विषाक्त उजाले :
कितना लालायित था
बाहर की दुनिया से
मिलने के लिए
दम घुटने लगा था मेरा
अंदर ही अंदर
गर्भ के
घुप अँधेरे में
रोशनी से
आलिंगनबद्ध होने के लिए
जब से
गर्भ से निकला हूँ
जी रहा हूँ
अपनी ही अंतस में
चुपचाप सा
यही सोचते हुए
क्या इन्हीं
विषाक्त
उजालों के लिए
जीव
गर्भ के
अन्धकार का
त्याग करता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 27, 2018 at 6:18pm — 6 Comments
अदेह रूप ...
सर्वविदित है
देह का शून्यता में
विलीन होना
निश्चित है
मगर
अदेह चेतना
सृष्टि में व्याप्त
चैतन्य कणों से
निर्मित
आदि अंत से मुक्त
अनंत
अभिश्रुति की
अभिव्यंजना है
मुझे तुमसे मिलने के लिए
उन अदृश्य कणों से निर्मित
धागों की अदेह को
अपने चेतन में
अवतरित करना होगा
मैं
मेरी देह सी
अतृप्त नहीं रह सकती
मैं
तुमसे
अवश्य मिलूंगी
अपने
अदेह रूप…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 25, 2018 at 11:59am — 10 Comments
अमर हो गयी .. (लघु रचना )
स्मृति गर्भ में
एक शिला
साकार हो उठी
भाव अस्तित्व
उदित हुआ
शिला की दरारों से
आसक्ति
अदृश्यता की घाटियों से
प्रवाहित हो
स्मृतियों वीचियों पर
अक्षय पल सी
सुवासित हो
अमर हो गयी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 24, 2018 at 1:27pm — 8 Comments
जाने के बाद ... लघु रचना
गुज़र गयी
एक आंधी
तुम्हारे स्पर्शों की
मेरी देह की ख़ामोश राहों से
समेटती हूँ
आज तक
मोहब्बत की चादर पर
वो बिखरे हुए लम्हे
तुम्हारे
जाने के बाद
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 23, 2018 at 4:00pm — 12 Comments
कुछ क्षणिकाएं :
1
शुष्क काष्ठ
अग्नि से नेह
असंगत आलिंगन
परिणति
मूक अवशेष
................
2
त्वचा हीन
नग्न वृक्ष
अवसन्न खड़े
अकाल अंत की
आहटों के मध्य
.............................
3
ईश्वर
किसी देवता का
सर्जन नहीं
गढ़त है वो
इंसान की
..........................
4
करता रहा
प्रतीक्षा
एक शंख
नाद के लिए
चिर निद्रा में सोये
मरघट में…
Added by Sushil Sarna on June 21, 2018 at 4:04pm — 14 Comments
बातें ...
लम्हों की आग़ोश में
नशीली सी रातों की
शीरीं से अल्फ़ाज़ की
महकती बातें
बे हिज़ाब रातों की
शोख़ी भरी शरारतों की
तन्हाई में भीगी
बरसाती बातें
आँखों के सागर में
जज़्बात की कश्ती में
यादों के साहिल पे
सुलगती बातें
जिस्म की पनाहों में
अनदेखी राहों में
दिल की गुफ़ाओं में
बहकती बातें
मोहब्बत के मौसम में
आँखों की शबनम में
ग़ज़ल की करवटों…
Added by Sushil Sarna on June 21, 2018 at 12:30pm — 14 Comments
कुछ क्षणिकाएं(6) :
1
नैनों का मौन
आमंत्रण
परिणाम
अभ्यंतर में
हुआ आभूषित
मौन
समर्पण
...................
2
पलकों के घरौंदों में
स्वप्न बोलते हैं
नैन
प्रभात में
यथार्थ
तौलते हैं
........................
3
चलो
हो गई मुलाकात
स्पर्शों की आंधी में
बीत गयी रात
हो गई प्रभात
............................
4
प्रेम
मौन अभिव्यक्ति…
Added by Sushil Sarna on June 18, 2018 at 4:30pm — 9 Comments
Added by Sushil Sarna on June 18, 2018 at 3:30pm — 10 Comments
बरसात ....
मेघों की गर्जना
चपला की अटखेलियां
फुहारों में भीगी तेज हवाएँ
वातायन के पटों का शोर
करवटों की रात
लो फिर आ गई
वस्ल की यादें लिए
फिर
आज बरसात
वो चेहरे से उसका
बूंदे हटाना
लटें सुलझाना
हौले से मुस्कुराना
सच कहाँ भूलेगी
वो शर्मीली सी बात
कि याद ले आई
फिर
आज बरसात
बारिश की बूंदों की
अजब सी अगन
स्पर्शों की आहट से
घबराया मन
न और हां की हो गयी…
Added by Sushil Sarna on June 15, 2018 at 7:19pm — 9 Comments
कुछ क्षणिकाएं :
शर्मिन्दा हो गई
कुर्सी
बैठ गया
एक
नंगा इंसान
चुनावी साल में
वादों की गठरी लिए
.....................
शरमा गया
इंद्रधनुष
देखकर
धरा पर
इतनी
सफेदपोश
गिरगिटों को
..........................
सफ़ेद भिखारी
मांग रहे
भीख
छोटे भिखारी से
दिखा के
आश्वासनों की
चुपड़ी रोटी
.......................
आ गया
फिर से सावन
टरटराने लगे हैं…
Added by Sushil Sarna on June 13, 2018 at 6:46pm — 5 Comments
उम्र के पन्नों पर....
उम्र के पन्नों पर
कितनी दास्तानें उभर आयी हैं
पुरानी शराब सी ये दास्तानें
अजब सा नशा देती हैं
हर कतरा अश्क का
दास्ताने मोहब्बत में
इक मील का पत्थर
नज़र आता है
रुकते ही
वक़्त
ज़हन को
हिज़्र का वो लम्हा
नज़्र कर जाता है
जब
किसी अफ़साने ने
मंज़िल से पहले
किसी मोड़ पर
अलविदा कह दिया
नगमें
दर्द की झील में नहाने लगे
किसी के अक्स
आँखों के समंदर
सुखाने…
Added by Sushil Sarna on June 8, 2018 at 6:24pm — 10 Comments
नमक सी जलन .....
मत समेटो
हृदय में
शूल सी स्मृतियों को
ये
जब तक रहेंगी
अपने लावे से
विगत पलों को
सुलगाती रहेंगी
इसलिए
रोको मत
बह जाने दो
इन
नमक सी जलन देती
स्मृतियों की खारी ढेरियों को
आंसूओं के
प्रपात में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 25, 2018 at 8:37pm — 7 Comments
क्षणिकाएं :
१.
तूफ़ान का अट्टहास
विनाश का आभास
काँपती रही
लौ दिए की
झील की लहरों पर
देर तक
आंधी के साथ हुए
जीवन मृत्यु के संघर्ष को
याद करके
२.
श्वास
नितांत अकेली
देह
चिता की सहेली
जीवन
अनबुझ पहेली
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 23, 2018 at 6:37pm — 9 Comments
Added by Sushil Sarna on May 21, 2018 at 5:45pm — 1 Comment
Added by Sushil Sarna on May 17, 2018 at 1:01pm — No Comments
हरजाई ....
ये
वो गालियां हैं
जहां
अंधेरों में
सह्र होती है
उजाले उदास होते हैं
पलकों में
खारे मोती
होते हैं
बे-लिबास जिस्म,
लिपे -पुते चेहरे,
शायद
बाजार में
बिकने की
ये पहली जरूरत है
इक रोटी के लिए
सलवटों से खिलवाड़
रौंदे गए जिस्म की
बिलखती दास्ताँ हैं
भोर
एक कह्र ले कर आती है
पेट की लड़ाई
शुरू हो जाती है
दिन ढलने के साथ -साथ…
Added by Sushil Sarna on May 16, 2018 at 11:30am — 2 Comments
नहीं जानती ...(350 वीं कृति )
नहीं जानती
तुम किस धागे से
रिस्ते हुए ज़ख्मों पर
ख़्वाबों का
पैबंद लगाओगे
नहीं जानती
तुम किस चाशनी में डुबोकर
ज़ख़्मी लम्हों को
मेरी आँखों की हथेली पर
सजाओगे
नहीं जानती
तार तार हुए
ख़्वाबों के लिबास
कैसे बेशर्मी को
नज़रअंदाज़ कर पाएंगे
मगर
जानती हूँ
तुम फिर से
मेरे
संग-रेज़ों में तकसीम ख़्वाबों को
अपने शीरीं…
Added by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 5:30pm — 4 Comments
यौवन रुत ...
चक्षु आवरण पर
प्रत्यूष का सुवासित स्पर्श
यौवन रुत की प्रथम अंगड़ाई का
प्रतीक था
आँखों की स्मृति वीचियों पर
अखंडित लालसाओं की तैरती नावें
बहुबंध में सिमटी
अमर्यादित अभिलाषाओं की
प्रतीक थी
मौन अनुबंधों के अंतर्नाद
निष्पंद देह में
उन्माद क्षणों के चरम अनुभूति के
प्रतीक थे
मयंक मुख पे
केश मेघों की अठखेलियाँ
कामनाओं की अनंत तृषा की
प्रतीक…
Added by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 4:59pm — 10 Comments
डूब गए ...
तिमिर
गहराने लगा
एक ख़ामोशी
सांसें लेने लगी
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
तैर रहे थे
निष्पंद से
कुछ स्पर्श
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
सुलग रहे थे
कुछ अलाव
चाहतों की
अदृश्य मुंडेरों पर
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
डूब गए
कई जज़ीरे
ख़्वाबों के
खामोश से तूफ़ान में
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 3:21pm — 2 Comments
संग दीप के ...
जलने दो
कुछ देर तो
जलने दो मुझे
मैं साक्षी हूँ
तम में विलीन होती
सिसकियों की
जो उभरी थी
अपने परायों के अंतर से
किसी की अंतिम
हिचकी पर
मैं साक्षी हूँ
उन मौन पलों की
जब एक तन ने
दुसरे तन को
छलनी किया था
मैं
बहुत जली थी उस रात
जब छलनी तन
मेरी तरह एकांत में
देर तक
जलता रहा
मैं साक्षी हूँ
उस व्यथा की
जो…
Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 2:30pm — 4 Comments
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