ये ,कैसा घर है ....
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं
दो वक्त की रोटी
उजालों की आस
हर दिन एक सा
और एक सी प्यास
चेहरे की लकीरों में
सदियों की थकन
ये बाशिंदे
अपनी आँखों में सदा
इक उदास
शहर लिए रहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां सब
बेघर रहते हैं
उजालों की आस में
ज़िन्दगी
बीत जाती है
रेंगते रेंगते
फुटपाथ पे
साँसों से
मौत जीत जाती है
बेरहम सड़क है…
Added by Sushil Sarna on January 29, 2017 at 7:30pm — 13 Comments
ये अश्क ...
नहीं होता
चेहरा
दुःख का
कोई
नहीं होती उम्र
मौत की
कोई
ज़िन्दगी
खुशियों का
आसमां नहीं
ग़मों की
धूप है
ज़िन्दगी की धूप में
ख़ुशी तो बस
छाया का नाम है
पल भर का सुकून है
फिर गमों की
दास्तान है
यादों के
खंज़र हैं
कुछ आँखों से
बाहर हैं
कुछ आँखों के
अंदर हैं
कह गए
बह के
और
कुछ अभी
दिल में…
Added by Sushil Sarna on January 24, 2017 at 6:18pm — 6 Comments
देर तक .....
देर तक
मैं मयंक को
देखती रही
वो वैसा ही था
जैसा तुम्हारे जाने से
पहले था
बस
झील की लहरों पे
वो उदास अकेला
तैर रहा था
देर तक
मैं उस शिला पर
बैठी रही
जहां हम दोनों के
स्पर्शों ने सांसें ली थीं
शिला अब भी वैसी ही थी
जैसी
तुम्हारे जाने से पहले थी
बस
मैं
और थे मेरी देह में
समाहित
तुम्हारे अबोले स्पर्श
देर तक …
Added by Sushil Sarna on January 20, 2017 at 1:30pm — 6 Comments
इंतज़ार ...
छोड़िये साहिब !
ये तो बेवक़्त
बेवज़ह ही
ज़मीं खराब करते हैं
आप अपनी उँगली के पोर
इनसे क्यूं खराब करते हैं
ज़माने के दर्द हैं
ज़माने की सौगातें हैं
क्योँ अपनी रातें
हमारी तन्हाईयों पे
खराब करते हैं
ज़माने की निगाह में
ये
नमकीन पानी के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
रात की कहानी
ये भोर में गुनगुनायेंगे
आंसू हैं,निर्बल हैं
कुछ दूर तक
आरिजों पे फिसलकर
खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे
हमारे दर्द…
Added by Sushil Sarna on January 18, 2017 at 6:34pm — 13 Comments
माटी का दिया ......
जलता रहा
इक दिया
अंधेरों में
रोशनी के लिए
तम
अधम
करता रहा प्रहार
निर्बल लौ पर
लगातार
आख़िर
हार गया वो
धीरे धीरे
कर लिया एकाकार
अंधकार से
रह गया शेष
बेजान
माटी का दिया
फिर जलने को
अन्धकार में
गैरों के लिए
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 15, 2017 at 4:24pm — 8 Comments
स्मृति के आँगन में ...
तुम सवालों को
सवाल क्योँ नहीं रहने देती
अपनी मौनता से
तुम नैन व्योम में बसी
अतृप्त तृष्णा से
अपने कपोलों पर
क्योँ गीले काजल से श्रृंगार
कर अनुत्तरित प्रश्नों का
उत्तर चाहती हो
क्योँ सुरभित मधु पलों को
अपने गीले आँचल में लपेट कर
स्मृति अंकुरों को
प्रस्फुटित होने का अवसर
देना चाहती हो
क्योँ मृदु चांदनी में
उदास निशा से
टूटे तारे से माँगी इच्छा के…
Added by Sushil Sarna on January 12, 2017 at 1:00pm — 10 Comments
अधूरी प्रीत से ....
लब
खामोश थे
पलकें भी
बन्द थीं
कहा
मैंने भी
कुछ न था
कहा
तुमने भी
कुछ न था
फिर भी
इक
अनकहा
नन्हा सा लम्हा
आँखों की हदें तोड़
देर तक
मेरी हथेली पे बैठा
मुझे
मिलाता रहा
मेरे अतीत से
अधूरी तृषा में लिपटी
अधूरी प्रीत से
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 10, 2017 at 2:22pm — 4 Comments
हिम बसंत ...
प्रथम प्रणय का
प्रथम पंथ हो
हिय व्यथा का
तुम ही अंत हो
शिशिर ऋतु का
शिशिरांशु हो
विरह पलों का
शिशिरांत हो
शीत पलों की
मधुर सिहरन हो
नयन सिंधु का
मौन कंपन्न हो
मधु पलों में
मेरे प्रिय तुम
मधु स्मृतियों का
हिम बसंत हो
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 9, 2017 at 8:40pm — 8 Comments
सच ,लगने लगा पराया ...
न मेरा
आना झूठ था
न तेरा
जाना झूठ था
दूर जाने का मुझसे
बस बहाना
झूठ था
जीती रही
जिस शब् को
हकीकत मानकर
सहर की शरर पे सोया
वो
अफ़साना झूठ था
बादे सबा
में लिपटी
सदायें
यूँ तो आयी थीं
तेरे बाम से मगर
उसमें छुपा
हिज़्रे ग़म को
बहलाने का
तराना झूठ था
इक झूठ
तूने जिया
इक झूठ
मैंने जिया
न सच
तुझे भाया…
Added by Sushil Sarna on January 6, 2017 at 2:00pm — 16 Comments
ख़्वाब का माहताब ....
तुम्हारे
अंधेरों में
मेरे हिस्से के
उजाले
तुम्हारी मुहब्बत की
गिरफ़्त में
बे-आवाज़
सिसकते रहे
और तुम
मेरी चश्म से
शीरीं शहद से
लम्हों को
कतरों में समेटे
बहते रहे
मेरा ज़िस्म
तुम्हारे लम्स
की हज़ारों
खुशबुओं के
कफ़स में
सांस लेता रहा
आफ़ताब की शरर ने
उम्मीद की दहलीज़ को
हक़ीक़त की
आतिश से
ख़ाक में…
Added by Sushil Sarna on January 5, 2017 at 1:30pm — 17 Comments
चांदनी ... (क्षणिका)
तमाम शब्
माहताब
अर्श पर
मुझे
घूरता रहा
रकीबों सा
निचोड़ता रहा
मन की झील पर
मैं
उसकी
चांदनी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 3, 2017 at 5:40pm — 23 Comments
ज़िन्दगी ..... (क्षणिका )
हो गया
खामोश बशर
उलझनें
सुलझाने के
फेर में
एक
मकड़ी से
शर्मिंदा
हो गयी
ज़िन्दगी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 30, 2016 at 2:50pm — 7 Comments
अपनों से ...
सपने
अक्सर
तारों की तरह
गिरकर
टूट जाते हैं
चीख उठते हैं
आँखों में
ख़ामोश आंसू
जब
अपने
अपनों से
रूठ जाते हैं
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 29, 2016 at 5:57pm — 6 Comments
कह्र ...
थक गयी है
लबों पे हंसी
शायद लब
आडम्बर का ये बोझ
और न सहन कर पाएंगे
संग अंधेरों के
ये भी चुप हो जाएंगे
कफ़स में कहकहों के
दर्द बेवफाई का
ये छुपा न पाएंगे
बावज़ूद
लाख कोशिशों के
ये
गुज़रे हुए
लम्हों की आतिश से
बंद पलकों से
पिघल कर
तकिये को
गीला कर जाएंगे
सहर की पहली शरर पे
रिस्ते ज़ख्मों का
कह्र लिख जाएंगे
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 28, 2016 at 5:45pm — 14 Comments
अक्षय गीत ....
मैं हार कहूँ या जीत कहूँ ,या टूटे मन की प्रीत कहूँ
तुम ही बताओ कैसे प्रिय ,मैं कोई अक्षय गीत कहूँ
मैं पग पग आगे बढ़ता हूँ
कुछ भी कहने से डरता हूँ
पीर हृदय की कह न सकूं
बन दीप शलभ मैं जलता हूँ
शशांक का विरह गीत कहूँ,या रैन की निर्दयी रीत कहूँ
तुम ही बताओ कैसे प्रिय , मैं कोई अक्षय गीत कहूँ
अतृप्त तृषा है. घूंघट में
अधरों की हाला प्यासी है
स्वप्न नीड़ पर नयनों के…
Added by Sushil Sarna on December 22, 2016 at 6:00pm — 19 Comments
उसके दरबार में ……………
पूजा कहीं दिल से की जाती है
तो कहीं भय से की जाती है
कभी मन्नत के लिए की जाती है
तो कभी जन्नत के लिए की जाती है
कारण चाहे कुछ भी हो
ये निश्चित है कि
पूजा तो बस स्वयं के लिए की जाती है
कुछ पुष्प और अगरबती के बदले
हम प्रभु से जहां के सुख मांगते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
उसकी चौखट पे अपना सर झुकाते हैं
अपनी इच्छाओं पर
अपना अधिकार जताते हैं
इधर उधर देखकर
प्रभु के परम भक्त होने पर इतराते…
Added by Sushil Sarna on December 19, 2016 at 6:31pm — 12 Comments
ज़ंग .....
गलत है
मिथ्या है
झूठ है
कि
उदासी
अकेलेपन की दासी है
अकेलेपन के किनारों पर
नमी का अहसास होता है
क्या अकेलापन
अंतस का
दर्द से
परिचय कराने का पर्याय है ?
जब कुछ नहीं होता
तो अकेलापन होता है
अकेलेपन में
स्व से परिचय होता है
अपने वज़ूद से
पहचान होती है
ज़िदंगी करीब आती है
अपना पराया समझाती है
अकेलेपन में
पीछे छूटे लम्हात
साथ निभाते हैं…
Added by Sushil Sarna on December 17, 2016 at 4:45pm — 6 Comments
इंतज़ार ....
भोर की पहली किरण
सर्द हवा
आधी जागी
आधी सोयी
तू गर्म शाल में लिपटी
बालकनी के कोने में
हाथों में
कॉफी का कप लिए
यक़ीनन
मेरे आने का
इंतज़ार करती होगी
कितना
रुमानियत भरा होगा
वो मंज़र
तेरी आँखों में
मेरे आने के
इंतज़ार का
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 16, 2016 at 1:01pm — 8 Comments
बड़ी अच्छी लगती है ...
हिज़्र में
तन्हाई
बड़ी अच्छी लगती है
यादों की
परछाई
बड़ी अच्छी लगती है
कभी कभी
रुसवाई भी
बड़ी अच्छी लगती है
आँखों की
गहराई
बड़ी अच्छी लगती है
साँसों की
गरमाई
बड़ी अच्छी लगती है
हुस्न की
अंगड़ाई
बड़ी अच्छी लगती है
दिल में
दिल की
समाई
बड़ी अच्छी लगती है
मगर
हक़ीक़ी ज़िन्दगी…
ContinueAdded by Sushil Sarna on December 15, 2016 at 9:19pm — 6 Comments
इक लफ्ज़ मुहब्बत का ....
लम्हों की गर्द में लिपटा
इक साया
ओस में ग़ुम होती
भीगी पगडंडी के
अनजाने मोड़ पर
खामोशियों के लबादे ओढ़े
किसी बिछुड़े साये के
इंतज़ार में
इक बुत बन गया
धुल न जाएँ
सर्दी की बारिश में
कहीं लंबी रातों के
पलकों के लिहाफ़ में
अधूरे से ख़्वाब
वो धीरे धीरे
कोहरे की लहद में
खो गया
इक लफ्ज़
मुहब्बत का
खामोश ही सो गया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 14, 2016 at 9:03pm — 8 Comments
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