
पत्थर
वह रोज उसे ठोकर मारता |
आते जाते |
मगर वह टस से मस नहीं हुआ |
एक दिन जोर की ठोकर मारते ही उसके पांव लहू लुहान हो गए |
अब वह उस पत्थर की पूजा करता है |
हाँथ जोड़कर उसी तरह रोज आते जाते |
पानी
बाप ने कहा "बेटा पानी अब सर से ऊपर हो रहा है "
"आप वसीयत कर दे "
"तुम्हारी बहन को भी तो हिस्सा देना होगा "
"शादी में जितना दिया था उसका हिसाब…
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Added by Abhinav Arun on December 4, 2010 at 4:55pm —
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लोकतंत्र में वोट की ताकत महत्वपूर्ण मानी जाती है और जब इस ताकत का सही दिशा में इस्तेमाल होता है तो इससे एक ऐसा जनमत तैयार होता है, जिससे नए राजनीतिक हालात अक्सर देखने को मिलते हैं। हाल ही में बिहार के 15 वीं विधानसभा के चुनाव में जो नतीजे आए हैं, वह कुछ ऐसा ही कहते हैं। देश में सबसे पिछड़े माने जाने वाले राज्य बिहार में तरक्की का मुद्दा पूरी तरह हावी रहा और प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का जादू ऐसा चला, जिसके आगे राजनीतिक गलियारे के बड़े से बड़े धुरंधर टिक नहीं सके और वे चारों खाने मात खा गए।…
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Added by rajkumar sahu on December 4, 2010 at 4:21pm —
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कविता :- अखिल विश्व और हम
ठूंठ वृक्ष
सूखे सब पत्ते
कोटर भी पक्षी विहीन
हम कितने एकल |
छोड़ गए सब साथ
हाथ और राह भी छूटी
मील के पत्थर भी उदास
और बेकल बेकल |
संधि काल या महाकाल
क्यों स्याह घनेरा
तुम नित प्यासे
आस भरे आते जाते पल |
दूब पांव की
कोमलता की याद दिलाती
पीछे छूटे गांव छांव सब झुरमुट वाले
हम फिर चलते जैसे चलते आज और कल…
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Added by Abhinav Arun on December 4, 2010 at 4:05pm —
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रिश्ता-ए-गम

ग़म तो ग़म हैं ग़म का क्या ग़म आते जाते हैं
किसी को देते तन्हाई किसी को रुलाते हैं
'दीपक कुल्लुवी' पत्थर दिल है लोग यह कहते हैं
उसको तो यह ग़म भी अक्सर रास आ जाते हैं
किसने देखा उसको रोते किसने झाँका दिल में
किसने पूछा क्यों कर यह ग़म तुझको भाते हैं
कुछ तो बात होगी इस ग़म में कुछ तो होगा ज़रूर
बेवफा न होते यह साथ साथ ही आते हैं
गम से रिश्ता रखो यारो ताउम्र देंगे साथ
यह आखरी लम्हात तक रिश्ता…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on December 4, 2010 at 10:00am —
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यादों के पत्ते यूँ बिखरे परे है जमीं पर ,
अब कोई खरखराहट भी नही है इनमे,
शायद ओस की बूंदों ने उनकी आँखों को
कुछ नम कर दिया हो जैसे ...
बस खामोश से यूँ चुपचाप परे है ,
यादों के ये पत्ते ...
जहन मे जरुर तैरती होगी बीती वो हरयाली,
हवायें जब छु जाती होगी सिहरन भरी ..
पर आज भी है वो इर्द गिर्द उन पेड़ों के ही ,
जिनसे कभी जुरा था यादों का बंधन ..
सन्नाटे मे उनकी ख़ामोशी कह रही हो जैसे,
अब लगाव नही , बस बिखराव है हर पल…
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Added by Sujit Kumar Lucky on December 4, 2010 at 1:54am —
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ग़ज़ल
अज़ीज़ बेलगामी
नै फ़क़त खुशनुमा मश्घला ज़िन्दगी
ज़िन्दगी अज्म है हौसला ज़िन्दगी
हालत - ए -ज़हन का आईना ज़िन्दगी
निय्यत - ए -क़ल्ब का तजज़िया ज़िन्दगी
ज़िन्दगी , बंदगी .. वरन क्या ज़िन्दगी
बंदगी ही का एक सिलसिला ज़िन्दगी
ये कभी जोक - ए -सजदा की तकमील है
और कभी यूरिश - ए -कर्बला ज़िन्दगी
खौफ ने जोहर - ए -ज़िन्दगी ले लिया
अज्म ने तो मुझे की अता ज़िन्दगी
तेरी मज्बूरियौं का मुझे इल्म…
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Added by Azeez Belgaumi on December 3, 2010 at 12:30pm —
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यह प्यार का समंदर क्यों आंखो मे समाया है
एक ठंडी सी तपिस में क्यों दिल को डुबाया है
मत देखो इस तरह...कि एक तूफ़ान सा उठता है
मन पल में सहमता है क्षण भर में मचलता है
तुम आओ तो सही हम दीवानों की महफ़िल में
इस अंजुमन की रौ में कोई पतंगा जलता है
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on December 3, 2010 at 10:19am —
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ग़ज़ल
("मोहब्बत" की नज्र)
अज़ीज़ बेलगामी, बैंगलोर
ज़मीं बंजर है, फिर भी बीज बोलो, क्या तमाशा है
तराजू पर, खिरद की, दिल को तोलो, क्या तमाशा है
ज़माने से छुपा रख्खा है हम ने सारे ज़खमौं को
सितम के दाग़-ए-दामां तुम भी धोलो, क्या तमाशा है
अभी चश्मे करम की आरज़ू है सैर-चश्मों को
हो मुमकिन तो हवस के दाग़ धो लो, क्या तमाशा है
नहीं कशकोल बरदारी तुम्हारी, वजह–ए-रुसवाई
मोहब्बत मांगनी है मुह तो खोलो, क्या तमाशा…
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Added by Azeez Belgaumi on December 2, 2010 at 11:30am —
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ग़ज़ल
घर से बाहर निकल
चाँदनी में टहल |
खौफ गिरने का है
थोडा रुक रुक कर चल |
याद बचपन को कर
और फिर तू मचल |
मौत सा सच नहीं
ज़िंदगी पल दो पल |
फूल था बीज बन
पंखुरी मत बदल |
थोड़ी मोहलत मिले
फैसला जाये टल |
मैं गुनहगार हूँ
सोच मत मुझको छल |
ये घड़ा विष भरा
पी ले शिव बन गरल |
कोई झंडा उठा
कोई कर दे पहल…
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Added by Abhinav Arun on December 2, 2010 at 10:14am —
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ग़ज़ल
तुम न मेरे हुए
घुप अँधेरे हुए |
सोन मछली हो तुम
हम मछेरे हुए |
शाम बेमन सी थी
लो सबेरे हुए |
तितली नादान थी
फिर भी फेरे हुए |
निकली बंजर ज़मी
क्यों बसेरे हुए |
याद सावन हुई
हम घनेरे हुए |
दर्द है या धुंआ
मुझको घेरे हुए |
बीन तुमने सूनी
हम सपेरे हुए |
इक बदन चाँदनी
सौ चितेरे हुए…
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Added by Abhinav Arun on December 2, 2010 at 9:56am —
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ग़ज़ल
होटल वाली खीरें अच्छी लगती हैं
हूरों की तस्वीरें अच्छी लगती हैं |
अपने घर के गमले सारे सूखे हैं
औरों की जागीरें अच्छी लगती हैं|
शहरों में है लिपे पुते चेहरों की भींड
गावों वाली हीरें अच्छी लगती हैं |
मुझे बनावट वाले ढेरों रिश्तों से
यादों की जंजीरें अच्छी लगती हैं |
अपनी खुशियों में अब कम खुश होते लोग
पड़ोसियों की पीरें अच्छी लगती हैं…
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Added by Abhinav Arun on November 30, 2010 at 3:00pm —
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नसबंदी कैम्प में आये
एक आगन्तुक को देख
डाक्टर साहब झल्लाए
उत्सुकता से चिल्लाये
और उससे पूछने लगे
भैया जहाँ तक मुझे याद है
तुम तो पिछले वर्ष भी कैम्प में आये थे
और हमसे ही अपना नसबंदी आपरेशन करवाए थे
आगन्तुक बोला डाक्टर साहब आपने ठीक फ़रमाया
मैं तो पिछले वर्ष भी आया था
और आपसे ही आपरेशन करवाया था
बदले में प्रोत्साहन राशी १५० रुपये भी पाया था
लेकिन इस बार आप प्रोत्साहन राशि काहे बढ़ाये
१५०…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on November 30, 2010 at 10:30am —
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छत्तीसगढ़ ने जिस तरह विकास के दस बरस का सफर तय कर देश में एक अग्रणी राज्य के रूप में खुद को स्थापित किया है और सरकार, विकास को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है, मगर यह भी चिंता का विषय है कि छत्तीसगढ़िया, सबसे बढ़िया कहे जाने वाले इस प्रदेश में अपराध की गतिविधियों मंे लगातार इजाफा होता जा रहा है। राजधानी रायपुर से लेकर राज्य के बड़े शहरों तथा गांवों में निरंतर जिस तरह से बच्चों समेत लोगों के अपहरण हो रहे हैं तथा सैकड़ों लोग एकाएक लापता हो रहे हैं और पुलिस उनकी खोजबीन करने में नाकामयाब हो रही है, ऐसे में…
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Added by rajkumar sahu on November 29, 2010 at 2:14pm —
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नहीं नहीं ....
मैं दशरथ नहीं
जो कैकेयी से किये हर वादे
निभाता चलूँगा //
मैं .....
खोखले वादे करता हूँ तुमसे
मुझे
अपने राम को वनवास नहीं भेजना //
क्या हुआ
जो टूट गए
मेरे वादे
अपने दिल को
मोम नहीं
पत्थर बनाओ प्रिय //
Added by baban pandey on November 29, 2010 at 1:20pm —
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देखे हैं कभी तुमने,
पेड़ की शाखों पर वो पत्ते,
हरे-हरे, स्वच्छ, सुंदर, मुस्कुराते,
उस पेड़ से जुड़े होने का एहसास पाते,
उस एहसास के लिए,
खोने में अपना अस्तित्व
ना ज़रा सकुचाते,
पड़ें दरारें चाहे चेहरों पर उनके,
रिश्तों मे दरारें कभी वो ना लाते,
किंतु,
वही पत्ते जब सुख जाते,
किसी काम पेड़ों के जब आ ना पाते,
वही पत्ते उसी पेड़ द्वारा
ज़मीन पर…
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Added by Veerendra Jain on November 29, 2010 at 11:39am —
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भगतसिंह और डा लोहिया
शहीद ए आजम भगतसिंह और डा.राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व और विचारधारा के मध्य कुछ ऐसा अद्भुत अंतरसंबध विद्यमान है, जिस पर कि अनायास ही निगाह चली जाती है। सबसे पहले तो 23 मार्च की वह अति विशिष्ट तिथि रही है, जोकि भगतसिंह का शहादत दिवस है और डा.राममनोहर लोहिया का जन्म दिवस है। दोनों का ही जन्म ऐसे परिवारों में हुआ जोकि जंग ए आजादी के साथ संबद्ध रहे थे। भगतसिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह पंजाब में आजादी के आंदोलन की एक जानी मानी शख्सियत थे और उनके पिता सरदार किशन सिंह भी…
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Added by prabhat kumar roy on November 29, 2010 at 6:43am —
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सुबह से चढ़ रहा मुंडेर, गुनगुना सूरज,
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है...
देखता हूँ वो कच्ची धुप में लिपा आँगन,
माँ ने नहलाके खड़ा कर दिया है फर्शी पे..
कान के पीछे लगाया है फ़िक्क्र का टीका....
और पहना दिया है पीला पुलोवर जिसमें..
बुनी है कितनी जागती रातें....
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है,
सुबह से ढूंढ रहा हूँ वो गुनगुना सूरज
Added by Sudhir Sharma on November 29, 2010 at 4:25am —
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इधर नब्ज़ थमती,उधर अश्कों की झड़ी..
इधर टूटती साँस और उधर संजोते हैं आस..
विरक्ति -आसक्ति, आसक्ति-विरक्ति का कैसा खेल??
हैं हम जीवन बिसात के मोहरे मात्र!
इधर गूँजती किल्कारी,उधर जाए कोई बलिहारी..
किसी के माथे पे,भविष्य की चिंता लकीरें..
ममत्व की छाँव तले,अबोध-बोध का निर्बाध मेल..
हैं हम..जीवन बिसात के मोहरे मात्र..
'राम नाम सत्य 'के…
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Added by Lata R.Ojha on November 29, 2010 at 1:07am —
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दर पे मेरे ::: ©
सारी जिंदगी अकेला बैठा हुआ हूँ,
पलकें बिछाए हुए तेरे इंतज़ार में,
न जाने कब इस रात की सुबह हो,
और दर पे नाचीज़ के तू आ जाये..
_____
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (28 Nov 2010)
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 28, 2010 at 10:31pm —
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मुट्ठी में ख्वाहिशों को बंद करके..
क्यों कहें ज़प्त कर लिया सबकुछ..
रेत जैसे हर बात फिसल जाएगी..
हाथ में झूठ के सच रुकेगा कैसे?
मैं हूँ पत्थर,नही कुछ भी महसूस होता..
आँखें बरसती नही जब भी कोई भूखा बच्चा रोता..
नही रूंधता कंठ तड़पती आहें सुन..
बस..धनलक्ष्मी के कदमों की हूँ आहट सुनता..
क्यों बहकते हो बस एक घूँट लहू का पी के..?
अभी ताउम्र टकराने हैं जाम ये छलकते..
जेब भरती… Continue
Added by Lata R.Ojha on November 28, 2010 at 2:00am —
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