2122 2122 2122 212
" मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई -
( इस मिसरे पर गज़ल कहने की मैने भी कोशिश की है , आपके सामने रख रहा हूँ )
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ग़म सभी बेदार लगते , हर खुशी सोई हुई
जग गई लगती है फिर से, बेकली सोई हुई -
बेदार -जागे हुये, बेकली - अकुलाहट
फैलती ही जा रही बारूद की बदबू जहाँ
बे ख़ुदी में लग रही बस्ती वही सोई…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 30, 2014 at 11:00am — 23 Comments
2122 2122 2122
खूब बोला ख़ुद के हक़ में, कुछ हुआ क्या ?
तर्क भीतर तक तुझे ख़ुद धो सका क्या ?
खूब तड़पा , खूब आँसू भी बहाया
देखना तो कोई पत्थर नम हुआ क्या ?
मिन्नतें क्या काम आई पर्वतों से
तेरी ख़ातिर वो कभी थोड़ा झुका क्या ?
जब बहलना है हमें फिर सोचना क्यों
जो बजायें, साज क्या है, झुनझुना क्या ?
लोग सुन्दर लग रहे थे मुस्कुराते
वो भी हँस पाते अगर, इसमें बुरा क्या…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 9:30am — 40 Comments
2122 2122 2122 212
अश्क़ ऊपर जब उठा, उठ कर सितारा हो गया
जा मिला जब अश्क़ सागर से, वो खारा हो गया
चन्द मुस्कानें तुम्हारी शक़्ल में जो पा लिये
आज दिन भर के लिये अपना ग़ुजारा हो गया
चाहतें जब इक हुईं , तो दुश्मनी भूले सभी
कल पराया जो लगा था, आज प्यारा हो गया
ढूँढ कर तनहाइयाँ हम यादों में मश्गूल थे
रू ब रू आये तो यादों का खसारा हो गया
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 24, 2014 at 6:00pm — 40 Comments
नया कहूँ तो, वैसे तो हर पल होता है
नया जागता तब है जब पिछला सोता है
पर सोचो तो नया , नये में क्या होता है
हर पल पिछला, आगे को सब दे जाता है
आने वाला नया, नया कब रह पाता है
वही गरीबी , भूख , वही है फ़टी रिदायें
वही चीखती मायें , जलती रोज़ चितायें
वही पुराने घाव , वही है टीस पुरानी
वही ज़हर, बारुद, धमाका रह जाता है
आने वाला नया, नया कब रह पाता है
वही अक़्ल के अंधे , जिनके मन जंगी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 21, 2014 at 11:48am — 25 Comments
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
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बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
टीन कनस्तर खाली खाली
माचिस देख निराशा है
लकड़ी की आँखें गीली बस
स्वप्न धूप के देख रही
सीली सीली दीवारों को
मन मन में बस कोस रही
पढा लिखा संकोची बेलन
की पर सुधरी भाषा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
स्वाभिमान बीमार पडा है
चौखट चौखट घूम रहा
गिर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 17, 2014 at 11:00am — 26 Comments
अतुकांत - स्वीकार हैं मुझे तुम्हारे पत्थर
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स्वीकार हैं मुझे आज भी
कल भी थे स्वीकार , भविष्य मे भी रहेंगे
तुम्हारे फेके गये पत्थर
तब भी फल ही दिये मैनें
आज भी दे रहा हूँ , और मेरा कल जब तक है देता रहूँगा
मैं जानता हूँ और मानता हूँ , इसी में तो मेरी पूर्णता है
यही मेरी नियति है , और उद्देश्य भी
चाहे मेरी जड़ों को तुमने पानी दिया हो या नहीं
मैं अटल हूँ , अपने उद्देश्य में
पर आज…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 8, 2014 at 4:30pm — 20 Comments
१२२२ १२२२ १२२२
अकेले पन को कर ले तू , ठिकाना अब
क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब
समय बदला तो वो बदले , नज़र बदली
चलो कर लें निकलने का बहाना अब
वही आंसू , वही आहें , वही ग़म है
कहीं पे ख़त्म हो जाये फ़साना अब
झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है
कहेगा क्या जो जानेगा ज़माना अब
सुनो तितली , सुने पंछी बहारें भी
मेरे उजड़े हुये घर में , न आना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 4, 2014 at 11:00am — 32 Comments
मुहब्बत का तराना तो बहुत गाया हुआ है
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1222 1222 1222 122
न आये होश अब यारों नशा छाया हुआ है
सँभल ऐ बज़्म दिल अब वज़्द में आया हुआ है
ज़रा राहत की कुछ सांसें तो लेलूँ मैं ,कि सदियों
बबूलों को मनाया हूँ तो अब साया हुआ है
हथौड़ा एक तुम भी मार दो लोहा गरम पर
यहाँ मज़हब को ले के खून गरमाया हुआ है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 19, 2014 at 10:10am — 18 Comments
क़सम ले लो उन्हें फिर भी न मैं बुरा कहता
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१२१२ ११२२ १२१२ २२ /११२
वो मेरे दिल में न होते तो मैं ज़ुदा कहता
क़सम ले लो उन्हें फिर भी न मैं बुरा कहता
वो जिसकी ताब ने ज़र्रे को आसमान किया ( ओ बी ओ को समर्पित )
उसे न कहता तो फिर किसको मैं ख़ुदा कहता
रहम दिली पे मुझे खूब है यकीं उनकी
करूँ क्या ? वक़्त मिला ही न मुद्दआ कहता
तवील …
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 10, 2014 at 8:57am — 24 Comments
1222 1222 1222 1222
मेरी हर शायरी में हर ग़ज़ल में आप ही तो हैं
मेरे हर नज़्म की होती पहल में आप ही तो हैं
मुझे तो ज़िन्दगी के रंग सारे ठीक लगते थे
किसी भी रंग के रद्दोबदल में आप ही तो हैं
मैं कितनी भी रखूँ दूरी हमेशा पास में हो आप
मेरे दिल में बना है उस महल में आप ही तो हैं
ये दुनिया है यहाँ ज़ह्राब भी शामिल है आँसू भी
मेरी आँखों से बहते इस तरल में आप ही तो हैं
अलग कब आप हो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 1, 2014 at 8:00am — 27 Comments
गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ
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2122 2122 2122
जब अंधेरों में उजाला देखता हूँ
सच में रोशन भी हुआ क्या, देखता हूँ
मैंने कल काँटा चुभा तो, फूल माना
कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ
लोग इंसानों की भाषा बोल लें पर
गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ
अश्क़ कोई देख लेता है निहानी
तब ख़ुदाई, मैं ख़ुदाया देखता हूँ
ख्वाब सारे थे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 3, 2014 at 8:30pm — 9 Comments
तीर के अपने नियम हैं जिस्म के अपने नियम
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2122 2122 2122 212
तीर के अपने नियम हैं जिस्म के अपने नियम
एक का जो फर्ज़ ठहरा दूसरे का है सितम
कुछ हक़ीक़त आपकी भी सख़्त थी पत्थर नुमा
और कुछ मज़बूतियों के थे हमे भी कुछ भरम
मंजिले मक़्सूद है, खालिश मुहब्बत इसलिए
बारहा लेते रहेंगे मर के सारे फिर जनम
किस क़दर अपनी मुहब्बत मुश्किलों मे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 7:00am — 30 Comments
“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ”
221 2121 1221 212
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अब आग आग है यहाँ हर सू फ़ज़ाओं में
तुम भी जलोगे आ गये जो मेरी राहों में
तिश्ना लबी में और इजाफ़ा करोगे तुम
ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में
वो शह्री रास्ते हैं वहाँ हादसे हैं आम
जो चाहते सकूँ हो, पलट आओ गाँवों में
तू देख बस यही कि है मंजिल…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 6:30am — 28 Comments
आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन
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२१२२ २१२२ २१२२ २१२
आदमी में जानवर भी जी रहा है फ़ित्रतन
आदमी में आदमी को देखना है इक चलन
साजिशें रचतीं रहीं हैं चुपके चुपके बदलियाँ
सूर्य को ढकना कभी मुमकिन हुआ क्या दफअतन ?
पर ज़रा तो खोलने का वक़्त दे, ऐ वक़्त तू
फिर मेरी परवाज़ होगी और ये नीला गगन
बाज, चुहिया खा …
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 15, 2014 at 4:30pm — 28 Comments
“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “
22 22 22 22 22 22 22 2
लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए
मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?
आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की
बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए
हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है
परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए
पत्ते - डाली ही काटे हैं , जड़ें वहीं की वहीं रहीं
इसी लिए तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 8, 2014 at 6:30pm — 25 Comments
छै दोहे – गिरिराज भंडारी
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भाव शिल्प में आ सके , बस उतना ही बोल
मन का दरवाज़ा अभी , मत पूरा तू खोल
यदि कोशिश निर्बाध हो, सध जाता है छंद
घबरा मत , शर्मा नहीं, गलती से मति मंद
गेय बनाना है अगर , छंद , कलों को जान
और रचेगा छंद जब , कल का रखना मान
शिल्प ज्ञान को पूर्ण कर , याद रहे गुरु पाठ
इंसा होके काम तू , मत करना ज्यों काठ
चाहे बातें हों कठिन , रखना भाषा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 6, 2014 at 8:30am — 10 Comments
अच्छा ही करते हैं
कितना भी अपना हो
खून का हो या अपनाया हो प्यार से
मर जाने पर जला देते हैं
मुर्दा शरीर
न जलाएं तो सड़ने का डर बना रहता है
फिर इन्फेक्शन , बीमारी का भय
ज़िंदा लोगों के लिए खतरा ही तो है , किसी का मुर्दा शरीर
और फिर भूलने में भी सहायता मिलती है
कब तक याद करें
कब तक रोयें
जीतों को तो जीना ही है
अच्छा ही करते हैं जला के
कुछ रिश्ते भी तो मुर्दा हो जाते हैं / सकते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 1, 2014 at 4:30pm — 20 Comments
दर सारे दीवार हो गए
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सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गये
भौतिकता की अति चाहत में
सब सिमटे अपने अपने में
खिंची लकीरें हर आँगन में
हर घर देखो , चार हो गये
सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गए
पुत्र कमाता है विदेश में
पुत्री तो ससुराल हो गयी
सब तन्हा कोने कोने में
तनहा सब त्यौहार हो गए
सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 25, 2014 at 8:30pm — 34 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
करेंगे होम ही, लेकर सभी आसार बैठे हैं
जिगर वाले जला के हाथ फिर तैयार बैठे हैं
ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं
जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं
बहारों से कहो जाकर ग़लत तक़सीम है उनकी
कोई खुशहाल दिखता है , बहुत बेज़ार बैठे हैं
समझते हैं तेरे हर पैंतरे , गो कुछ नहीं कहते
तेरे जैसे अभी तो सैकड़ों हुशियार बैठे हैं
तुम्हें ये धूप की गर्मी नहीं लगती यूँ ही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 9:30am — 32 Comments
१-
जहाँ अश्रु की बूँदें
रोने वालों के दुखों को,
दुखों की सान्ध्रता को
कम कर देती है
वहीं पर यही अश्रु बूँदें
रोने वालों से भावनाओं से जुड़े
उनके अपनों को
बेदम भी कर देती है
२-
संयत नहीं हो पाए अगर आप
अपने भाव के साथ
तो वही भाव,
कहे गये शब्दों के अर्थ बदल देता है
और वहीं
अगर आप सही नहीं समझ पाए शब्दों को
तो शब्द,
आपके चहरे से प्रकट
भावों के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 18, 2014 at 2:30pm — 25 Comments
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2016
2015
2014
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