अतुकांत कविता : प्रगतिशील
अकस्मात हम जा पहुँचे
एक लेखिका की कविताओं पर
जिसमे प्रमुखता से उल्लेखित थे
मर्द-औरत के गुप्त अंगों के नाम
लगभग सभी कविताओं में...
पूरी तरह से किया गया था निर्वहन
उस परंपरा को
जहाँ दी जाती हैं गालियाँ
समूची मर्द जाति को
एक ही कटघरे में खड़ा कर
प्रस्तुत किया जाता है विशिष्ट उदाहरण
चंद मानसिक विक्षिप्तों…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 30, 2020 at 7:30pm — 6 Comments
Added by Sushil Sarna on January 30, 2020 at 4:00pm — 4 Comments
समय के साय
समय पास आकर, बहुत पास
कोई भूल-सुधार न सोचे
अकल्पित एकान्तों में सरक जाए
झटकारते कुछ धूमैले साय अपने
गहरे, कहीं गहरे बीच छोड़ जाए
कुछ ऐसे घबराय बोझिल…
ContinueAdded by vijay nikore on January 30, 2020 at 2:30pm — 4 Comments
२२१/२१२२/२२१/ २१२२
किस काम के हैं नेता किस काम का ये शासन
इनके रहे वतन में जब नित्य होनी अनबन।१।
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किस बात से हैं सेवक कहते पहन के खादी
निर्धन के घर अगर ये डलवा न पाये राशन।२।
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अंग्रेज थे बुरे या चम्बल के चोर डाकू
गर जो हो लूट खाना भर देश का ही जनधन।३।
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किस बात की हो चिन्ता किस बात से परेशाँ
मथकर के दे रही है जनता इन्हें तो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 30, 2020 at 4:38am — 2 Comments
2122 2122 2122 212
महकते अल्फाज़ जैसे अब शरारे हो गए
वक़्त की गर्दिश में शामिल ख़त तुम्हारे हो गए
जिंदगी की उलझनों ने जेहन को घेरा है यूं
तेरी यादों के मरासिम खुद किनारे हो गए
शायरी, सिगरेट, तंबाकू ज़िन्दगी भर की तड़प
एक सहारा क्या गया कितने सारे हो गए
पहले एहसास ओ सुखन में इश्क थे कायम सभी
ओढ़कर जिस्मों को ही अब इश्क़ सारे हो गए
बागवां से जिंदगी का ये सबक सीखा हूं मैं
फूल खिल जाने पर…
Added by मनोज अहसास on January 29, 2020 at 9:00am — 1 Comment
Added by amita tiwari on January 29, 2020 at 1:30am — 1 Comment
शब्दों का है खेल निराला
आओ हम खिलवाड़ करें
गढ़ आदर्श वाक्य रचनाएँ
क्यों उन पर हम अमल करें ?
दूजों को सीखें देकर, है
उन्हे मार्ग दिखलाएँ हम
निज कर्मों पर ध्यान कौन दे ?
अपना मान बढ़ाएँ हम
अपने घर का कूड़ा करकट
अन्यों के घर में डालें
बन नायक अभियान स्वच्छता
अपना अभिमत ही पालें
सरिया ,गारा , मिट्टी , गिट्टी
ढेर लगाएँ राहों पर
चलें फावड़े , टूट-फूट का दोष
धर रहे निगमों…
ContinueAdded by Usha Awasthi on January 28, 2020 at 6:14pm — 2 Comments
तेरे बिन है घर ये सूना
मेरे मन का कोना सूना
समझो ना ये चार दिनो का
प्यार हमारा काफ़ी जूना*!
घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ
मैं छलना ना ख़ुद को जानूं
लोगों का तो काम है कहना
मैं तुमको बस अपना मानूं! !
मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है
और साथ में चलने क़ी है
तब ये सूनापन ना अखरे
बात नज़रिया बदलने क़ी है! !
* पुराना (मराठी शब्द)
- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020
मौलिक व अप्रकाशित
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 28, 2020 at 3:30pm — 1 Comment
जब तक भरे थे जाम तो महफ़िल सजी रही
फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही
वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते
उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही
उस कोयले की खान में कपड़ें न बच सके
बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही
कुर्सी पे बैठ अम्न की करता था बात जो
उसकी हथेली खून से यारों सनी रही
दौलत बटोर जितनी भी लेकिन ये याद रख
ये बेबफा न साथ किसी के कभी रही
'आशू' फ़कीर बन तू फकीरीं में है मजा
सब छूटा कुछ बचा…
Added by Dr Ashutosh Mishra on January 28, 2020 at 12:00pm — 7 Comments
इक तेरी है इक मेरी है
ढल के आग में ये बनी हैं
जैसे तुम से तुम बने हो
वैसे मैं से मैं भी बनीं हूँ
आ चल बैठ यहीं हम देखें
एक दूजे से कुछ हम सीखें
अलग है माना फिर भी संग संग
मिलजुल कर के रहना सीखें
शहरों क़ी फिर चकाचौंध हो
जंगल में या कहीं ठौर हो
साथ ना छोडे एक दूजे का
ताप हो कितना या के शीत हो
कहीं हैं सीधी कहीं ये टेढी
दिन हो या हो रात अंधेरी
कर्म पथ से कभी ना डिगती
ना…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 27, 2020 at 1:00pm — 1 Comment
नियति का आशीर्वाद
हमारे बीच
यह चुप्पी की हलकी-सी दूरी
जानती हो इक दिन यह हलकी न रहेगी
परत पर परत यह ठोस बनी
धातु बन जाएगी
तो क्या नाम देंगे हम उस धातु को ?…
ContinueAdded by vijay nikore on January 27, 2020 at 12:30pm — 4 Comments
विकसित होकर हम ने कैसी ये तस्वीर उकेरी है
आदमयुग थी यार न दुनिया जितनी आज अँधेरी है।१।
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बारूदों की जिस ढेरी पर नफरत आग लिए बैठी
उससे सब कुछ ध्वंस में बोलो लगनी कितनी देरी है।२।
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जिसको देखो वही चोट को लाठी लेकर डोल रहा
कहने को पर सब के मन में सुनते पीर घनेरी है।३।
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मजहब पन्थों के हित में तो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2020 at 6:19am — 8 Comments
2×15
अपने बीते कल के मुख पर काजल मलते देखा है,
एक ग़ज़ल कहने की खातिर खुद को जलते देखा है.
गफलत में जिन रास्तों पर चल लोगों ने मंज़िल पाई,
लाख संभलकर चल के उन पर खुद को फिसलते देखा है.
तेरे पास नहीं है मेरे एक सवाल का एक जवाब,
मैंने बात बात में तुझको बात बदलते देखा है.
कुछ भी देखके मेरे मन में आशा जीवित नहीं हुई,
सूरज को हर रोज तमस को चीर निकलते देखा है.
वक्त का चूहा कुतर गया है धीरे-धीरे याद…
ContinueAdded by मनोज अहसास on January 27, 2020 at 12:22am — 2 Comments
माना नशात ए ज़ीस्त है बेज़ार आज भी,
हम हैं मता ए ग़म के ख़रीदार आज भी..
माना बदल चुकी है ज़माने कि हर रविश,
दो चार फिर भी मिलते हैं गम-ख़्वार आज भी..
बच कर जहां पे बैठ सकें ग़म की धूप से,
मिलता नहीं वो सायए दीवार आज भी..
सुलझेंगी किस तरह मिरि किस्मत की उलझनें,
उलझे हुऐ हैं गेसुए-ख़मदार आज भी..
यारों हमारे नाम से है मयक़दे की शान,
मशहूर है तो हम ही गुनहगार आज भी..
आवाज़-ए-हक़ दबाये दबी है न दब सके,
मन्सूर…
Added by Zohaib Ambar on January 26, 2020 at 9:55pm — 3 Comments
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122
धमनियों में दौड़ता यूँ तो सदा है ।।
रक्त है जो देश हित में खोलता है ।।
हौसला उस वीर का देखो ज़रा तुम ।
गोलियों की धार में सीना तना है ।।…
ContinueAdded by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on January 25, 2020 at 5:33pm — 3 Comments
प्रथम मिलन की शाम
विचारों के जाल में उलझा
माथे पर हलका पसीना पोंछते
घबराहट थी मुझमें --
मैं कहीं अकबका तो न जाऊँगा
यकीनन सवाल थे उगल रहे तुम में भी
कैसा होगा हमारा यह प्रथम…
ContinueAdded by vijay nikore on January 23, 2020 at 8:30am — 4 Comments
मेरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफर में
बड़ा चैन था अमन था बड़ा सुख था तुझको घर में।१।
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कहीं दुख भरी ज़मीं तो कहीं गम का आसमाँ है
लिए सुख की चाहतें हम अभी लटके हैं अधर में।२।
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जहाँ देखता हूँ दिखता मुझे सिर्फ ये धुआँ है
रह फर्क अब गया क्या भला गाँव और' नगर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 22, 2020 at 8:09am — 6 Comments
221 2121 1221 212
उस बेमिसाल दौर का दिल से मलाल कर
जब फैसले हो जाते थे सिक्का उछाल कर
तेरे ख्याल में हूं तू मेरा ख्याल कर
मैं तेरी जिंदगी हूं मेरी देखभाल कर
वो दे रहा है देर से पानी उबालकर
हँस हँस के पी रहे हैं सभी ढाल ढाल कर
उसमें कमी न ढूंढ न कोई सवाल कर
तू भी सलाम कर कोई जुमला उछाल कर
है तीरगी जो अपना मुकद्दर तो क्या हुआ
इल्मों अदब से सारे जहां में जलाल कर *
यह हादसा तो…
ContinueAdded by मनोज अहसास on January 22, 2020 at 12:04am — 5 Comments
संचालित कर दया करूणा, स्वार्थ पूर्ति का भाव नहीं
खुद को समर्पित तुझको कर दूँ,
इच्छाऐं मेरी खास नहीं ॥
डोली सजा तेरे दर पर आई, उगने वाली कोइ घास नहीं
हाथ उठाने की गलती ना करना,
नहीं सहुंगी वार कोई ॥
तेरे इशारों पर इत-उत डोलूँ, तूँ कोई सरकार नहीं
क्रोध करो मैं थर्र थर्र कांपू,
डरने वाली मैं नार नहीं ॥
तुम जालाओं शमां की महफिल, होके नशे में धुत कहीं
ढूँढ बहाने झूठ भी बोलो
इतना तुम पर ऐतबार…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on January 21, 2020 at 12:00pm — 2 Comments
समय पास आ रहा है
बहता रहा है समय
घड़ी की बाहों में युग-युग से
पुरानी परम्परा है
घड़ी को चलने दो
समय को बहना है, बहने दो
हँसी और रुदन के बीच भटक-भटक…
ContinueAdded by vijay nikore on January 20, 2020 at 10:30pm — 7 Comments
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