बह्र : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
मेरे संगदिल में रहा चाहती है
वो पगली बुतों में ख़ुदा चाहती है
सदा सच कहूँ वायदा चाहती है
वो शौहर नहीं आइना चाहती है
उतारू है करने पे सारी ख़ताएँ
नज़र उम्र भर की सजा चाहती है
बुझाने क्यूँ लगती है लौ कौन जाने
चरागों को जब जब हवा चाहती है
न दो दिल के बदले में दिल, बुद्धि कहती
मुई इश्क में भी नफ़ा चाहती है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 25, 2013 at 1:50pm — 25 Comments
चिड़िया के दो बच्चों को
पंजों में दबाकर उड़ गया है एक बाज
उबलने लगी हैं सड़कें
वातानुकूलित बहुमंजिली इमारतें सो रही हैं
छोटी छोटी अधबनी इमारतें
गरीबी रेखा को मिटाने का स्वप्न देख रही हैं
पच्चीस मंजिल की एक अधबनी इमारत हँस रही है
कीचड़ भरी सड़क पर
कभी साइकिल हाथी को ओवरटेक करती है
कभी हाथी साइकिल को
साइकिल के टायर पर खून का निशान है
जनता और प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं हैं
कि…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2013 at 7:43pm — 25 Comments
बह्र : मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन
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सच वो थोड़ा सा कहता है
बाकी सब अच्छा कहता है
दंगे ऐसे करवाता वो
काशी को मक्का कहता है
दौरे में जलते घर देखे
दफ़्तर में हुक्का कहता है
कर्मों को माया कहता वो
विधियों को पूजा कहता है
जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है
खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है
चलता है जो खुद सर के बल
वो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 2, 2013 at 3:23pm — 18 Comments
जुड़ो जमीं से कहते थे जो, वो खुद नभ के दास हो गये
आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये
सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये
तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 30, 2013 at 8:39pm — 24 Comments
बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
दिल हो गया है जब से टूटा हुआ खिलौना
दुनिया लगे है तब से टूटा हुआ खिलौना
खेले न कोई इससे, फेंके न कोई इसको
यूँ ही पड़ा है कब से टूटा हुआ खिलौना
बेटा बड़ा हुआ तो यूँ चूमता हूँ उसको
अक्सर लगाऊँ लब से टूटा हुआ खिलौना
बच्चा गरीब का है रक्खेगा ये सँजोकर
देना जरा अदब से टूटा हुआ खिलौना
‘सज्जन’ कहे यकीनन होंगे अनाथ बच्चे
जो माँगते हैं रब से टूटा हुआ…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 18, 2013 at 10:30pm — 27 Comments
बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२
सत्ता की गर हो चाह तो दंगा कराइये
बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये
करवा के कत्ल-ए-आम बुझा कर लहू से प्यास
रहना हो बेगुनाह तो दंगा कराइये
कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में
पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइये
चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइये
प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें
रधिया करे निकाह तो दंगा…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:57pm — 33 Comments
बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२
मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ
मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी
तीखी ढलान पे न फिसलती हैं चींटियाँ
रक्खी खुले में यदि कहीं थोड़ी मिठास हो
तब तो न उस मकान से टलती हैं चींटियाँ
पुरखों से जायदाद में कुछ भी नहीं मिला
अपने ही हाथ पाँव से पलती हैं चींटियाँ
शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर मेरे बदन पे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 10, 2013 at 8:47pm — 29 Comments
जब हमने नहीं खोजा था सोना
तब कहीं नहीं था कोई अमीर या गरीब
सोने की खोज के साथ ही पैदा हुये गरीब
जब हमने नहीं किया था ईश्वर का आविष्कार
तब कहीं नहीं था कोई स्वर्ग या नर्क
ईश्वर की खोज के साथ ही पैदा हुआ नर्क
गरीबों में पैदा हुआ नर्क का डर और स्वर्ग का स्वप्न
जब हमने नहीं किया था धर्म का आविष्कार
तब कहीं नहीं था कोई पापी या पूण्यात्मा
धर्म की खोज के साथ ही पैदा हुये पापी
गरीबों…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 7:30pm — 8 Comments
बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं
सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं
कौम उनकी ही जहाँ में है सभी से बेहतर
जिन्हें होता है गुमाँ आग लगा देते हैं
एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में
हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं
नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला
खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं
हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी
तैरते हैं तो वहाँ आग…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 1, 2013 at 10:16pm — 12 Comments
बह्र : मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन फा
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छोटे छोटे घर जब हमसे लेता है बाजार
बनता बड़े मकानों का विक्रेता है बाजार
इसका रोना इसका गाना सब कुछ नकली है
ध्यान रहे सबसे अच्छा अभिनेता है बाजार
मुर्गी को देता कुछ दाने जिनके बदले में
सारे के सारे अंडे ले लेता है बाजार
कैसे भी हो इसको सिर्फ़ लाभ से मतलब है
जिसको चुनते पूँजीपति वो नेता है बाजार
खून पसीने से अर्जित पैसो के…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 30, 2013 at 7:09pm — 15 Comments
बह्र : मफऊलु फायलातु मफाईलु फायलुन (221 2121 1221 212)
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चंदा स्वयं हो चोर तो जूता निकालिये
सूरज करे न भोर तो जूता निकालिये
वेतन है ठीक साब का भत्ते भी ठीक हैं
फिर भी हों घूसखोर तो जूता निकालिये
देने में ढील कोई बुराई नहीं मगर
कर काटती हो डोर तो जूता निकालिये
जिनको चुना है आपने करने के लिए काम
करते हों सिर्फ़ शोर तो जूता निकालिये
हड़ताल, शांतिपूर्ण प्रदर्शन, जूलूस तक
कोई…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 22, 2013 at 9:54pm — 29 Comments
बह्र : मुफाईलुन मुफाईलुन फऊलुन
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न ऐसे देख बेचारा नहीं हूँ
थका तो हूँ मगर हारा नहीं हूँ
है मुझमें रौशनी, गर्मी नहीं पर
मैं इक जुगनू हूँ अंगारा नहीं हूँ
यकीनन संगदिल भी काट दूँगा
तो क्या जो बूँद हूँ धारा नहीं हूँ
सभी को साथ लेकर क्यूँ मिटूँगा?
मैं शबनम हूँ कोई तारा नहीं हूँ
हवा भरना तुम्हारा बेअसर है
मैं इक रोटी हूँ गुब्बारा नहीं हूँ
मेरी हर बात…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 17, 2013 at 10:08pm — 35 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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न गाँधी से न मोदी से न खाकी से न खादी से
वतन की भूख मिटती है तो होरी की किसानी से
ये फल दागी हैं मैं बोला तो फलवाले का उत्तर था
मियाँ इस देश में सरकार तक चलती है दागी से
ख़ुदा के नाम पर जो जान देगा स्वर्ग जायेगा
ये सुनकर मार दो जल्दी कहा सबने शिकारी से
ये रेखा है गरीबी की जहाजों से नहीं दिखती
जमीं पर देख लोगे पूछकर अंधे भिखारी से
चुने जिसको, सहे उसके…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 13, 2013 at 11:00pm — 40 Comments
बादल
बादल अंधे और बहरे होते हैं
बादल नहीं देख पाते रेगिस्तान का तड़पना
बादलों को नहीं सुनाई पड़ती बाढ़ में बहते इंसानों की चीख
बादल नहीं बोल पाते सांत्वना के दो शब्द
बादल सिर्फ़ गरजना जानते हैं
और ये बरसते तभी हैं जब मजबूर हो जाते हैं
सागर
गागर, घड़ा, ताल, झील
नहर, नदी, दरिया
यहाँ तक कि नाले भी
लुटाने लगते हैं पानी जब वो भर जाते हैं
पर समुद्र भरने के बाद भी चुपचाप पीता…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 27, 2013 at 10:00pm — 5 Comments
द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित थे। कुत्ते को बिना कोई नुकसान पहुँचाये उसका मुँह सात बाणों से भरकर बंद कर दिया था एकलव्य ने। ये विद्या तो द्रोणाचार्य ने कभी किसी को नहीं सिखाई। एकलव्य ने उनकी मूर्ति को गुरु बनाकर स्वाध्याय से ही धनुर्विद्या के वो रहस्य भी जान लिये थे जिनको द्रोणाचार्य अपने शिष्यों से छुपाकर रखते थे।
द्रोणाचार्य को रात भर नींद नहीं आई। उन्हें यही डर सताता रहा कि एकलव्य ने अगर स्वाध्याय से सीखी गई धनुर्विद्या का ज्ञान दूसरों को भी देना शुरू कर दिया तो द्रोणाचार्य के…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 19, 2013 at 9:00pm — 12 Comments
साँसें जब करने लगीं, साँसों से संवाद
जुबाँ समझ पाई तभी, गर्म हवा का स्वाद
हँसी तुम्हारी, क्रीम सी, मलता हूँ दिन रात
अब क्या कर लेंगे भला, धूप, ठंढ, बरसात
आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ
पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ
सिहरें, तपें, पसीजकर, मिल जाएँ जब गात
त्वचा त्वचा से तब कहे, अपने दिल की बात
छिटकी गोरे गाल से, जब गर्मी की धूप
सारा अम्बर जल उठा, सूरज ढूँढे कूप
प्रिंटर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2013 at 2:34pm — 26 Comments
बहर : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारखानों पर
ये फन वरना मिलेगा जल्द रद्दी की दुकानों पर
कलन कहता रहा संभावना सब पर बराबर है
हमेशा बिजलियाँ गिरती रहीं कच्चे मकानों पर
लड़ाकू जेट उड़ाये खूब हमने रातदिन लेकिन
कभी पहरा लगा पाये न गिद्धों की उड़ानों पर
सभी का हक है जंगल पे कहा खरगोश ने जबसे
तभी से शेर, चीते, लोमड़ी बैठे मचानों पर
कहा सबने बनेगा एक दिन…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 12, 2013 at 11:46pm — 21 Comments
बहर : १२१२२ १२१२२ १२१२२ १२१२२
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नहीं मिला जो जहाँ में जिसको वही उसे खींचता रहा है
ख़ुदा को मस्जिद में पा गया जो वो दौड़ मयखाने जा रहा है
वो जिसने माँगी थी सीट मुझसे ये कहके ईश्वर भला करेगा
जरा सा आराम पा गया तो मुझी को अब वो भगा रहा है
दवा से जो ठीक हो रहा था उसे पिलाया पवित्र पानी
जो दिन में अच्छा भला था कल तक वो रात भर चीखता रहा है
ख़ुदा का घर सब जिसे समझते वहीं हजारों हुये लापता
बने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 8, 2013 at 10:07pm — 3 Comments
बहर : २१२ २१२
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जो सरल हो गये
वो सफल हो गये
जिंदगी द्यूत थी
हम रमल हो गये
टालते टालते
वो अटल हो गये
देख कमजोर को
सब सबल हो गये
भैंस गुस्से में थी
हम अकल हो गये
जो गिरे कीच में
वो कमल हो गये
अपने दिल से हमीं
बेदखल हो गये
देखकर आइना
वो बगल हो गये
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(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 4, 2013 at 9:48pm — 26 Comments
दूर देश में एक बड़ा ही खुशहाल गाँव था। वहाँ के जमींदार साहब बड़े अच्छे आदमी थे। उनकी हवेली में पूजा पाठ, भजन कीर्तन हमेशा चलता रहता था। गाँव वाले मानते थे कि इस पूजा पाठ के प्रभाव से ही देवताओं की कृपादृष्टि उनपर हमेशा बनी रहती है। गाँव के बड़े बुजुर्ग तो ये भी कहते थे कि जमींदार साहब के पूजापाठ की वजह से ही गाँव पर भी देवताओं की कृपा हमेशा बनी रहती है। इसीलिए पिछले पचास वर्षों से इस गाँव में अकाल नहीं पड़ा।
पर भविष्य किसने देखा था। कुछ वर्षों बाद वहाँ भीषण अकाल पड़ा। गाँव वाले…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 1, 2013 at 11:30pm — 11 Comments
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