मैंने न जाना प्यार क्या है,
रिश्ता ऐ दर्द का अहसाह सा क्यूं है ?
साया-ऐ-दरख्तों पे पहुँच न सकी जो रौशनी,
उस रौशनी का इक अहसास सा क्यों है ?
ता उम्र ना खुल के मिल सकी जो सासें
उस प्राणवायु की कमी पे भी ये सांस क्यूं है ?
सूख चुके है जो धारे नदी से
फिर भी आज ये नयन नम से क्यूं है ?
ता उम्र ढूंढती रही जिस रौशनी को
उस सूरज का अहसास सा क्यों है.
जिंदगी तो जी के भी जी ना पाई ,
फिर भी, मौत के बाद इक -
जिंदगी का इन्तजार सा क्यूं है…
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Added by Dr Nutan on October 21, 2010 at 5:30pm —
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सांझ की पंचायत में..
शफ़क की चादर में लिपटा
और जमुहाई लेता सूरज,
गुस्से से लाल-पीला होता हुआ
दे रहा था उलाहना...
'मुई शब..!
बिन बताये ही भाग जाती है..'
'सहर भी, एकदम दबे पांव
सिरहाने आकर बैठ जाती है..'
'और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह
चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर
उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?"
उफक ने डांट लगाई-
'ज्यादा चिल्ला मत..
तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'
माँ समझाती थी-
"उगते…
Added by विवेक मिश्र on October 21, 2010 at 1:00pm —
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(ये मेरी पहली कोशिश है ग़ज़ल लिखनें की... जहाँ गलती हो कृपया करके बे'झिझक बताएं... शुक्रिया...!!)
सख्त रास्तों पर भी आसान सफ़र लगता है...
ये मुझे माँ की दुआओं का असर लगता है...!!
हो जाती है, बोझिल आँखें जब रोते-रोते...
माँ से फ़िर मुश्किल चुराना ये नज़र लगता है...!!
नहीं आती नींद इन मखमली बिस्तरों पर...
माँ की थपकियों का यादों में जब मंज़र लगता…
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Added by Julie on October 20, 2010 at 10:30pm —
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कहाँ कहाँ से बचा कर निकालते खुद को
हरेक मोड़ पै कैसे संभालते खुद को
हमारी आँख से दरया कई रवाँ होते
जो आँसुओं की फ़िज़ाओं मैं ढालते खुद को
किसी पै तंज़ की हिम्मत कभी नहीं होती
ज़रा सी देर कभी जो खंगालते खुद को
बड़े ही ज़ोर से आकर ज़मीन पर गिरते
जो आसमान की जानिब उछालते खुद को
बहुत गुरूर है तुमको चिराग होने पर
कभी मचलती हवाओं मैं पालते खुद को
Added by SYED BASEERUL HASAN WAFA NAQVI on October 20, 2010 at 9:30pm —
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((( यूँ तो हूँ साधारण-सी इंसान बस... पर आजकल भावनाओं को शब्द देने आ गया है और लोग मुझे 'कवि' (कवयित्री) के नाम से पुकारने लगे हैं... पर अभी इस उपाधि से हमें नवाज़ा जाए ये हम सही नहीं समझते... अभी ऐसे किसी विषय पर लिखा नहीं... मैं अभी "कवि" नहीं...!! ये रचना बस यही सोचते सोचते बन पड़ी के मैं कवि क्यूँ नहीं और कब होउंगी...!! -जूली )))
मैं "कवि" 'नहीं' हूँ... ...… Continue
Added by Julie on October 20, 2010 at 8:30pm —
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रुख पे उदासी , आँख क्यूँ नम है
यार बता , तुझे कौन सा गम है
ज़ख्म जिगर के मुझको दिखा दे ,
मेरी नज़र भी इक मरहम है .
तेरी पलक का अश्क मैं अपने
लब पे उठा लूं , ये शबनम है.
लगता है मुझको तुझमे खुदा है ,
हंस कर बोले लोग वहम है
जिस्म तेरा या रूह हो तेरी
मेरे लिए यह दैरो- हरम है
कहना ग़ज़ल यूं मैं क्या जानू
यह तो खुदा का रहमो- करम है
आनंद तनहा
Added by anand pandey tanha on October 20, 2010 at 7:03pm —
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इस घटना ने मुझे जबरदस्त सबक सिखा दिया ! हुआ यह कि पिछले दिनों मेरे एक जो की किसी ज़माने में मेरे रूममेट हुआ करते थे मेरे घर पधारे ! उनको मेरे शहर में ही नौकरी मिली थी, लेकिन नया होने की वजह से उनको रहने का कोई ठिकाना अभी तक नहीं मिल पाया था ! क्योंकि उनसे पुरानी जान पहचान थी तो मैं उन्हे अपना समझकर अपने कमरे की चाबी सौंप कर अपने काम पर निकल गया ! लेकिन उस मित्र ने इस पल का भरपूर इस्तेमाल करते हुए मेरे कंप्यूटर की हार्ड डिस्क ही बदल डाली| इस बात का आभास मुझे कल ही हुआ जब मैंने कंप्यूटर ठीक करवाने…
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Added by ABHISHEK TIWARI on October 20, 2010 at 1:30pm —
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काश हर आह सर्द हो जाये,
काश हमदर्द दर्द हो जाये .
अब दवा से मुझे क्या लेना ,
ला- दवा मेरा मर्ज़ हो जाये .
मौत री! ले ले मुझ को दामन में ,
दूर जीवन का कर्ज़ हो जाये .
आंसुओ सूख जाना भीतर ही ,
कहीं जग में न नशर हो जाये .
दीप जीर्वी
09815524600
Added by DEEP ZIRVI on October 20, 2010 at 6:48am —
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ढलती हुई शाम ने
अपना सिंदूरी रंग
सारे आकाश में फैला दिया है,
और सूरज आहिस्ता -आहिस्ता
एक-एक सीढ़ी उतरता हुआ
झील के दर्पण में
खुद को निहारता
हो रहा हो जैसे तैयार
जाने को किसी दूर देश
एक लंबे सफ़र पर I
काली नागिन सी,
बल खाती सड़कों पर
अधलेते पेड़ों के सायों के बीच
मैं,
अकेला,
तन्हा,
चला जा रहा हूँ
करता एक सफ़र,
इस उम्मीद पर
कि अगले किसी मोड़ पर
राहों पर अपनी धड़कनें बिछाए
तुम करती होगी…
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Added by Veerendra Jain on October 20, 2010 at 1:08am —
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सभी को मेरा प्रणाम ... एक नयी कोशिश की है आपके सामने पेश है ...
बहर है
2122 212 2 212 2 212
मंज़िले अपनी जगह, रास्ते अपनी जगह ... आप इस गाने की धुन पे इसे गुनगुना सकते हैं ...
_____________________________________________________________________
जानलेवा प्यार है, इस प्यार से तौबा करो
नासमझ ये दिल सही तुम तो इसे टोका करो
किस तरफ हो जा रहे, इस राह की मंज़िल है क्या
देर थोड़ी बैठ कर, तुम दूर तक सोचा करो
तुम बचाओ मुझसे दामन, पास…
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Added by vikas rana janumanu 'fikr' on October 19, 2010 at 3:00pm —
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काम बेशक न कीजिए ज्यादा,
मीडिया में मगर दिखिए ज्यादा.
ये सियासत के खेल है साहब ,
बोइये कम छीटिए ज्यादा.
मिल गया है रिमांड पर अभियुक्त
पूछिए कम पीटिए ज्यादा.
सैलरी झाग दूध रिश्वत है,
फूंकिए कम पीजिए ज्यादा.
शेख जी हैं नए नए शायर ,
दाद कुछ और दीजिए ज्यादा.
लिफ्ट छाते में देकर देख लिया ,
बचिए कम भीगिए ज्यादा.
सभ्यता की पतंग और पछुआ बयार,
ढीलिए कम लपेटिए ज्यादा.
अपसंस्कृति की पपड़ियाँ…
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Added by Abhinav Arun on October 19, 2010 at 1:30pm —
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दोहा सलिला:
जिज्ञासा ही धर्म है
संजीव 'सलिल'
*
धर्म बताता है यही, निराकार है ईश.
सुनते अनहद नाद हैं, ऋषि, मुनि, संत, महीश..
मोहक अनहद नाद यह, कहा गया ओंकार.
सघन हुए ध्वनि कण, हुआ रव में भव संचार..
चित्र गुप्त था नाद का. कण बन हो साकार.
परम पिता ने किया निज, लीला का विस्तार..
अजर अमर अक्षर यही, 'ॐ' करें जो जाप.
ध्वनि से ही इस सृष्टि में, जाता पल में व्याप..
'ॐ' बना कण फिर हुए, ऊर्जा के…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 18, 2010 at 11:30pm —
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तन्हाई का कैसा यारो फंडा
कोई कैसे तन्हा भी हो सकता है ?
फूल कही
हो खुशबु उसके साथ रहे ,
खुशबू हो जो वो भी हवा के साथ बहे
खुशबु से
हम सब का दामन भरता है ,
तन्हाई का कैसा यारो फंडा है ,
कोई कैसे
तन्हा भी हो सकता है ?
दिल के साथ है धड़कन ,
आँख के साथ स्वप्न ,
सुखदुख
साथ में मिलके बनता है जीवन ।
जीवन धार में मिलके जीवन चलता है ,
तन्हाई
का कैसा यारो फंडा है ।
कोई कैसे तन्हा भी हो सकता है ?
दीप के साथ
है…
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Added by DEEP ZIRVI on October 18, 2010 at 9:00pm —
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क्या हमारे सितारे झूठ बोलते हैं ,
ये सोच कर मेरा दिल जलता हैं ,
एक जन सेमसंग गुरु का रट लगाया ,
मेरे पॉकेट से अच्छा चूना लगवाया ,
एक बादशाह हैं अच्छा उल्लू बनाया ,
हप्ता क्या सालो मला ना चमक पाया ,
एक महानायक हमें जो बताया ,
हकीकत के पास उन्हें भी ना पाया ,
सर जी ने बोला आइडिया बदल देगी ,
नही पता था तीस रुपया वो काट लेगी ,
गलती से बेटा ने दबा दिया जो फोन आया ,
मेरे बैलेंस से तीस रुपया का चूना लगाया ,
बाद में पता चला १० और खा गया वो…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 18, 2010 at 7:30pm —
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मुफलिस ही रहने दो हमको
हम न मांगे चांदी -सोना .
इश्क की दौलत पास हमारे ,
कैसी ग़ुरबत -कैसा रोना
जाहिद जाने रसमे -इबादत,
हमको उसके ,इश्क की आदत
जिसके नूर की एक शफक से,
रोशन दिल का कोना- कोना
इश्क- ए- खुदा हो जाने दे कामिल
उसकी नज़र में ,होकर शामिल
दिन भर रब की मैय को पीकर
रात में चादर तान के सोना
ये है सराय घर न तेरा
जिसमे लगाया तूने डेरा
कल आयेंगे , और मुसाफिर
मालिक बदले रोज बिछौना
आनंद तनहा
Added by anand pandey tanha on October 18, 2010 at 7:00pm —
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धड़कते दिल की सदा है तू
मुहब्बतों की खुदा है तू
के तेरा नाम है मुहब्बत
किसे खबर है के क्या है तू
तेरी ज़रूरत है इस जहाँ को
दहकती हुई हर इक फ़िज़ा को
तू ही मंदिर तू ही मस्जिद
तू ही बच्चे की तोतली बोली
तू ही ममता का बे हिसाब साया
तू ही है पापा की डांट जानूं
तू ही चिड़ियों की चहचहाहट
तू ही है कलियों की मुस्कुराहट
तेरे दम से बहार क़ायम
मैं क्या गिनाऊँ तेरे गुणों को
के तू मुहब्बत है तू…
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Added by mohd adil on October 18, 2010 at 6:30pm —
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धूप के दरिया में नहाता है गुलाब
फिर भी ताज्जुब है मुस्काता है गुलाब
जिनके चेहरों पर उदासी होती है
मुस्कुराना ऐसों को सिखाता है गुलाब
जब किसी के लिए बिखरता है
तब कहीं जाके चैन पाता है गुलाब
रास्ते में बिखेर कर खुद को
साथ राही के भी जाता है ग़ुलाब
जो ज़माने में नामवर थे कभी
वाक़ए उन के सुनाता है गुलाब
Added by mohd adil on October 18, 2010 at 6:00pm —
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दशहरा के अवसर पर १७ अक्टूबर २०१० को वाराणसी स्थित श्री शारदापीठ मठ सभागार में वरिष्ठ शायर श्री अनुराग शंकर वर्मा के ग़ज़ल संग्रह "कहने को जुबां है"का विमोचन और इस मौके पर कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया. मैं भी आमंत्रित था यह आयोजन कई मायनों में यादगार रहा. पहली बात यह कि श्री अनुराग जी अभी उम्र के ८३ वें वर्ष में चल रहे है और यह उनका पहला संग्रह है. जो उनकी स्वयं की इच्छा से नहीं बल्कि दूसरों के अधिक प्रयास से साकार रूप ले सका है. अनुराग जी का सारा लेखन उर्दू में है और उसे समेटना काफी मुश्किल था…
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Added by Abhinav Arun on October 18, 2010 at 4:30pm —
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विशेष लेख-
भारत में उर्दू :
संजीव 'सलिल'
*
भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 18, 2010 at 9:56am —
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कश्ती का है क़ुसूर न मैरा क़ुसूर है
तूफान है बज़ीद के डुबोना ज़रूर है
जो मैरे साथ साथ है साए की शक्ल मैं
महसूस हो रहा है वही मुझ से दूर है
मोजों का यह सुकूत न टूटे तो बात हो
दरया मैं डूबने का किसी को शऊर है
देखा है जब से तुमको निगाहों मैं बस गये
हद्दे निगाह सिर्फ़ तुम्हारा ज़हूर है
दामन मैं सिर्फ़ धूप के दरया समाए हैं
सहरा को इस वजूद पे फिर भी गुरूर है
Added by SYED BASEERUL HASAN WAFA NAQVI on October 17, 2010 at 7:00pm —
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