कल से आगे .........
महाराज दशरथ राजसभा की औपचारिक परम्परा के बाद सभा कक्ष में बैठे हुये थे। सभा में कुछ नहीं हुआ था, बस सबने देवर्षि द्वारा किये गये भविष्य कथन पर हर्ष व्यक्त किया था, सदैव की भांति चाटुकारिता की थी। इसी में बहुत समय व्यतीत हो गया था। सारे सभासद यह दर्शाना चाहते थे कि वे ही सबसे अधिक शुभेच्छु है महाराज के, वे ही सबसे बड़े स्वामिभक्त हैं। यह किस्सा नित्य का था। चाटुकारिता सभासदों की नसों में लहू से अधिक बहती थी। महाराज भी इससे परिचित थे किंतु उन्हें इसमें आनन्द…
Added by Sulabh Agnihotri on July 15, 2016 at 8:58am — 1 Comment
कल से आगे .....
‘‘बाबा मैं भी गुरुकुल जाऊँगी।’’ आठ साल की मंगला पिता की पीठ पर लदी, उसके गले में हाथ पिरोये लड़िया कर बोली। मंगला का पिता मणिभद्र अवध का एक श्रेष्ठी (सेठ) है। उसकी अनाज की ठीक-ठाक सी आढ़त है। बहुत बढ़िया तो नहीं फिर भी अच्छा खासा चल रहा है उनका धंधा। मंगला उसकी दुलारी पुत्री है। दुलारी हो भी क्यों न, आखिर पाँच पुत्रों के बाद तमाम देवी-देवताओं की मनौती के बाद मंगला प्राप्त हुई है।
सेठ बाजार में अपनी गद्दी पर बैठे हिसाब-किताब में मगन थे। मंगला की बात…
Added by Sulabh Agnihotri on July 14, 2016 at 9:00am — 1 Comment
कल से आगे ...
देवर्षि नारद तो पर्यटन के पर्याय ही माने जाते हैं किंतु उनका यह पर्यटन निष्प्रयोजन कभी नहीं होता। प्रत्येक यात्रा के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है।
इस बार वे अयोध्या आये थे। उनके आते ही मंथरा को उनके आगमन की सूचना मिल गयी। वे महारानी कैकेयी के कक्ष में ही गये थे, जहाँ महाराज विश्राम कर रहे थे। देवर्षि का स्वभाव मंथरा जानती थी इसलिये उसके जिज्ञासु हृदय में उथल-पुथल मचने लगी। विवशता थी कि महाराज की उपस्थिति में वह बिना बुलाये कक्ष में प्रवेश…
Added by Sulabh Agnihotri on July 13, 2016 at 5:25pm — 1 Comment
पूर्व से आगे ....
देवर्षि की योजना अंततः इंद्र की समझ में आ गयी।
देवों ने उसके अनुरूप कार्य करना भी आरंभ कर दिया।
योजना यह थी कि देव, लोकपाल, यक्ष, नाग आदि रावण का नाश नहीं कर सकते क्योंकि पितामह ब्रह्मा ने इनके विरुद्ध रावण को अभय दिया हुआ है। उसके नाश का कार्य मानवों द्वारा ही सम्पादित हो सकता है और आर्यावर्त के मानवों में उससे युद्ध के प्रति उत्साह नहीं है। अतः योजना यह थी कि बिना इस बात की प्रतीक्षा किये कि रावण कब स्वर्ग पर आक्रमण किये अभी से दक्षिणावर्त के वनवासियों को…
Added by Sulabh Agnihotri on July 12, 2016 at 10:33am — 1 Comment
पूर्व से आगे ...
ब्रह्मा द्वारा दौहित्रों को आशीर्वाद क्या प्राप्त हुआ, सुमाली मानो मन मांगी मुराद मिल गयी थी। उसकी आँखों के सामने विष्णु के हाथों हुई विकट पराजय से लेकर रावणादि के समक्ष पितामह के आगमन तक की सारी घटनायें जैसे सजीव होकर तैर रही थीं। अब उसका एक ही लक्ष्य था अपना खोया गौरव पुनः प्राप्त करना और इस उद्देश्य की प्राप्ति में पहला सोपान था कुबेर से लंका दुबारा प्राप्त करना।
वह जानता था कि अभी वह शक्ति द्वारा कुबेर को परास्त नहीं कर सकता था किंतु इससे वह निराश नहीं था।…
Added by Sulabh Agnihotri on July 12, 2016 at 10:00am — 3 Comments
कल से आगे ............
देवराज इंद्र के दरबार में मौन छाया था।
कोई गंभीर विषय जैसे ताला बनकर सबके होठों पर लटका हुआ था।
इंद्र समेत तेंतीसों देव अपने-अपने आसनों पर विराजमान थे पर सब शान्त थे।
मौन के इस साम्राज्य को तोड़ने का कार्य किया देवर्षि ने जो अपनी वीणा गले में लटकाये, खरताल बजाते, नारायण-नारायण जपते अचानक आकर उपस्थित हो गये।
‘‘नारायण-नारायण ! देवेन्द्र क्या विपत्ति आ गयी जो ऐसा मौन पसरा हुआ है ? न अप्सरायें हैं, न नृत्य संगीत की महफिल है - आखिर क्या हो…
Added by Sulabh Agnihotri on July 2, 2016 at 10:29am — 1 Comment
कल से आगे ...............
‘‘यह तो आपने बड़ी उल्टी बात कह दी। हमें समझाइये।’’ इस बार बड़ी देर से चुप बैठा विभीषण बोला।
‘‘देखो वरदान क्या है - किसी का हित करना, किसी की सहायता करना।
‘‘किसी का हित या सहायता तीन प्रकार से हो सकती है पहला भौतिक। किसी को धन की आवश्यकता हुई तो मेरे पास प्रचुर है मैंने उसे उसकी आवश्यकतानुसार दे दिया। पर अगर कोई माँग बैठे कि मुझे त्रिलोक का सारा धन मिल जाये तो मैं भला कैसे दे दूँगा। समझ गये ?’’
‘‘जी।’’
‘‘दूसरा शारीरिक या ज्ञान संबंधी।…
Added by Sulabh Agnihotri on July 1, 2016 at 7:46pm — 2 Comments
.............. कल से आगे
‘‘उठो वत्स रावण !
‘‘तुम दोनो भी उठो कुंभकर्ण और विभीषण !’’
आवाज सुन कर तीनों अचंभित हुये, यह किसकी आवाज थी। यह तो पहले कभी नहीं सुनी थी। कितनी गंभीर फिर भी कितनी मृदु।
‘‘आँखें खोलो वत्स ! अपने प्रतितामह से साक्षात नहीं करोगे ?’’
तीनों ने आँखें खोल दीं। सामने सच में ब्रह्मा खड़े हुये उन्हें आवाज दे रहे थे। ठीक वही छवि जैसी मातामह ने बताई थी। कमर में गेरुआ अधोवस्त, कंधे पर यज्ञोवपीत अत्यंत गौरवर्ण, लंबा कद, लंबी सी धवल दाढ़ी और सुदीर्घ…
Added by Sulabh Agnihotri on June 29, 2016 at 9:39am — 1 Comment
.............................. कल से आगे
‘‘महाराज थोड़ा सा राजभोग और लीजिये, मैंने अपने हाथों से बनाया है।’’ कैकेयी ने अनुरोध किया।
दशरथ और कौशल्या भोजन पीठिकाओं पर बैठे थे। कैकेयी परोस रही थी। दासियाँ पीछे हाथ बाँधे खड़ी थीं।
‘‘नहीं महारानी बहुत हो गया। अब नहीं खा पाऊँगा।’’
‘‘बहुत कैसे हो गया। थोड़ा सा तो लेना ही पड़ेगा।’’ कैकेयी ने जबरदस्ती राजभोग की एक कटोरी और रखते हुये कहा।
‘‘ले भी लीजिये न महाराज। आप तो राजभोग का ढाई सेर का पतीला एक साँस में खाली कर डालते…
Added by Sulabh Agnihotri on June 28, 2016 at 9:37am — 2 Comments
................... कल से आगे
‘‘हाँ ऐसे ! बहुत सुन्दर कुंभकर्ण !’’ सुमाली रावण और कुंभकर्ण को योग का अभ्यास करवा रहा था। कुंभकर्ण को अभी यहाँ आये तीन साल ही हुये थे। इस समय वह 8 साल का हो गया था। वह अभी से शारीरिक रूप से चमत्कारिक रूप से वृहदाकार था। केवल वृहदाकार ही नहीं था, अविश्वसनीय बल का स्वामी भी था। अभी से वह अच्छे-भले मनुष्य को परास्त कर देने की सामथ्र्य रखता था। उसकी माता के लिये उसे गोदी में उठाना क्या हिलाना तक संभव नहीं था। स्पष्ट दिख रहा था कि आने वाले समय में उसके समान…
ContinueAdded by Sulabh Agnihotri on June 27, 2016 at 10:04am — 3 Comments
कल से आगे ..........................
‘‘नहीं चाहिये मुझे आपसे न्याय।’’ महंत जी फुफकार उठे।
‘‘बैठ जाइये महंत जी।’’ कैकेयी के स्वर के तीखेपन से महंत जी सकपका गये, वे बैठ गये।
‘‘हाँ महामात्य जी आप आगे पूछिये।’’
‘‘हाँ तो क्या नाम बताया तुमने अपना ?’’
‘‘जी गोकरन।’’
‘‘तो गोकरन ! पकवान भी ऐसे ही बताये होंगे जो कभी तुम्हारी माँ ने देखे भी नहीं होंगे ?’’
‘‘जी महन्त जी ने ही हलवाई भेजे थे, उन्होंने ही बनाया था सब कुछ। मुझे तो बहुत सी चीजों के नाम ही नहीं…
Added by Sulabh Agnihotri on June 26, 2016 at 9:26am — No Comments
कल से आगे ................
‘‘घर तुमने किससे क्रय किया था ?’’
‘‘किसी से नहीं !’’
‘‘मतलब ? जब खरीदा नहीं था तो फिर तुम्हारा कैसे हो गया ?’’
‘‘पुरखों से मिला था। हम लोग कई पीढ़ियों से उसी में रह रहे हैं।’’
‘‘कितने लोग रहते हैं सब कुल उस घर में।’’
‘‘जी ... जी ... ?’’
‘‘अरे कितने लोग रहते हैं उस घर में ? सीधा सा तो प्रश्न है।’’
‘‘जी ! हम पति-पत्नी, हमारे तीन बेटे, तीन बहुयें, दो अनब्याही कन्यायें और ....’’ वह उँगलियों पर कुछ हिसाब जोड़ता रहा, फिर बोला -…
Added by Sulabh Agnihotri on June 25, 2016 at 9:40am — No Comments
‘‘महामात्य ! यह मैं क्या सुन रही हूँ ?’’ कैकेयी के स्वर में असंतोष झलक रहा था।
कैकेयी को विवाह होकर अयोध्या आये हुये 8 बरस बीत गये थे। अब वह सत्रह वर्षीय किशोरी से एक परिपक्व साम्राज्ञी में परिवर्तित हो गयी थी। समय के साथ-साथ दशरथ के हृदय और अयोध्या के प्रशासन पर भी उसकी पकड़ सुदृढ़ होती गयी थी। उसे समाज और राजनीति की गुत्थियाँ सुलझाने में आनन्द आने लगा था। इस समय वह अपने प्रासाद में अयोध्या के महामात्य जाबालि के साथ बैठी हुई थी।
‘‘क्या महारानी जी ? मैं समझ नहीं पाया।’’ आमात्य जाबालि…
Added by Sulabh Agnihotri on June 24, 2016 at 9:05am — No Comments
कैकसी तीन साल के रावण को लेकर आई हुई थी। साल भर का कुंभकर्ण भी उसकी गोद में था। विवाह के बाद पहली बार वह आई थी। ऐसा नहीं था कि इस बीच उसका इन सबसे कोई सम्पर्क नहीं रहा था। सौभाग्य से विश्रवा का आश्रम सुमाली के ठिकाने से एक प्रहर की दूरी पर समुद्र में एक छोटे से टापू पर था। प्रत्येक दो-तीन माह के अन्तराल पर प्रहस्त आदि में से कोई भी भाई नाव लेकर जाता था और उससे मिल आता था। सुमाली कभी भी मिलने नहीं गया था, उसे डर था कि कहीं विश्रवा उसे पहचान न लें। कैकसी भी मुनि के साथ व्यवहार में पूर्ण…
ContinueAdded by Sulabh Agnihotri on June 23, 2016 at 11:07am — 2 Comments
केकय नरेश अश्वपति ब्रह्मज्ञानी के रूप में विख्यात थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इस संबंध में उनसे राय लेने आते रहते थे। कहते तो यहाँ तक हैं कि उन्हें पशु-पक्षियों की बोलियाँ भी आती थीं। एक कथा प्रचलित है कि एक बार अश्वपति महारानी के साथ बगीचे में टहल रहे थे। बगीचे में पक्षियों की चहचहाहट एक स्वाभाविक ध्वनि होती है। अचानक महाराज हँस पड़े। महारानी असमंजस से पूछ बैठीं -
‘‘महाराज मैंने कोई हास्यास्पद बात तो नहीं की जो आप हँस रहे हैं।’’
महाराज ने हाथ से उन्हें शान्त रहने का इशारा किया और बड़े…
Added by Sulabh Agnihotri on June 22, 2016 at 9:38am — 4 Comments
21.06.2016 कल से आगे .....
महाराज दशरथ की आयु प्रायः 35 वर्ष की हो चुकी थी। महारानी कौशल्या से विवाह किये 11 वर्ष गुजर गये थे किंतु अयोध्या को अभी तक उत्तराधिकारी प्राप्त नहीं हुआ था। एक दिन सोते हुये अचानक वे चैंक कर उठ बैठे। उन्होंने अजीब स्वप्न देखा था। उनकी माता इन्दुमती और पिता अज उन्हें प्रताड़ित कर रहे थे कि वे अभी तक पितृ ऋण नहीं चुका पाये हैं। माता की तो वस्तुतः उन्हें कतई याद ही नहीं थी, बस चित्रों में ही उन्हें देखा था। पिता बताते थे कि बहुत छोटे बालक थे तभी माता स्वर्गवासी…
ContinueAdded by Sulabh Agnihotri on June 21, 2016 at 10:14am — 5 Comments
माल्यवान और सुमाली रक्ष संस्कृति के प्रणेता हेति और प्रहेति के प्रपौत्र थे।
रक्ष संस्कृति का प्रादुर्भाव यक्ष संस्कृति के साथ एक ही समय में एक ही स्थान पर हुआ था। पर कालांतर में उनमें बड़ी दूरियाँ आ गयी थीं। यक्षों की देवों से मित्रता हो गयी थी और रक्षों की शत्रुता। रक्ष या दैत्य आर्यों से कोई भिन्न प्रजाति हों ऐसा नहीं था किंतु आर्य क्योंकि देवों के समर्थक थे (पिछलग्गू शब्द प्रयोग नहीं कर रहा मैं) इसलिये उन्होंने देव विरोधी सभी शक्तियों को त्याज्य मान लिया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर…
Added by Sulabh Agnihotri on June 20, 2016 at 8:39am — 4 Comments
पूर्व-पीठिका
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-1-
‘‘ए ! कौन हो तुम लोग ? कैसे घुस आये यहाँ ? बाग खाली करो अविलम्ब !’’ यह एक तेरह-चैदह साल की किशोरी थी अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे क्रोध से चिल्ली रही थी। क्रोध होना स्वाभाविक भी था। तकरीबन चार-पाँच सौ घुड़सवारों ने उसके बाग में डेरा डाल दिया था। जगह-जगह घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे थे, बाकी तो खुले ही हुये थे किंतु उनके सबके सामने आम की पत्तियों के ढेर लगे थे। तमाम डालियाँ टूटी पड़ी थीं। बहुत से लोग पेड़ों पर चढ़े हुये आम नीचे गिरा रहे…
ContinueAdded by Sulabh Agnihotri on June 19, 2016 at 7:53pm — 3 Comments
गजल
बहर - 212 1212 1212 1212
काफिया - अर, रदीफ - मियाँ
पत्थरों के जंगलों से भर गए शहर मियाँ
दादी-नानी सँग गए वो सांस लेते घर मियाँ
कल को एक बार आसमान से वो झांक लें !
किस तरह मिला सकोगे पुरखों से नजर मियाँ ?
मत उखड़ ! यही लिहाज कर लिया, बहुत किया
जो नजर बचा के दूर से गए गुजर मियाँ
आग का उफान कौन सा ये इन्कलाब है
लाए किसके वास्ते दहकती दोपहर मियाँ
हमको क्या पता हमारा तो कभी दखल न था
तुम…
Added by Sulabh Agnihotri on August 13, 2015 at 8:33pm — 2 Comments
गजल
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बहर - 212 1212 1212 1212
काफिया - अर, रदीफ - मियाँ
किस्म-किस्म के जहर हैं हमपे बेअसर मियाँ
उम्र बीती आदमी का झेलते जहर मियाँ
दर्द बाँटने अगर तू आया है अवाम का
आसमान से जरा जमीन पर उतर मियाँ
सब तुम्हारे गुम्बदों की शान से सिहर गए
झोपड़ी मेरी तबाह कर गए कहर मियाँ
चाह मंजिलों की थी न जीत की ललक रही
वक्त ही गुजारना था, तय किए सफर मियाँ
अंधड़ों से लड़ता एक दीप मिल ही जाएगा
देख अपने…
Added by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 6:39pm — 17 Comments
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