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Sushil Sarna's Blog (808)

नए आयाम ....

नए आयाम ....

मुझे

नहीं सुननी

कोई आवाज़

मैंने अपने अन्तस् से

हर आवाज़ के साथ जुड़े हुए

अपनेपन की अनुभूति को

तम की काली कोठरी में

दफ़्न कर दिया है

अपनेपन का बोध

कब का मिटा दिया है

अपनेपन की सारी निधियाँ

लुटा चुका हूँ

अब तो मैं

किसी स्मृति का अवशेष हूँ

आवाज़ों के मोह बंधन में

मुझे मत बाँधो

हम दोनों के मन

एक दूसरे की अनुभूतियों के

अव्यक्त स्वरों से

गुंजित हैं

आवाज़ों को चिल्लाने दो…

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Added by Sushil Sarna on October 22, 2018 at 7:42pm — 6 Comments

रावण :

रावण :

एक रावण
जला दिया
राम ने
एक रावण
ज़िंदा रहा
मन में
किसी
राम के इंतज़ार में

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 19, 2018 at 9:24pm — 1 Comment

अनकहा ...

अनकहा ...

अभिव्यक्ति के सुरों में

कुछ तो अनकहा रहने तो

अंतस के हर भाव को

शब्दों पर आश्रित मत करो

अंतस से अभिव्यक्ति का सफर

बहुत लम्बा होता है

अक्सर इस सफ़र में

शब्द

अपना अर्थ बदल देते हैं

शब्दों अवगुंठन में

अभिव्यक्ति

मात्र मूक व्यथा का

प्रतिबिम्ब बन जाती है

भावों की घुटन

मन कंदराओं में

घुट के रह जाती है

जीने के लिए

कुछ तो शेष रहने दो

अभिव्यक्ति के गर्भ में

कुछ तो…

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Added by Sushil Sarna on October 17, 2018 at 6:30pm — 6 Comments

पागल मन ..... (400 वीं कृति )

पागल मन ..... (400 वीं कृति )

एक

लम्बे अंतराल के बाद

एक परिचित आभास

अजनबी अहसास

अंतस के पृष्ठों पे

जवाबों में उलझा

प्रश्नों का मेला

एकाकार के बाद भी

क्यूँ रहता है

आखिर

ये

पागल मन

अकेला

तुम भी न छुपा सकी

मैं भी न छुपा सका

हृदय प्रीत के

अनबोले से शब्द

स्मृतियाँ

नैन घनों से

तरल हो

अवसन्न से अधरों पर

क्या रुकी कि

मधुपल का हर पल

जीवित हो उठा

मन हस पड़ा…

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Added by Sushil Sarna on October 15, 2018 at 7:48pm — 14 Comments

३ क्षणिकाएं....

३ क्षणिकाएं....

भावनाओं की घास पर

ओस की बूंदें

रोती रही

शायद

बादलों को ओढ़कर

रात भर

चांदनी

... ... ... ... ... ... .

गोद दिया

सुबह की ओस ने

गुलाब को

महक

तड़पती रही

अहसासों के बियाबाँ में

यादों की नोकों पर

... ... ... .. .. .. .. . .

आकाश

ज़िंदगी भर

इंसान को

छत का सुकून देता रहा

उसे

धूप दी, पानी दिया ,

ईश के होने का

अहसास दिया

मगर

वह रे इंसान

आया जो…

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Added by Sushil Sarna on October 8, 2018 at 7:07pm — 18 Comments

अजनबी लगता है ... ...

अजनबी लगता है ... ...

न वज़ह पूछी

न मौका मिला

वक्त सरकता रहा

कोई अपना

हर लम्हा

अजनबी लगता रहा

किसे आवाज़ दूँ

तारीकियों की क़बा में

उजालों को ओढ़ कर

खो गयी कोई तलाश

टूट गया

उसके साये होने का भ्रम

बावज़ूद ज़िस्मानी करीबी के

वो हर नफ़स

जाने क्यूँ

अजनबी लगता रहा

झूठ है

वो अजनबी है

मेरी तिश्नगी का

समंदर है वो

मेरे हर ख्वाब का

मंज़र है वो

मेरे ज़ह्न में सदियों से…

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Added by Sushil Sarna on October 5, 2018 at 6:07pm — 7 Comments

बेज़ुबान पहचान ...

बेज़ुबान पहचान ...

कितनी खामोशी होती है
कब्रिस्तान में
जिस्मों की मानिंद
कब्रों पर लिखे नाम भी
वक्त के थपेड़ों से
धीरे -धीरे
सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाते हैं


रह जाती है
कब्रों पर
उगी घास के नीचे
ख़ामोशी की कबा में सोयी
अपने -पराये रिश्तों की
बेज़ुबान पहचान

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 3, 2018 at 4:00pm — 10 Comments

शोहरत पर कुछ क्षणिकाएं :

शोहरत पर कुछ क्षणिकाएं :

कुछ रिश्ते

रिश्तों का

दिलाने लगे हैं

अहसास

शायद

शोहरत की चमक से

वो

बनने लगे हैं

ख़ास

.... .... .... .... ....

शोहरत की ऊंचाई से

लगते हैं

सभी बौने

यश की धूप

सांझ से डरती है

जाने

कब उतर जाये

यश के जिस्म से

अहं का मुलम्मा

और रह जाएँ

हाथों में

यथार्थ के

खाली दोने

.... .... .... .... .... ....

दर्पण

अंधे हो जाते हैं

अंधेरों में

यथार्थ…

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Added by Sushil Sarna on September 28, 2018 at 5:00pm — 11 Comments

झूठी चाय ... (लघु रचना )

झूठी चाय ... (लघु रचना )

देख रही थी
सुसंस्कृत सभ्यता
सूखे स्तनों से
अधनंगी संतान को
दूध के लिए
छटपटाते

पिला दी
कागज़ के झूठे कपों में
बची चाय

कर दी क्षुधा शांत
अपने बच्चे की
सुसंस्कृत आवरण में

उबलती
सभ्य झूठ की
मृत संवेदना में लिपटी
पैंदे में बची
झूठी

चाय से

सुशील सरना /२७. ०९,२०१८
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 27, 2018 at 4:36pm — 2 Comments

हैंगर में टंगे सपने ....

हैंगर में टंगे सपने ....

तीर की तरह चुभ जाता है

ये

मध्यम वर्ग का शब्द

और

किसी की हैसियत को

चीर- चीर जाता है

किसी जमाने में

मध्यम वर्ग के लिए

पहली तारीख

किसी पर्व से कम न थी

पहली तारीख तो आज भी है

मगर

उसके साथ खुशियां कम

और चिन्ताएँ अधिक हैं

पहली तारीख

दिल चाहता है

आज का सूरज सो जाए

रात कुछ लम्बी हो जाए

पानी,बिजली, टेलीफोन,मोबाईल के

भुगतानों की…

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Added by Sushil Sarna on September 26, 2018 at 7:00pm — 12 Comments

कुछ क्षणिकाएं :

कुछ क्षणिकाएं :

पिघलती नहीं

अब

अंतर्मन की व्याकुलता

आँखों से

स्वार्थ का चश्मा

सोख लेता है

सारा दर्द

................

सीख लिया है

आँखों ने

खारा पानी पीना

संवेदनहीन

हो गया है

वर्तमान

.........................

झीलें नहीं होती

भावों की

आँखों में

मैच कर लेता है

हर अंतरंग का रंग

कांटेक्ट लेंस

.....................

मुद्दत हो गई

खुद से मुलाकात हुए

शायद…

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Added by Sushil Sarna on September 21, 2018 at 2:36pm — 19 Comments

पति ब्रांड ...

पति ब्रांड ...

बिखरे बाल 

हाथ में झोला 

कई जगह से 

पैबंद लगा 

कुर्ते का चोला 

न जाने ऊपर वाले को 

क्या सूझा कि 

पत्नी के अखाड़े में 

पति को पेल दिया 

अच्छे…

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Added by Sushil Sarna on September 18, 2018 at 1:00pm — 10 Comments

परिणाम....

परिणाम....



मेरी पलक का स्वप्न

तुमसे नेह का

परिणाम था

मेरी कमीज पर

लगा दाग

तृषा और तृप्ति की

जंग का

परिणाम था

मेरे अधरों पर

छूटा हुआ

असहाय सा स्पर्श

हिय कंदराओं में पलते

भावों का

परिणाम था

ओस की बूँद में

परिलिक्षित होता

सुंदरता का सागर

तुमसे असीम स्नेह का

परिणाम था

क्यूँ तुमने ऐसा किया

अपनी रातों में

मेरी रातों को समाहित कर

मुझसे…

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Added by Sushil Sarna on September 14, 2018 at 8:33pm — 4 Comments

ओस कण ...

ओस कण ....

ओ भानु !
कितने अनभिज्ञ हो तुम
उन कलियों के रुदन से
जो रोती रही
तुम्हारे वियोग में
रात भर
सन्नाटे की चादर ओढ़े
और बैरी जग ने
दे दिया
उन आँसूओं को
ओस कणों का नाम

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 11, 2018 at 7:56pm — 6 Comments

भ्रम ... (दो क्षणिकाएं )

भ्रम ... (दो क्षणिकाएं )

लूट कर
नारी की
अस्मत
पुरुष ने
कर लिया
स्वयं को
नग्न
तोड़ दिया
उसकी नज़र में
पुरुषत्व का
भ्रम

2.
कोहराम मच गया
जब दम्भी
पुरुषत्व के प्रत्युत्तर में
हया
बेहया

हो गयी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 7, 2018 at 3:43pm — 10 Comments

शान्ति ....

शान्ति ....

वर्तमान के पृष्ठों पर

विध्वंसकारी स्याही से

भविष्य का सृजन करने वालो

होश में आओ

विनाश की कालिख़ से

कहीं आने वाले कल का

दम न घुट जाए

तुम

नए युग के निर्माण के लिए

संगीनों को

खून की स्याही में डुबोकर

आने वाले कल का

शृंगार करते हो

और हम

पवन के पृष्ठों पर

ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॐ शान्ति

के सुवासित सन्देश से

नव युग के निर्माण का

आह्वान करते हैं

विपरीत…

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Added by Sushil Sarna on September 5, 2018 at 7:02pm — 7 Comments

जन्म :

जन्म :

अंत के गर्भ में
निहित है
जन्म
या
जन्म के गर्भ में
निहित है अंत
अनसुलझा सा
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि मुनि और
संत

योनि रूप है
देह
मुक्ति रूप
अदेह
किस रूप को
जन्म कहें
किसे रूप को
अंत
अनसुलझा सा ये
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि ,मुनि और
संत

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 3, 2018 at 3:04pm — 4 Comments

मिश्रित दोहे -2

मिश्रित दोहे -2

आसमान में चाँद का, बड़ा अजब है खेल।

भानु सँग होता नहीं, कभी चाँद का मेल।।

नैन मिलें जब नैन से, जागे मन में प्रीत।

दो पल में सदियाँ मिटें, बने हार भी जीत।।

बंजारी सी प्यास ने, व्यथित किया शृंगार।

अवगुंठन में प्रीत के, शेष रहे अँगार।।

आखों से रिसने लगा, बेआवाज़ अज़ाब।

अश्कों के सैलाब में, डूब गए सब ख्वाब।।

रिश्तों से आती नहीं, अपनेपन की गंध।

विकृत सोच ने कर दिए, दुर्गन्धित…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 2, 2018 at 3:00pm — 10 Comments

नैन कटोरे ..

नैन कटोरे ..

नैन कटोरे
कब छलके
खबर न हुई
बस
ढूंढता रहा
भीगे कटोरों से
अपना मयंक
उस मयंक में

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on August 31, 2018 at 1:14pm — 10 Comments

तेरे मेरे मुक्तक :मात्रा आधारित....

तेरे मेरे मुक्तक :मात्रा आधारित....

1.

ख़्वाब फिर महके हैं सावन की रात में।

जवाँ दिल बहके ..हैं सावन की रात में।

बारिश की बूंदों में .उल्फ़त की आतिश-

जज़्बात दहके हैं ..सावन ..की रात में।

2.

सालों साल उनकी खबर नहीं .आती ।

कभी ख़्वाबों में वो नज़र नहीं  आती ।

ऐसे   रूठे वो   कि . रूठ  गयी  साँसें -

दिल के शहर में अब सहर नहीं आती।

3.

खुशी के पर्दे  में  क्यूँ   नमी .बनी   रहती है।

हर जानिब इक गम की चादर तनी रहती है।…

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Added by Sushil Sarna on August 28, 2018 at 2:15pm — 28 Comments

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