पापा मम्मी आप भी आओ
उन पुरानी गलिओं से फिर
ख्याल अपने दिल तक आये
आँगन में थे खिलते उन कलियों से
सवाल अपने दिल तक आये
दौरते आते सारे किस्से
कोई बैठकर मुझे सुनाओ
आँखे तरस रही दर्शन को
पापा मम्मी आप भी आओ
गहरी जाती उन घाटीयों से
संकराति गूंजे घूम रही हैं
चट्टानों पे रेत की बूंदे
अब भी मानो झूम रही हैं
भूलते जाते उन पन्नो से
पुरानी कुछ गजलें सुनाओ …
Added by AJAY KANT on November 3, 2012 at 12:27pm — 3 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 3, 2012 at 11:23am — 2 Comments
जब कभी मेरी बात चले
ख़्वाब में भी कोई ज़िक्र चले
मेरे हमदम मेरे हमराज़
यूं ही खामोश रहो
शायद ही कभी
ठिठुरते हुए बिस्तर पे
कभी चांदनी बरसे
या फिर झील के ठहरे हुए पानी में
कभी लहरे मचले
जब कभी आँखों के समंदर में
कोई चाँद उतरे
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो…
Added by Gul Sarika Thakur on November 2, 2012 at 10:05pm — 9 Comments
गीत:
उत्तर, खोज रहे...
संजीव 'सलिल'
*
उत्तर, खोज रहे प्रश्नों को, हाथ न आते।
मृग मरीचिकावत दिखते, पल में खो जाते।
*
कैसा विभ्रम राजनीति, पद-नीति हो गयी।
लोकतन्त्र में लोभतन्त्र, विष-बेल बो गयी।।
नेता-अफसर-व्यापारी, जन-हित मिल खाते...
*
नाग-साँप-बिच्छू, विषधर उम्मीदवार हैं।
भ्रष्टों से डर मतदाता करता गुहार है।।
दलदल-मरुथल शिखरों को बौना बतलाते...
*
एक हाथ से दे, दूजे से ले लेता है।
संविधान बिन पेंदी नैया खे लेता…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 2, 2012 at 5:56pm — 7 Comments
मौत भी अब तो बहाने बनाने लगी है दोस्तों
देखकर उनको ये भी नखरे दिखाने लगी है दोस्तों
हार जाना ही था शायद हिम्मत को मेरी
किस्मत भी मुझको चिढाने लगी है दोस्तों
क्या थी जिन्दगी और क्या हो गई है
रौशनी भी अब डराने लगी है दोस्तों
खो गये मेरे ख्वाब इस शहर में न जाने कहाँ
हकीक़त ही बस अब भाने लगी है दोस्तों
हो गई दोस्ती मेरी गमो से कुछ यूँ
खुशियाँ अब मुझको रुलाने लगी है दोस्तों
कहो तुम ही अब अंजाम-ए-जिन्दगी क्या हो…
Added by Sonam Saini on November 2, 2012 at 1:55pm — 12 Comments
मूक हो गई
रांगा माटी
नीरव नभ
अनुनाद
रम्य तपोवन
गुमशुम-गुमशुम
झर गए पारिजात
कासर घंटे
ढाक सोचते
ढूंढ रहे
वह नाद
भरे-भरे मन
प्राण समेटे
भींगे सारी रात
कमल-कुमुदिनी
मौन मुखर हैं
कहां भ्रमर
कहां दाद
पंकिल पथ पर
हवा पूछती
कैसे ये संघात
जाओ अपने
देश को पाती
यह पता
कहां आबाद
अपनी…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on November 2, 2012 at 1:28pm — 3 Comments
विवाह : एक दृष्टि
द्वैत मिटा अद्वैत वर...
संजीव 'सलिल'
*
रक्त-शुद्धि सिद्धांत है, त्याज्य- कहे विज्ञान।
रोग आनुवंशिक बढ़ें, जिनका नहीं निदान।।
पितृ-वंश में पीढ़ियाँ, सात मानिये त्याज्य।
मातृ-वंश में पीढ़ियाँ, पाँच नहीं अनुराग्य।।
नीति:पिताक्षर-मिताक्षर, वैज्ञानिक सिद्धांत।
नहीं मानकर मिट रहे, असमय ही दिग्भ्रांत।।
सहपाठी गुरु-बहिन या, गुरु-भाई भी वर्ज्य।
समस्थान संबंध से, कम होता सुख-सर्ज्य।।
अल्ल गोत्र कुल आँकना, सुविचारित…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 2, 2012 at 11:08am — 3 Comments
गीत:
समाधित रहो ....
संजीव 'सलिल'
+
चाँद ने जब किया चाँदनी दे नमन,
कब कहा है उसी का क्षितिज भू गगन।
दे रहा झूमकर सृष्टि को रूप नव-
कह रहा देव की भेंट ले अंजुमन।।
जो जताते हैं हक वे न सच जानते,
जानते भी अगर तो नहीं मानते।
'स्व' करें 'सर्व' को चाह जिनमें पली-
रार सच से सदा वे रहे ठानते।।
दिन दिनेशी कहें, जल मगर सर्वहित,
मौन राकेश दे, शांति सबको अमित।
राहु-केतु ग्रसें, पंथ फिर भी न तज-
बाँटता रौशनी, दीप होता…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 2, 2012 at 10:06am — 8 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on November 1, 2012 at 8:26pm — 10 Comments
नीला नभ
फिर निखर गया
लौट चले
बादल के यूप
कच्चे गुड़ की
गंध समेटे
नाच रही
मायावी धूप
खिलखिल करती
कास की पंगत
कासर घंटे
अगरू धूप
फुदक रही
फिर से गौरैया
माटी सोना
चांदी धूप
Added by राजेश 'मृदु' on November 1, 2012 at 5:00pm — No Comments
उस कमरे का दरवाजा अंदर से बंद है ! मंगल बाहर उत्सुक सा चहलकदमी कर रहा है ! कमरे से कुछ औरतों के बोलने की, और बीच-बीच में एक औरत के चींखने की आवाज आ रही है ! ये सब झूमरी के प्रसव का आयोजन है !...................कुछ समय बाद ! “केहाँ...केहाँ...केहाँ !” बच्चे के रोने की आवाज हुई ! अब मंगल बेचैन हो उठा ! कि तभी कमरे का दरवाजा खुला, और रामधुनी काकी बाहर निकलीं !
“के हुवा काकी?” मंगल ने पूछा !…
ContinueAdded by पीयूष द्विवेदी भारत on November 1, 2012 at 3:30pm — 10 Comments
Added by shikha kaushik on November 1, 2012 at 2:00pm — 4 Comments
मेरे घर में आँगन नहीं है,
देहरी और दहलीज नहीं है ,
दरवाजे से सांखल गायब ,
दस्तक देती तहजीब नहीं है ,
मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है
|
मेरे घर की पास की गलियां ,
जब तब रोतीं हैं बिन घूँघट के,
किसी के आने की उम्मीद लगाये,
रात को भी ये जागती रहती हैं ,
मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है
वर्तमान को पोषित करती भर्मित…
ContinueAdded by Er.vir parkash panchal on November 1, 2012 at 11:30am — 4 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |