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मिथिलेश वामनकर's Blog (125)

ठंडी थाली (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

पति-पत्नी डाइनिंग टेबल पर लंच के लिए बैठे ही थे कि डोरबेल बजी 

पति ने दरवाज़ा खोला तो सामने ड्राइवर बल्लू था उसने गाड़ी की साफ़-सफाई के लिए चाबी मांगी तो उसे देखकर पति भुनभुनाये :

“आ गए लौट के गाँव से ... जाते समय पेमेंट मांगकर कह गए थे कि साहब, गाँव में बीबी बच्चों का इन्तजाम करके, दो दिन में लौट आऊंगा और दस दिन लगा दिए…”

 

क्रोधित मालिक के आगे निष्काम और निर्विकार भाव से, स्तब्ध खड़ा ड्रायवर, बस सुनता रहा-

 

“अब फिर बहाने…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2015 at 2:54am — 40 Comments

ग़ज़ल --- ज़रा सा बाज़ आ जाओ

1222 / 1222 / 1222 / 1222

-

ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ 

कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ

 

 

चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है 

बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ





किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए

खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ





भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है

बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ





हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2015 at 11:51pm — 61 Comments

ग़ज़ल - जमीं को कभी ये इज़ाज़त नहीं है

122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 (16-रुक्नी)

---------------------------------------------------------------------------

गुजारिश नहीं है, नवाजिश नहीं है, इज़ाज़त नहीं है, नसीहत नहीं है

ज़माना हुआ है बड़ा बेमुरव्वत,  किसी को किसी की जरूरत नहीं है

 

किनारे दिखाई नहीं दे रहें है, चलो किश्तियों के जनाज़े उठा लें,

यहाँ आप से है समंदर परेशाँ, यहाँ उस तरह की निजामत नहीं है

 

जमीं आसमां…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 31, 2014 at 12:41am — 31 Comments

सूर्यास्त - लघुकथा (मिथिलेश वामनकर)

बॉस के कमरे की अधखुली खिड़की। उसने डूबते सूरज को देखते हुए कहा- “आप मेरे प्रमोशन की बात को हमेशा टाल जाते है.... मेरे हसबेंड के लिए आहूजा ग्रुप में सिफारिश भी नहीं की अब तक... .. उन्होंने तीन महीनों से बातचीत बन्द कर रखी है। हमेशा नाराज रहते है, रोज ड्राइंग रूम में सोते है। पता है, मैं कितनी परेशान हूँ... इस बार पीरियड भी नहीं आया है।”



कहते-कहते वो अचानक मौन हो गई। कमरे में चीखता हुआ सन्नाटा पसर गया था।

क्षितिज पार सूरज तो कब का डूब चुका…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 30, 2014 at 12:45am — 22 Comments

आओं ना यार चले .... (मिथिलेश वामनकर)

जीवन लड़कैया से, सपनो की नैया से

तारों के पार चलें, आओं ना यार चले

 

उतनी ही प्यास रहे, जितना विश्वास रहे

मन की तरंगों से पुलकित उमंगों से 

आशा के विन्दु से जीवन विस्तार चले........

 

क्या था जो पाया था, क्या था जो खोया था

था कुछ समेटा जो सारा ही जाया तो   

खुशियों की टहनी को थोड़ा सा झार चले.......

 

डोली पे फूल झरे, दो दो कहार चले

सुन्दर सी सेज सजी, तपने को देख रही

मन की अगनिया को थोड़ा सा बार चले…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 10:30am — 19 Comments

गैर की ग़ज़ल थी तू... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

वक़्त के थपेड़ो में.... खर्च आशिकी अपनी

आज फिर मुहब्बत ने हार मान ली अपनी

 

लफ्ज़ भी किसी के थे, दर्द भी किसी का था

गैर की ग़ज़ल थी तू... सिर्फ सोच थी अपनी

 

भूख की गुजारिश में रात भर बिता कर के

बेच दी चराग़ों ने........ आज रौशनी अपनी

 

आजकल कहीं अपना जिक्र भी नहीं मिलता

वक़्त था कभी अपना, बात थी कभी अपनी

 

आशना तसव्वुर में........ कुर्बते मयस्सर है

फिर किसी परीवश से जान जा लगी अपनी

 

आसमान की…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 12:52am — 16 Comments

कैनवस जिंदगी का \ नज्म (मिथिलेश वामनकर)

आरम्भ

 

मिल गए शख्स दो,पास आने लगे

कैनवस ज़िन्दगी का सजाने लगे

रोज फिर वो मुलाकात करने लगे

हर मुलाकात का रंग भरने लगे

 

मध्यांतर



कैनवस रोज़ रंगो से भरने लगा

वो ख़ुशी से ग़मों से संवरने लगा

देखते देखते दिन गुजरने लगे

ज़िन्दगी के सभी रंग भरने लगे

 

अंत



हर मुलाकात के रंग घुल मिल गए

और मिलके सभी रंग क्या कर गए

ये करामात या कसमकस देखिये

आज काला हुआ कैनवस…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2014 at 2:38am — 8 Comments

खुदा बोलता है : ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

122-122

------------

जहां में लगा है

खुदी से जुदा है

 

हुआ मैं पशेमाँ

गज़ब देखता है

 

कभी रूह झांको

खुदा बोलता है

 

सजन शे’र जैसा

लबों पे सजा है

 

सजा ज़िन्दगी की

अजब फैसला है

 

 

हंसी जब्त कर लो

हंसी में सदा है

 

बड़ी दास्तां है

मगर ये ज़दा है

सफ़र है गली में 

मकां में अमा है 

 

ग़मों का य’ दरिया

कहे कब…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2014 at 8:00pm — 24 Comments

किसी खामोश बैठी शायरी से : ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

1222-1222-122

------------------------------------

अदावत क्या करे कोई किसी से

परेशां हर कोई जब ज़िन्दगी से



अकीदत आपकी सूरज से लेकिन

हमारी   बेरुखी  है  रौशनी  से



पसीना लफ्ज़ बनकर बह रहा है

किसी  खामोश  बैठी शायरी से



अता जिसको कभी शोहरत नहीं है

कहाँ  मिलते  है ऐसे  आदमी से



सदा सूरज के आगे क्यों सिमटती

किसी  ने  प्रश्न  पूछा चांदनी से



हुकूमत जुल्म किस पर कर रही है

सभी  खामोश  अपनी  बेबसी  से…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2014 at 1:00am — 36 Comments

कोई कारवां भी दिखा नही / ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

11212 x 4  ( बह्र-ए-क़ामिल में पहला प्रयास) 

--------------------------------------------------------

न वो रात है, न वो बात है, कहीं ज़िन्दगी की सदा नहीं   

न उसे पता, न मुझे पता, ये सिफत किसी को अता नहीं

 

वो खुशी कभी तो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही कहाँ

कोई दश्त जिसमे नदी न हो, हूँ शज़र कभी जो फला…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 1:30am — 48 Comments

कुछ नक्शा बदला है \ माहिया, क़िस्त-तीन (मिथिलेश वामनकर)

मेरा मन दरपन है।

देखी छब तेरी,

आँखों में सावन है।

 

वो पागल लडकी है।

ऐसी बिछडन में.

वो कितना हँसती है।

 

क्यूँ उलटा चलते हो।

वक़्त सरीखे तुम,

हाथों से फिसलते हो।

 

जब शाम पिघलती है।

ऐसे आलम में,

क्यूं रात मचलती है।

 

सूरज को मत देखों ।

उसका क्या होगा,

चाहे पत्थर फेंकों ।

 

सूरज ने पाला है।

हँसता रातों में,

ये चाँद निराला…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 9:03am — 25 Comments

सूरजमुखी के पास जा / ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

   2212   -    2212

हो  वार  अब  के  दूसरा

बेजार दिल दामन बचा

मेरे  मुकाबिल  तू  खड़ा

कितना मगर तू लापता …

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 2:00am — 21 Comments

समंदर पार वालों ने हमारा फन नहीं देखा - ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

1222-1222-1222-1222

----------------------------------------------

समंदर  पार  वालों  ने   हमारा  फ़न  नहीं  देखा

जवाँ अहले वतन ने आज तक बचपन नहीं देखा

 

जुरूरी  था, वही  देखा, ज़माने  की  ज़ुबानों  में

कि मीठी  बात देखी है  कसैलापन  नहीं  देखा

   

तबस्सुम देख के  मेरी, तसल्ली  हो गई उनको

हमारी आँख  में  सोया  हुआ सावन नहीं  देखा

  

निजामत का भला अपना वतन कैसा…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 20, 2014 at 4:56am — 28 Comments

सूर्य तो बस सुधा कूप है/ नवगीत (मिथिलेश वामनकर)

प्रेम की गुनगुनी धूप है

सूर्य तो बस सुधा कूप है

 

हंस रहा रश्मियाँ भेजकर

तीर्थ के दीप सा बल रहा

कष्ट में पुष्प सा खिल गया

अनगिनत विश्व का छंद है

कांति का शांति का रूप है

सूर्य तो बस सुधा कूप है

 

ब्रह्म के कण विचरते हुए

बल तेरा मिल गया हर दिशा

शून्य में रूप तू इष्ट का

अस्त पर व्यस्त तू फिर कहीं

कर्म का धर्म का यूप है

सूर्य तो बस सुधा कूप है

 

सृष्टि के पुत्र का…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 19, 2014 at 3:50am — 20 Comments

मेंह्दी वाले हाथ (मिथिलेश वामनकर)

पूरब  से जैसे  चले, शीतल  मंद  बयार ।

मैं रोया तुम रो पड़ी, समझो जीवन पार ।१।

 

जीवनसाथी तू सखी, इक मंदिर का छंद ।

तेरे सहचर  में  मिला, पूजा  का आनंद ।२।

 

तेरी  फूलों-सी हंसी, कलियों सी मुस्कान ।

जीवन को जैसे मिला, खुशियों का सामान।३।

 

ईश्वर  ने कैसा रचा, तेरा  मेरा साथ ।

मेरी ताकत बन गए, मेंह्दी वाले हाथ ।४।

 

रिश्ता अपना खूब है, तू शाखा मैं पात ।

बिन बोले क्या खूब तू, समझे मेरी…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2014 at 10:30pm — 17 Comments

ग़ज़लों का बिस्तर है (माहिया- क़िस्त दो)

22-22-22 / 22-22-2 / 22-22-22

-

ये नींद उड़ाते है,

ख़्वाब हसीं लेकिन,  

रातों को रुलाते है

 

नाचों फिर रो लेना,

कुछ शब बाकी है,

तारों फिर सो लेना

 

सरहद पे दुश्मन है,

सरहद आँखों में,

आँखों में सावन है

 

दो नैन हुए गीले,

बाप बिदाई दे,

लो हाथ हुए पीले

 

गंगा में नहा लेना,

माटी फूल बने,

गंगा…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 13, 2014 at 8:00pm — 6 Comments

दीप के हौसले याद आने लगे (बह्र-ए-मुत्दारिक -16 रुक्ऩी )

212  /  212 /  212 /  212  /  212 /  212 /  212 / 212

-

चाँद से रूठ के जब गई चाँदनी, कुर्बतो-फासले याद आने लगे 

जब हवा में नमी आज छाने लगी, दो नयन बावले याद आने लगे

 

वो अमरबेल तो पेड़ को खा रही, शाख के फूल से शबनमी…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 13, 2014 at 12:30am — 19 Comments

मुझे तो जीतना ही था (नज़्म, बह्र-ए-हजज़)

1 2 2 2

 

हुआ पैदा कि धोके से, किसी का पाप मैं बन के

मुझे फेंका गया गन्दी कटीली झाड़ियों में फिर

कि चुभती झाड़ियाँ फिर फिर, कि होता दर्द भी फिर फिर

यहाँ काटे कभी कीड़े, वहां फिर चीटियाँ काटे

 

पड़ा देखा, उठा लाई, मुझे इक चर्च की दीदी.

 

हटा के चीटियाँ कीड़े, धुलाए घाव भी मेरे

बदन छालों भरा मेरा, परेशां मैं अज़ीयत से

खुदा से मांगता हूँ मौत अपनी सिर्फ जल्दी से

 

बड़ी नादान दीदी वो, लगाती जा रही मरहम

दुआ…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 10, 2014 at 1:30am — 15 Comments

माहिया- क़िस्त एक

22-22-22 / 22-22-2 / 22-22-22

 

मस्जिद न शिवाला है,

दिल में रहता तू,

तेरा घर भी निराला है.

 

तू मन का दरपन है

बस एक उजाले से,

सूरज भी रौशन है.

 

देखों मन का आँगन,

बादल आँखों में,

फिर खूब झरा सावन.

 

लो छूटा अपना घर,

एक मुसाफिर हूँ,

लम्बा है आज सफ़र.

 

सूरज जब ढल जाए,

मन अँधियारा हो,

तब दीपक जल जाए.

 

परबत पर बादल है,

दरिया बहता…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 1:00am — 16 Comments

वह आज ही बेवा हुई ! (नज़्म, बह्र-ए-रजज़)

[ 2 2 1 2 ]

 

वो आज ही बेवा हुई !

 

बुझ-सी गई जब रौशनी, जमने लगी जब तीरगी,

बदली यहाँ फिर ज़िन्दगी, वह आज ही बेवा हुई !

क्यूं तीन बच्चे छोड़कर, मुंह इस जहां से मोड़कर,

वो हो गया ज़न्नतनशीं, वो आज ही बेवा हुई !

 

है लाश नुक्कड़ पे पड़ी, मजमा लगा चारो तरफ,

उस पर सभी नज़रें गड़ी, वह आज ही बेवा हुई !

वो रो रही फिर रो रही, बस लाश को वो ताकती,

उसने कहा कुछ भी नहीं, वो आज ही बेवा हुई !

 

फिर यकबयक वो चुप हुई,…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 5, 2014 at 2:30am — 19 Comments

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