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Umesh katara's Blog – December 2014 Archive (5)

ग़ज़ल----क़भी सोचा नहीं मैंने ,तेरे रुख़सार से आगे

1222 1222 1222 1222

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कोई चाहत नहीं मेरी ,तेरे इक़ प्यार से आगे

क़भी सोचा नहीं मैंने ,तेरे रुख़सार से आगे

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क़भी का जीत लेता मैं,ज़माने को मेरे दम पर

मग़र वो जीत मिलनी थी,तेरी इक हार से आगे

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हरिक ख़्वाहिश अधूरी है,इन्हे करदे मुकम्मल तू

क़भी तो आज़मा ले तू ,मुझे इनकार से आगे

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जमाने की हरिक़ खुशियाँ ,तेरे कदमों तले रख़ दूँ 

तेरा हर ख़्वाब हो जाऊँ,तेरे इक़रार से…

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Added by umesh katara on December 31, 2014 at 8:20pm — 9 Comments

ग़ज़ल----उमेश कटारा ---बिचाराधीन है मेरा मुकदमा भी अदालत में

फँसा इन्साफ है मेरा गुनाहों की सियासत में 

विचाराधीन है मेरा मुकदमा भी अदालत में

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लिये हथियार हाथों में,चली थी मज़हबी आँधी

ज़ला परिवार था मेरा , कभी शहरे क़यामत में

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अख़रता है सियासत को ,मेरा इन्सान हो जाना 

हुआ बरबाद था मैं भी, क़भी सच की वक़ालत में

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कहीं मन्दिर कोई तोड़ा ,कहीं मस्ज़िद कोई तोड़ी

फँसा है आदमी देखो,न जाने किस इबादत में

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दरिन्दे आज बाहर हैं,मेरी तारीख पड़ती है

खडे मी-लॉर्ड हैं देखो ,गुनाहों की…

Continue

Added by umesh katara on December 25, 2014 at 11:00am — 20 Comments

ग़ज़ल-उमेश कटारा

फँस गया हूँ आफ़तों में
आज़ हूँ मैं पागलों में

क्या सुँकू तूने कमाया
क्या मिला है फ़ासलों में

मज़हबी आतंक से अब
आदमी है दहशतों में

सब ग़िले शिक़वे भुलादो
क्या रख़ा है रतज़गों में 

ख़ो दिये हैं घर हजारों
जिन्द़गी ने हादसों में

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा

Added by umesh katara on December 21, 2014 at 10:00am — 11 Comments

ग़ज़ल---उमेश कटारा

मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं,पिघलता ही रहा हूँ मैं

ख़ुदा से माँगकर तुझको,भटकता ही रहा हूँ मैं

................

समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको

मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं

................

अगर सच बोलता हूँ तो,समझते हैं मुझे पागल

मगर सच्चाई को लेकर ,उबलता ही रहा हूँ मैं

................

सितारों की कसम ले ले,नजारों की कसम ले ले

तेरे दीदार की ख़ातिर मचलता ही रहा हूँ मैं

.................

मेरी किस्मत के सौदागर ,मुझे…

Continue

Added by umesh katara on December 6, 2014 at 10:00am — 21 Comments

ग़ज़ल--उमेश कटारा

क्या पता किस ख़ुदा ने बनायी मोहब्बत

पत्थरों से मुझे फिर करायी मोहब्बत



उसकी आँखों में सारा जहाँ मिल गया था

उसने हँसके ज़रा सा ज़तायी मोहब्बत



वो मेरा हा गया ,हो गया मैं भी उसका

हमने बर्षों तलक फिर निभायी मोहब्बत



रोज मिलने लगे ,सिलसिला चल पड़ा था

चाँद तारों से मैंने सजायी मोहब्बत



पर खुदा हमसे नाराज रहने लगा तो

दिलजलों की तरह फिर जलायी मोहब्बत



हो गये हम दिवानों से मशहूर दोनों

दुश्मनों ने बहुत फिर सतायी मोहब्बत



ख़ाक में…

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Added by umesh katara on December 2, 2014 at 7:37pm — 15 Comments

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