ज़िन्दग़ी का रंग हर स्वीकार होना चाहिये
जोश हो, पर होश का आधार होना चाहिये ||1||
एक नादाँ आदतन खुशफहमियों में उड़ रहा
कह उसे, उड़ने में भी आचार होना…
Added by Saurabh Pandey on October 10, 2011 at 9:46am — 11 Comments
हर साल न जाने कितनी जगहों में रावण का दहन किया जाता है और खुशियां मनाते हुए पटाखे फोड़े जाते हैं, मगर रावण के दर्द को समझने की कोई कोशिश नहीं करता। अभी कुछ दिनों पहले जब दशहरा मनाते हुए रावण को दंभी मानकर जलाया गया, उसके बाद रावण का दर्द पत्थर जैसे सीने को फाड़कर बाहर आ गया। रावण कहने लगा, उसकी एक गलती की सजा कब से भुगतनी पड़ रही है। गलती अब प्रथा बन गई है और पुतले जलाकर मजे लिए जा रहे हैं। सतयुग में की गई गलती से छुटकारा, कलयुग में भी नहीं मिल रहा है।
रावण ने अपना संस्मरण याद करते हुए कहा…
Added by rajkumar sahu on October 10, 2011 at 1:51am — 2 Comments
Added by rajkumar sahu on October 8, 2011 at 11:20pm — No Comments
भारत सरकार की नई आर्थिक नीति के तहत् विगत वर्षों में जिस नीति को जारी किया गया था, उसका परिणाम कुछ ऐसा ही दिखना था. भारत सरकार ने उन क्षेत्रों में विशेष तौर पर भारी मात्रा में पैसों को झोंक दिया है, जिस क्षेत्र में नक्सलवादियों ने अपना फन फैलाया है, परन्तु उन क्षेत्रों में आने वाले पैसों को कम कर दिया है, या नहीं के बराबर दिया है अथवा घोटालों की भेंट चढ़ गया है, जिन क्षेत्रों में या तो नक्सलवादी नहीं हैं अथवा किसी किस्म का आन्दोलन नहीं हो रहा है अथवा जागरूकता की कमी है. बस्तर के जंगलों में…
ContinueAdded by Rohit Sharma on October 7, 2011 at 1:30pm — No Comments
मर्ज़ जिस तरह से लाजिम है दवा से पहले !
Added by Hilal Badayuni on October 7, 2011 at 12:30pm — 3 Comments
Added by siyasachdev on October 6, 2011 at 10:05pm — No Comments
गजब दशहरा आया रे
Added by Yogyata Mishra on October 6, 2011 at 9:02pm — No Comments
Added by Abhinav Arun on October 6, 2011 at 7:23pm — 8 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 6, 2011 at 10:36am — No Comments
नव उत्सव
Added by mohinichordia on October 5, 2011 at 4:13pm — 2 Comments
मन से फक्कड़ संत वह, तन से रहा फ़कीर.
खड़ीं सामने रूढ़ियाँ, लड़ता रहा कबीर..
तेरह-ग्यारह नाप के, रचे हजारों छंद.
दोहे संत कबीर के, करे बोलती बंद..
पूजे लोग कबीर को, ले अँधा विश्वास..
गड़े कबीरा लाज से, दोहे हुए उदास..
थोडा बोलो चुप रहो, सुनो लगा कर कान.
छोटे मुख मै क्या कहूं, कह गए लोग सुजान..
कथ्य कला काया कसक, कागज़ कलम किताब.
सब मिल कर पूरा करे, ज्ञानदेव का ख्वाब..
अविनाश बागडे.
Added by AVINASH S BAGDE on October 5, 2011 at 3:30pm — 5 Comments
एक गीत:
आईने अब भी वही हैं
-- संजीव 'सलिल'
*
आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 5, 2011 at 2:12am — 1 Comment
Added by sanjiv verma 'salil' on October 4, 2011 at 10:11pm — 2 Comments
जिनको चाहा था, वो अनजानों की भीढ़ में खो गए
जो चाहते हें, वो अपनो की भीढ़ में खो गए
हम तनहा थे तनहा ही रह गए
काश भीढ़ में चाहत होती
अपनो का ना सही, अनजानों का साथ तो होता
Added by Sanjeev Kulshreshtha on October 4, 2011 at 8:49pm — 1 Comment
तू ज़रा सोच कभी अपनी अदा से पहले
कहीं मर जाये न इक शख्स क़ज़ा से पहले
इस लिए आज तलक मुझ से ख़ताएँ न हुईं
रोक देता है ज़मीर आ के ख़ता से पहले
हो सके तो कभी देखो मेरे घर में आकर
ऐसी बरसात जो होती है घटा से पहले
ग़मे जानां की क़सम अश्के मोहब्बत की क़सम
थे बहुत चैन से हम दौरे वफ़ा से पहले
वह फ़क़त रंग ही भर्ती रही अफसानों में
सब पहुंच भी गए मंजिल पे सिया से पहले
Added by siyasachdev on October 4, 2011 at 8:03pm — 5 Comments
मन का कसा जाना कसौटी पर मनस-उत्थान है
जो कुछ मिला है आज तक क्या है सुलभ बस होड़ से?
इस जिन्दगी की राह अद्भुत, प्रश्न हैं हर मोड़ से ||1||…
Added by Saurabh Pandey on October 4, 2011 at 1:30pm — 33 Comments
हिंदी को समर्पित दोहे.
Added by AVINASH S BAGDE on October 3, 2011 at 8:06pm — 7 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 3, 2011 at 7:30am — 5 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 2, 2011 at 6:30pm — 3 Comments
सब को मीठे बोल सुनाती रहती हूँ
दुश्मन को भी दोस्त बनाती रहती हूँ॥
कांटे जिस ने मेरी राह में बोये हैं
राह में उस की फूल बिछाती रहती हूँ॥
अपने नग़मे गाती हूँ तनहाई में
वीराने में फूल खिलाती रहती हूँ॥
प्यार में खो कर ही सब कुछ मिल पाता है
अक्सर मन को यह समझाती रहती हूँ
तेरे ग़म के राज़ को राज़ ही रक्खा है
मुस्कानों में अश्क छुपाती रहती हूँ॥
दिल मंदिर में दिन ढलते ही रोज़ "सिया"
आशाओं के…
Added by siyasachdev on October 2, 2011 at 4:59pm — 12 Comments
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