2222 2222 2222 222
सुनते सुनते गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को
कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1
बात कहूँ तो बन जाएगी जग की यार हँसाई को
जैसे तैसे झेल रहा हूँ जालिम की रूसवाई को /2
दिन तो बीते आस में यारो शायद चलती राह मिले
किन्तु पुराने खत पढ़ काटा रातों की तनहाई को /3
वो साहिल की रेत देख कर चाहे यूँ ही लौट गया
ख्वाबों में देखेगा लेकिन दरिया की गहराई को /4
भर कर जेबें रोज चढ़े है मस्ती को सैलानी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2016 at 12:05am — 16 Comments
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खूब परहेज भी करता है दिखाने के लिए
है जरूरत भी मगर प्यार जमाने के लिए /1
सोच मत सिर्फ बहाना है बहाने के लिए
वक्त है पास कहाँ तुझको मनाने के लिए /2
शौक पाला जो सितम हमने उठाने के लिए
आ गई धूप भी राहों में सताने के लिए /3
देख हालात को खुद ही तू जगा ले अब तो
कौन आएगा तुझे और जगाने के लिए /4
पढ़ सके तू जो अगर रोज किताबों सा पढ़
है नहीं बात कोई मुझ में छुपाने के लिए /5
कैसी किस्मत थी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 29, 2016 at 10:55am — 12 Comments
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भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता है धवल जो दोस्ती का रंग /1
सुना है खूब भाता है तुझे तो रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है छटा सुन सादगी का रंग/2
किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3
महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4
अगर बँटना ही है तुझको…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2016 at 10:41am — 16 Comments
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हर हद को ही तोड़ा है बरसात के पानी ने
किस बात को माना है बरसात के पानी ने /1
उस वक्त तो सूखा था जीवन क्या हरा होता
अब गाँव डुबाया है बरसात के पानी ने /2
ये जश्न की बेला है सूखे की विदाई की
नदिया को भी न्योता है बरसात के पानी ने /3
मत खेत की बोलो तुम भाग्य ही ऐसा था
घर द्वार भी रौंदा है बरसात के पानी ने /4
कल रात…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 20, 2016 at 7:00am — 14 Comments
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सुख की बात यही है केवल म्यानों में तलवारें हैं
बरना घर के ओने कोने दिखती बस तकरारें हैं /1
खुद ही जानो खुद ही समझो उस तट क्या है हाल सनम
इस तट आँखों देखी इतनी बस टूटी पतवारें हैं /2
रोज वमन विष का होता है नफरत का दरिया बहता
यार अम्न को लेकिन बिछती हर सरहद पर तारें हैं /3
रोज निर्भया हो जाती है रेपिष्टों का यार शिकार
गाँव नगर …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2016 at 5:55am — 11 Comments
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सियासत काम कम करती मगर तकरार जादा अब
बुढ़ापा चढ़ गया है या पड़ी बीमार जादा अब /1
जवानी क्या खुदा ने दी फरामोशी चढ़ी सर पर
लगे कम माँ की ममता जो सनम का प्यार जादा अब /2
बहुत था शोर पर्दे में रखे हैं खूब अच्छे दिन
उठा पर्दा तो ये जाना पड़ेगी मार जादा अब /3
कहा हाकिम ने है यारो चलेगी सम विषम जब से
हुए खुश यार निर्माता बिकेंगी कार जादा अब /4
जहर लगती है मुझको तो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 30, 2015 at 11:00am — 4 Comments
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प्यार कहते हैं कि हर चाव बदल देता है
एक मरहम की तरह घाव बदल देता है /1
अश्क लेकर भी किसी को न तू रोते दिखना
कहकहा आँख का बरताव बदल देता है /2
झील ठहरी है बहुत वक्त से कंकड़ मारो
एक कंकड़ ही तो ठहराव बदल देता है /3
अजनवी सोच के यूँ दूर न बैठो हमसे
मिलना जुलना ही मनोभाव बदल देता है /4
माँ की ममता से मिली सीख ये हमको…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 22, 2015 at 11:55am — 22 Comments
2212 1211 2212 12
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पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं
कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1
रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे गमों से रोज ही दो चार हम भी हैं /2
माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने
तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं /3
तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर
नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /4
जब से कहा है आपने बेताज हो…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 21, 2015 at 11:30am — 20 Comments
ग़ज़ल
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आग लगाई क्या अपनों ने अरमानों के मेले में
बैठ गया जो आँसू लेकर मुस्कानों के मेले में /1
कर के बहाना सब मरहम का दुखती रग को छेड़ेंगे
घाव खोल कर बैठ न जाना पहचानों के मेले में /2
छोड़ गए हैं अपने अकेला एक अपाहिज बोझ समझ
अब्दुल्ला सा मन होता है अनजानों के मेले में /3
जब तक जेब भरी थी अपनी घर आगन सब अपना था
जेबें खाली तो बदला सब …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 16, 2015 at 11:43am — 20 Comments
नेताई गजल
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सदन में आप गर आओ वतन की बात मत करना
सहोदर जैसे आपस में गबन की बात मत करना /1
उड़ाए हमने चुपके से लँगोटों के लिए सच है
शहीदों के हों नंगे तन कफन की बात मत करना /2
कभी तुम बोल देते हो कभी हम बोल देते हैं
चुनावी बात सबकी ही वचन की बात मत करना /3
दिखा करते हैं फूलों सा मगर फितरत है शूलों सी
गले आपस में मिलने पर चुभन की बात मत करना…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 14, 2015 at 11:36am — 13 Comments
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भला सच यार कब वैसे चुनावी आस को होना
चुराकर आम के सपने सदा गुम खास को होना /1
हकीकत लोकराजों की जो नौकर है तो नौकर है
भले कागज की बातों में है मालिक दास को होना /2
लड़ाई आज सत्ता की बदलती रंग गिरगिट ज्यों
बहाना फिर फसादों का वही इतिहास को होना /3
कहाँ तक हम करें बातें बना सौहार्द्र जीने की
खपा इतिहास में माथा खतम विश्वास को होना /4
सुना कल शीत की बरखा बहाकर ले गई सबकुछ
मगर …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 10:51am — 2 Comments
4/
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खुद के होने का जरा भी वो पता देता नहीं
अब किसी को भी गुनाहों की सजा देता नहीं /1
देवता तो थे बहुत पर ढल गए बुत में सभी
क्यों कहूँ तुझसे की उनको क्यों सदा देता नहीं /2
मर रही इंसानियत है और रिश्ते तार तार
क्यों कयामत का भरोसा अब खुदा देता नहीं /3
हर तरफ विष देखता हूँ सुर असुर सब हैं लिए
क्या समंदर मथ भी लें तो अब सुधा देता नहीं /4
वक्त का साया रहे जब मत निठल्ले बैठना
वक्त…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 7, 2015 at 11:41am — 8 Comments
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बेसदा बस्ती की रस्मों को निभाना था हमें
इसलिए अपनी जबानों को कटाना था हमें /1
या तो कातिल उस नगर में या बचे सब गैर थे
बोझ अर्थी का स्वयं की खुद उठाना था हमें /2
आग का दरिया मुहब्बत ताप आए हम भी यूँ
जो दिलों में जम गया वो हिम गलाना था हमें /3
भर गए सुनते थे वो ही चल दिए जो रीत कर
प्रीत घट में से भला फिर क्या बचाना था हमें /4
रास्ता यूँ तो सफर का जानते …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 6, 2015 at 5:30am — 8 Comments
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डरे जो तिमिर से भला क्या मिलेगा
लड़ो जुगनुओं का सहारा मिलेगा /1
हमेशा नहीं यूँ अँधेरा मिलेगा
भले ही रहे कम उजाला मिलेगा /2
कहावत है तम की जहाँ बस्तियाँ हों
वहीं दीपकों का बसेरा मिलेगा /3
चलो ढूँढते हैं उसे रात भर अब
कहीं तो तिमिर का किनारा मिलेगा /4
भटक जाओ गर तुम गगन को निहारो
बताता दिशा इक वो तारा मिलेगा /5
फकत जागने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 5, 2015 at 6:00am — 14 Comments
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बारिशों के हादसे जब दामनों तक आ गए
दुख मेरी तन्हाइयों की बस्तियों तक आ गए /1
याद मुझको तो नहीं हैं ठोकरें मैंने भी दी
क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए /2
सोचकर निकले थे बाहर कुछ उजाला ढूँढ लें
घर के तम लेकिन हमारे रास्तों तक आ गए /3
नाव जर्जर और पतवारें रहीं सब अनमनी
क्या बताएं किस तरह हम साहिलों तक आ गए /4
हो रही है माँग हर शू जाति क्या औ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2015 at 10:47am — 14 Comments
1222 1222 1222 1222
नहीं है धार कोई भी समय की धार से बढ़कर
नहीं है भार कोई भी समय के भार से बढ़कर
भरे हैं धाव इसने ही बड़े छोटे सदा सब के
नहीं मरहम बड़ा कोई समय के प्यार से बढ़कर
उलझ मत सोच कर बल है भुजाओं में जवानी का
न देगा पीर कोई भी समय की मार से बढ़कर
अगर दोगे समय को मान…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 12, 2015 at 10:40am — 3 Comments
2222 2222 2222 222
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रोने का तुम नाम न लेना रीत बनाओ हँसने की
रोने धोने में क्या रक्खा होड़ लगाओ हँसने की /1
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माना पाँव धँसे हैं कब से पार उतरना मुश्किल है
पीड़ाओं के इस दलदल में गंग बहाओ हँसने की /2
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परपीड़ा में सुख मत खोजो ये पथ घेरे वाला है
दूर तलक जो ले जाती है राह बताओ हँसने की /3
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पोंछो आँसू बाढ़ में इसकी खुशियों के घर बहते हैं
निर्जन में भी यारो बस्ती…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 15, 2015 at 10:30am — 12 Comments
2222 2222 2222 222
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माना केवल रात ढली है हमको उनका दीद हुए दर्शन
पर लगता है सदियाँ गुजरी अपने घर में ईद हुए /1
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हमने तो कोशिश की वो भी हमसे जुड़ते यार मगर
रिश्तों के पुल बरसों पहले उनसे ही तरदीद हुए /2 रद्द करना / तोडना
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भीड़ जुटाई…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2015 at 10:54am — 19 Comments
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नई ताब दे नई सोच दे जो पुरानी है वो निकाल दे
रहे रौशनी बड़ी देर तक वो दिया तू अब यहाँ बाल दे
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है तमस भरी कि हवस भरी नहीं कट रही ये जो रात है
तू ही चाँद है तू ही सूर्य भी मेरी रात अब तो उजाल दे
***
जो नहीं रहे वो तो फूल थे ये जो बच रहे वो तो खार हैं
मेरे पाँव भी हुए नग्न हैं मेरी राह अब तू बुहार दे
***
न तो पीर दे न चुभन ही दे मेरे पाँव में ये…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2015 at 10:46am — 10 Comments
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पत्थरों के बीच रहकर देवता बनकर दिखा
दीन मजलूमों के हित में इक दुआ बनकर दिखा
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कर रहा आलोचना तो सूरजों की देर से
है अगर तुझमें हुनर तो दीप सा बनकर दिखा
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चाँद पानी में दिखाकर स्वप्न दिखलाना सहज
बात तब है रोटियों को तू तवा बनकर दिखा
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देख जलता रोम नीरो सा बजा मत बंशियाँ
जो हुए बरबाद उनको आसरा बनकर दिखा
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है सहोदर तो लखन …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2015 at 10:57am — 9 Comments
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