किए और एक सभ्य एवं शांतिपूर्ण समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। यह वोही भोजपुरिया माटी है जिसको संत कबीर ने अपने विलक्षणपन से तो शांति, सादगी एवं राष्ट्र के…
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Added by Prabhakar Pandey on June 14, 2010 at 1:25pm —
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त्रिपदिक मुक्तिका (अनुगीत) :
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
संजीव 'सलिल'
*
*
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
कौन यहाँ अक्षर-अजर?
कौन कभी होता अमर?
कोई नहीं, तो क्यों समर?
किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.
तुझ पर किसका क्या असर?
तेरी किस पर क्यों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 14, 2010 at 9:10am —
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कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
*
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
Acharya Sanjiv Salil…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 13, 2010 at 9:00pm —
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सामयिक त्रिपदियाँ :
संजीव 'सलिल'
*
raining.gif
*
खोज कहाँ उनकी कमर,
कमरा ही आता नज़र,
लेकिन हैं वे बिफिकर..
*
विस्मय होता देखकर.
अमृत घट समझा जिसे
विषमय है वह सियासत..
*
दुर्घटना में कै मरे?
गैस रिसी भोपाल में-
बतलाते हैं कैमरे..
*
एंडरसन को छोड़कर
की गद्दारी देश से
नेताओं ने स्वार्थ वश..
*
भाग गया भोपाल से
दूर कैरवां जा छिपा
अर्जुन दोषी देश का..
*
ब्यूटी…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 13, 2010 at 9:11pm —
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(खुशवंत सिंह का लेख पढने के बाद कि सिक्खों ने पंजाब के समराला शहर में १९४७ में गिरी मस्जिद बनाई ...पर मेंडिया वालो ने इसे समाचार नहीं बनाया .)
कुत्ता ...
जब आदमी को काटे
तो समाचार नहीं बनता
पर ...आदमी
जब कुत्ता को काटे
तो समाचार बन जाता है ॥
जब ..किसी से प्यार से बोलो
तो समाचार नहीं बनता
पर जब बे -अदब से पेश आओ
तो समाचार बन जाता है ॥
शादी की बातें
समाचार नहीं बनती
पर तलाक की हवा भी
समाचार बन जाती है…
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Added by baban pandey on June 13, 2010 at 6:30am —
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समय को पकड़ना
मानों ......
हाथो की हथेलियों से
बने बर्तन में
पानी को ज़मा करना ॥
समय को पकड़ना
मानो ....
समुद्र के किनारे आयी
लहरों को रोकना ॥
समय को पकड़ना
मानो ......
मुट्टी में रेत को
बाँध कर रखना ॥
समय रुकता नहीं
किसी ने सच कहा है
समय पीछे से गंजा होता है ॥
समय के आगे बाल है
चाहो तो , आगे से पकड़ सकते हो ॥
------------बबन पाण्डेय
Added by baban pandey on June 13, 2010 at 6:37am —
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अब उनकी बेरुखी का न शिकवा करेंगे हम
लेकिन यह सच है उनको ही चाहा करेंगे हम ।
जायेंगे वो हमारी गली से गु़ज़र के जब
बेबस निगाह से उन्हें देखा करेंगे हम ।
तन्हाईयों में याद जब उनकी सताएगी
दिल और जिगर को थाम के तदपा करेंगे हम
करते नही कबूल मेरी बंदगी तो क्या
बस उनके नक्शे पा पे ही सजदा करेंगे हम ।
"अलीम" अगर वो यारे हसीं मेहरबान हो
जीने की थोडी और तम्मान्ना करेंगे हम ।
Added by aleem azmi on June 12, 2010 at 9:49pm —
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सुन्दरकांड
जामवंत के बचन सुहाए ! सुनि हनुमंत हर्दय अति भाए !!
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई ! सहि दुख कंद मूल फल खाई !!
जब लगि आवों सीतहि देखी ! होइहि काजू मोहि हरष बिसेषी !!
यह कहि नाइ सबन्हि कहूँ माथा ! चलेउ हरषि हिएँ धरि रघुनाथा !!
सिंधु तीर एक भूधर सुन्दर ! कौतुक कूदी चढ़ेउ ता ऊपर !!
बार बार रघुबीर संभारी ! तरकेउ पवनतनय बल भारी !!
जेहि गिरि चरन देई हनुमंता ! चलेउ सो गा पाताल तुरंता !!
जिमि अमोध रघुपति कर बाना ! एही भांति चलेउ हनुमाना !!
जलनिधि…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 12, 2010 at 7:14pm —
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चाय पिला पिला कर ,
लोगो की सेवा वो करता रहा,
महज़ चार चाय की कीमत पर ,
मालिक उसको छलता रहा,
भूखी अंतड़िया ,
क्या जाने चाय की तलब ,
दो रोटियां, चोखे संग,
पाने को पेट जलता रहा ,
बैठे चायखाने मे
खादी पहने
कुछ उच्च शिक्षित लोगों के मध्य
"बाल मजदूरी…
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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 12, 2010 at 3:00pm —
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(प्रस्तुत कविता हिंदी के विद्वान कवि प० राम दरश मिश्र द्वारा सम्पादित पत्रिका ' नवान्न ' के द्वितीय अंक में प्रकाशित है, मेरी इस कविता को उन्होनें गंभीर कविता का रूप दिया था )
न तो ---
मेरे पास
तुम्हारे पास
उसके पास
एक बोरसी है
न उपले है
न मिटटी का तेल
और न दियासलाई
ताकि आग लगाकर हुक्का भर सकें ॥
और न कोई हुक्का भरने की कोशिश में है ।
सब इंतज़ार में है
कोई आएगा ?
और हुक्का भर कर देगा ।
आज !
हर कोई
पीना… Continue
Added by baban pandey on June 12, 2010 at 5:53am —
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डॉक्टर के पास पहुचे प्यारे प्यारे पिचकू पाड़े ,
बोले डाक्टर साहब क्या काम है पिचकू भाई ,
संग में जो आये बोले, परेशान हैं पिचकू पाड़े ,
बावन जोड़ा पूड़ी रात में ये खाये थे ,
संग में दही तीन किलो उड़ाये थे ,
घर का खाना ये कभी न खाते हैं ,
एक दिन खाकर तीन दिन तक पचाते हैं
सुबह से परेशान हैं, होती हैं खूब दौड़ाई ,
रुक जाये भागम-भाग,जल्दी दे दो कुछ दवाई ,
डाक्टर बोला थोड़ा कम तो खाओ यार ,
उम्र बढ़ी हैं कुछ तो अपना रखो ख्याल ,
डॉक्टर को भी बडे प्यार…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 11, 2010 at 8:00pm —
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दफ्तर जाते हुए सेक्टर ६२ नॉएडा से रिक्शा लिया, बैठते ही किसी को सिगरेट फूंकते देखकर धूम्रपान की तलब हुयी तो मैंने भी फौरन सिगरेट सुलगानी शुरू कर दी ! लेकिन हवा तो जैसे मेरे पीछे ही पडी हुयी थी .. एक ..दो ...तीन .. चार, मगर यह क्या ? माचिस की तीलियाँ तो बुझती ही जा रही थीं और मेरी सिगरेट सुलग नहीं पा रही थी ! तब एकदम ख्याल आ गया उस पुरानी माचिस का जो बचपन में घरो में आम हुआ करती थी ! पतली प्लाईवुड कवर वाली और नीले कागज़ वाली .. शायद एक्का माचिस थी ! क्या माचिस हुआ करता थी - एकदम मोटी सी लकड़ी,…
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Added by Anand Vats on June 11, 2010 at 6:00pm —
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राजा और दरबार की, परलोक की-संसार की.
गाथा है भगवान् और इंसान के व्यवहार की.
शाप की-अभिशाप की, अनुराग की-वैराग की.
घात की-आघात की, कहीं छल- कपट-प्रतिघात की.
मिलन की-वियोग की, दुर्योग की- संयोग की.
नीति की-कुनीति की, कहीं रीति की- राजनीति की.
बात ये आचार की, विचार की- संस्कार की.
गाथा है भगवान् और इंसान के व्यवहार की.
ज़िन्दगी की- काल की, कहीं भूत की- बेताल की.
शास्त्र की- शास्त्रार्थ की, कहीं जादुई ब्रम्हास्त्र की.
नाथ की- अनाथ की, कहीं बात की-…
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Added by satish mapatpuri on June 11, 2010 at 12:30pm —
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स्वांग धरे तरै तरै
कुरता और टोपी धरे
देखो कैसे कैसे आए
संसद भवन में
बातें करे बड़ी बड़ी
जनता की है किसे पड़ी
वही तो नेता कहाए
संसद भवन में
राज राज करे बस
नीति सारी भूल जाएँ
हैं सारे छंटे-छंटाये
संसद भवन में
भूख से हैं मरते जहाँ
हजारों औ लाखों लोग
ये बिना डकारे खाएं
संसद भवन में
इसे खरीद, उसे बेच, इसे जोड़, उसे तोड़
जैसे तैसे करके, लेते ये आकार हैं
ऐसे में भलाई की सुधि कब कौन…
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Added by दुष्यंत सेवक on June 11, 2010 at 11:41am —
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(मित्रो , मैं लगातार मानव -मूल्यों में हो हरास के ऊपर लिखते जा रहा हू , प्रेम सम्बन्धी कविताये बनाना मेरे लिए कठिन कार्य है ...प्रस्तुत है एक और कविता ...आशा है आपका समर्थन मिलता रहेगा ॥)
चीर चुराना (चीर -हरण ) तो
हम महाभारत काल से जानते है ॥
बिजली की चोरी
मेरा शगल है ॥
इन्कम -टैक्स की चोरी
आम बात है ॥
बनिए द्वारा तौल की चोरी में
हर्ज़ क्या है ॥
परीछा में चोरी
लड़के -लडकियों का हक है ॥
रचनाये…
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Added by baban pandey on June 11, 2010 at 8:24am —
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जिन आँखों में देखा था
प्यार का सागर
उसी में तलाक का तूफान देख
हैरान है आँखे ॥
जिन आँखों में देखा था
विस्वास का दरिया
उसी में बेरुखी देख
परेशान है आँखे ॥
जिन आँखों ने देखी थी
सच की किताब
उसी में झूठ का पुलिंदा देख
बेजुवान है आँखे ॥
घर लौट आओ , मेरे दोस्त
जंगलो में अब बहुत हो चूका
माँ का बेटे के वियोग में
लहू -लुहान है आँखे ॥
जिन आँखों ने देखे थे
घूँघट में चेहरा
नंगे हुस्न की तारीफ़…
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Added by baban pandey on June 11, 2010 at 5:45am —
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भीग जाती थी तेरी आँखें, मुझे याद करके ,
तब क्यों न देखा !तुमने मुझे जी भर के ॥
जब सामने थी तो न ,टिक सकी ये मुझ पर ,
अब क्यूँ करती हैं शिकवा, ये रह -रह करके ॥
इनकी उल्फत का न कोई ,सानी है इस जहाँ में ,
बसाये रखती हैं ये यादें ,अपने में मर करके ॥
कौन समझे इन आँखों की, दीवानगी को ''कमलेश ''
भीगने की अदा अता की, खुदा ने इनको जी भर के ॥
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on June 10, 2010 at 9:39pm —
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अपने लहू के इक -इक कतरे का हिसाब चाहिए !
फंदे पर लटकते 'अफज़ल'और'कसाब'चाहिए!
जिनका बहा है खून जरा ,उनके दिल से पूछिए ,
जो देखा था आँखों ने वो , सुंदर सा ख्वाब चाहिए !
कितनी गैरत बाकि है इस देश में ,गैरों के लिये ,
क्यों ? ये मेहमान नवाजी इनकी .जवाब चाहिए !
जिंदगियोंमें जो अँधेरा किया, इन जालिमों ने ,
इनमे रोशनी भरने को, हजारों महताब चाहिए !
इनकी जड़ों को काट दो ,जहाँ से ये निकलती है ,
उन शहीदों की आत्माओं को, भी इंसाफ चाहिए…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on June 10, 2010 at 9:02pm —
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मैं इंसान हू ,
इंसानियत भूल गया ,
मानवता से कुछ लेना देना नहीं .
वो हमसे कोशो दूर गया ,
आपकी नजर में ,
मानवता के लिए जो हम लड़ते हैं ,
हम अपने फायदा के काम करते हैं ,
जगह जगह पोस्टर लगवाता हू ,
काम से ज्यादा अपना नाम चमकाता हू ,
मैं खुद को इतना बुलंद करना चाहता हू ,
की सामने वाला भींगी बिल्ली लगे ,
मैं इंसान हू ,
इंसानियत भूल गया ,
कोई सड़क पर मर रहा हैं .
पानी के लिए तरस रहा है,
मैं मानवता का पक्षधर हू ,
सरकार ने लाल…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 10, 2010 at 1:00pm —
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