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Sushil Sarna's Blog (835)

तुम्हारी अगुवानी में

तुम्हारी अगुवानी में.... 

ज़रा ठहरो

मुझे पहले

तुम्हारी अगुवानी में

इन कमरों की बंद खिड़कियों को

खोल लेने दो

जब से तुम गए हो

हवा ने भी आना छोड़ दिया

अब तुम आये हो तो

साँसों को

ज़िंदगी का मतलब

समझ आया है

ज़रा ठहरो

पहले मुझे

तुम्हारी अगुवानी में

मन की दीवारों से

सारी उलझनों के जाले

उतार लेने दो

ताकि तुम्हें

बाहर जैसी खुली हवा का

अहसास दिला सकूं

इन घर की दीवारों…

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Added by Sushil Sarna on January 23, 2019 at 2:06pm — 6 Comments

तीन क्षणिकाएं :

तीन क्षणिकाएं :

बन जाती हैं

बूँदें

घास पर

ओस की

जब कभी

रोता है मयंक

कौमुदी के वियोग में

.............................

एक भारहीन अतीत

हृदय कलश में

पिउनी पुष्प सा

सुवासित होता रहा

मैं

देर तक

समर्पित रही

अधर तटों के

क्षितिज पर

.........................

जीत दम्भ की

प्राचीर को तोड़ते

जब

दोनों हार गए

तो

प्रचीर भी

हार गई

जीत की

स्वीकार पलों…

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Added by Sushil Sarna on January 21, 2019 at 7:13pm — 4 Comments

मेरे आसमान का चाँद ...

आसमान का चाँद :

शीत रैन की

धवल चांदनी में

बैचैन उदास मन

बैठ जाता है उठकर

करने कुछ बात

आसमान के चाँद से

मैं अकेली

छत की मुंडेर पर

उसकी यादों में

स्वयं को आत्मसात कर

मांगती हूँ अपना प्यार

आसमान के चाँद से

केसरिया चांदनी में

उसका प्यार

लेकर आया था

मेरे पास

मौन चाहतें

उदास प्यास

अदृश्य समर्पण

कहती रही

मौन व्यथा

देर तक

आसमान के चाँद…

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Added by Sushil Sarna on January 18, 2019 at 5:30pm — 3 Comments

३ क्षणिकाएं :

३ क्षणिकाएं :

तृप्त हो गए

चक्षु

पिघला कर

एक पाषाण से बोझ को

हृदय की

स्मृति श्रृंखला से

.......................

मृत्यु

किसी जीवंत स्वप्न का

यथार्थ है

ज़िंदगी

यथार्थ का

आभास है

प्रीत

आभास में निहित

विश्वास है

...............................

कुछ टूटा

कुछ छूटा

प्रीत पथ के

अंतस से

वेदना साकार हुई

बुत बनी आँखों से …

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Added by Sushil Sarna on January 8, 2019 at 2:30pm — 10 Comments

कलम ....

कलम ....

कहाँ

चल सकती है

बिना बैसाखी के

कागज़ पर

कलम

पडी रहती है

निर्जीव सी

किसी के इंतज़ार में

कलमदान में

कलम

लेकिन

ये न हो तो

आसमान की ऊंचाईयों को

ज़मीन नहीं मिलती

शब्दों को पंख नहीं मिलते

सोच को साकार का माध्यम नहीं मिलता

भाव अन-अंकुरित ही रह जाते हैं

यथार्थ में देखा जाए तो

कलम को बैसाखी की नहीं

अपितु

भाव

बिना कलम की बैसाखी के

मृत समान होते…

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Added by Sushil Sarna on January 7, 2019 at 2:46pm — 2 Comments

विलीन ...


विलीन ...

क्या
मिटते ही काया के
सब कुछ मिट जाता है
शायद नहीं
जीवित रहते हैं
सृष्टि में
चेतना के कण
काया के
मिट जाने के बाद भी
मेरी चेतना
तुम्हारी चेतना से
अवशय मिलेगी
इस सृष्टि में
विलीन हो कर भी
काया के मिट जाने के बाद

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 6, 2019 at 2:09pm — 2 Comments

नए वर्ष की भोर ....

नए वर्ष की भोर  ....

क्षण

दिन, महीने

सब को बांधे

चल दिया

पुराना वर्ष

तम के गहन सागर को पार कर

दूर क्षितिज पर

नव वर्ष के गर्भ से

अंकुरित होते

सूरज की अगवानी करने



अच्छा बीता

बुरा बीता

जैसा भी बीता बीत गया

एक स्वप्न

स्वप्न रहा

एक यथार्थ जीत गया

नए वर्ष की भोर हुई

वर्ष पुराना बीत गया

जीती ख़ुशी

या दर्द जीता

जो भी जीता जीत गया

दर्द पुराना रीत गया

नए वर्ष की…

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Added by Sushil Sarna on January 4, 2019 at 7:49pm — 7 Comments

एक क्षणिका :

एक क्षणिका :

कल
फिर एक कल होगा
भूख के साथ
छल होगा
आसमान होगा
फुटपाथ होगा
आस गर्भ में

बिलखता
कोई पल
विकल होगा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 1, 2019 at 7:32pm — 6 Comments

तीन क्षणिकाएं :

तीन क्षणिकाएं :

दूर होगई

हर बाधा

निजी स्वतंत्रता की

माँ-बाप को

वृद्धाश्रम

भेजकर

...................

रूकावट था

ईश मिलन में

अपनों का

मोह बंधन

देह दाह से

श्वास प्रवाह

मुक्त हुआ

अंश,

अंश में

विलुप्त हुआ

.........................

निकल पड़ी

पाषाणों से लड़ती

कल कल करती

निर्मल जल धार

हर रुकावट को रौंदती

मिलने

अपने सागर से

पाषाणों के

उस…

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Added by Sushil Sarna on December 28, 2018 at 7:56pm — 6 Comments

विरासत ...

विरासत ...

तुम

देर तक

ठहरे रहे

मेरे संग

बरसात में भीगते हुए

जो सोचा था

वो कह न सकी

जो कहा

वो सोचा न था



लबों की जुम्बिश से

यूँ लगता था जैसे

तुमने भी

मुझसे मिलकर

कुछ कहना था शायद

जो कह न सके

मेरी तरह

देर तक

तुम्हारी नज़रों के

लम्स

ख़ामोश अहसासात का

तर्ज़ुमा करते रहे

बरसात होती रही

अलफ़ाज़

इश्क की इबारत गढ़ते रहे

अपनी अपनी खामोशी में

हम…

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Added by Sushil Sarna on December 24, 2018 at 7:51pm — 4 Comments

बे-हया निशानी .....

बे-हया निशानी .....

हिज़्र की रातों में

तन्हा बरसातों में

खामोश बातों में

अश्कों की सौगातों में

मेरे नफ़्स में

साँसों के क़फ़स में

चांदनी बन कसमसाती

धड़कनों से बतियाती

सच, ओर कोई नहीं

सिर्फ, तुम ही तुम हो

बारिशों के पानी में

प्यासी कहानी में

नादान जवानी में

लहरों की रवानी में

अंगड़ाई की बेचैनी में

लबों की निशानी में

सच, ओर कोई नहीं

सिर्फ, तुम ही तुम…

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Added by Sushil Sarna on December 21, 2018 at 5:30pm — 8 Comments

दोहा संकलन :

दोहा संकलन :

नैन करें अठखेलियाँ, स्पर्श करें संवाद।

बाहुबंध में हो गए, अंतस के अनुवाद।१ ।

नैन शरों के घाव का ,अधर करें उपचार।

श्वास-श्वास में खो गयी,स्पर्श हुए साकार।२ ।

नैन विरह में प्रीत के ,बरसे सारी रात।

गूँगे स्वर करते रहे, मौन पलों से बात।३ ।

अद्भुत पहले प्यार का, होता है आनंद।

देह-देह में रागिनीं , श्वास -श्वास मकरंद।४ ।

केशों में जूही सजे , महके हरसिंगार।

नैनों की हाला करे,…

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Added by Sushil Sarna on December 15, 2018 at 5:12pm — 10 Comments

देर तक ....

देर तक ....

तुन्द हवाएँ

करती रही खिलवाड़

हर पात से

हर शाख से

देर तक

रोती रही

बेबस चिड़िया

टूटे अण्डों के पास

देर तक

हो गई शान्त

हवाएँ

प्रकृति से

अपना खिलवाड़ करके

हो गया शान्त

रुदन

चिड़िया का

कुछ न समझ सकी

खेल विधाता का

सृजन से पूर्व संहार

क्या यही है

संसार

बस देखती रही

बिखरे तिनके

टूटे अंडे

स्वप्न के अवशेष

देर तक

सुशील…

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Added by Sushil Sarna on December 12, 2018 at 7:30pm — 6 Comments

रंगहीन ख़ुतूत ...

रंगहीन ख़ुतूत ...

तन्हाई

रात की दहलीज़ पर

देर तक रुकी रही

चाँद

दस्तक देता रहा

मन

उलझा रहा

किसका दामन थामूँ

अर्श के माहताब का

पलकों के ख्वाब का

या ज़ह्न के सैलाब का

सवाल

गर्म लावे से

उबलते रहे

जवाब

तन्हाई में

सुबकते रहे

मैं ज़ीना-ज़ीना

ज़ह्न के सन्नाटों में

उतरती रही

अपनी ही साये में

बिखरती रही

बस रहे गए हाथ में

अर्थहीन अलफ़ाज़ के

रंगहीन ख़ुतूत…

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Added by Sushil Sarna on December 10, 2018 at 2:00pm — 8 Comments

दो क्षणिकाएं :

दो क्षणिकाएं :

पिघल गयी
दे कर आघात
बेदर्दी याद

......................

ढाया कह्र
आफ़ताब ने
ओस की बूँद पर
बिखर गई रेज़ा-रेज़ा
तन्हा-तन्हा
रोया गुलाब

.....................

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on December 7, 2018 at 8:56pm — 10 Comments

ख़्याल ...

ख़्याल ...

मैं सो गयी
इस ख़्याल से
कि तेरा ख्याल भी
साथ मेरे सो जाएगा
मगर
तेरा ख़्याल
तमाम शब्
मेरी नींदों से
खिलवाड़ करता रहा
मैं उनींदी सी सोयी रही
उसके लम्स
मेरे ज़ह्न को
झिंझोड़ते रहे
अंततः
सौंप दिया स्वयं को
ख़्याल बनके
उस ख़्याल के हवाले

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on December 5, 2018 at 6:54pm — 3 Comments

३ क्षणिकाएँ ...

३ क्षणिकाएँ ...

छोटी सी बात

साँय-साँय करती रात

स्मृति पटल को दे गई

अमर

स्पर्श

सौग़ात

........................

व्योम

शून्यता के पर्याय के अतिरिक्त

आश्रय स्थल भी है

उन स्मृतियों का

जो जीती हैं

मिट कर भी

अंत से अनंत तक

.....................................

भला घर

खंडहर में

तब्दील कब होते हैं

जब तक

रस मधुरस में एक…
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Added by Sushil Sarna on December 3, 2018 at 7:00pm — 8 Comments

कुछ क्षणिकाएं जीवन पर :

कुछ क्षणिकाएं जीवन पर :

लो

आज मैं बड़ा हो गया

अपनी नेम प्लेट

लगाकर

बूढ़ी नेमप्लेट

हटा कर

.................

ज़िंदगी

हार गयी

ज़िंदगी से

खून से

खून की दरिंदगी से

..............................

असंभव को

संभव कर दिया

ज़िंदगी को

मरघट की

राह बता कर

............................

वृद्धाश्रम में

माँ -बाप को छोड़

बड़ा उपकार किया

संतान ने

दूध का क़र्ज़

उतार…

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Added by Sushil Sarna on November 29, 2018 at 3:04pm — 10 Comments

चुनौती दे डाली,,,,,,

चुनौती दे डाली ....



खिड़कियों के पर्दों ने

रोशनी के प्रभुत्व को

चुनौती दे डाली

जुगनुओं की चमक ने

अंधेरों के प्रभुत्व को

चुनौती दे डाली

अंतस की पीड़ा ने

आँखों के सैलाबों को

चुनौती दे डाली,........

विरह के अभयारण्य ने

स्मृतियों के भंडारण को

चुनौती दे डाली

बिस्तर की सलवटों ने

क्षणों की चाल को

चुनौती दे डाली

जीत के आसमान को

हार की ज़मीन ने

चुनौती दे…

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Added by Sushil Sarna on November 27, 2018 at 7:28pm — 6 Comments

नया विकल्प ...

नया विकल्प ...

हंसी आती है

जब देखता हूँ

रात को दिन कहने वाले लोग

जुगनुओं की तलाश में

भटकते हैं

हंसी आती है

जब लोग नेता और अभिनेता की तासीर को

अलग-अलग मानते हैं

उनकी जीत के बाद

स्वयं हार जाते हैं

हंसी आती है

उन लोगों पर

जो मात्र हाथों में

किसी पार्टी का परचम उठाकर

स्वयं का अस्तित्व भूल जाते हैं

भूल जाते हैं कि वो

मात्र शोर का माध्यम हैं,

और कुछ नहीं

हंसी आती है…

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Added by Sushil Sarna on November 26, 2018 at 6:45pm — 3 Comments

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