सपने !!!!!!!
सुहाने से
सँजोये थे जो मन के
भीतर आवरणो की परतों मे
सँजोया और सींचा था
नव पल्लव देख
मन झूम उठा था
खुशी के अंकुर भी
फूट पड़े थे
उड़ान की आकांक्षा मे
पंखों को कुछ फड़फड़ा कर
ज्यों हुआ उड़ने को आतुर !!!!
आह !!
पंख कतर दिये किसने ?
धराशायी हुआ
स्वर भी बाधित हुआ
जख्म लगे
अभिलाषी मन
परित्यक्त सा
कुलबुला उठा
अश्रुओं ने साथ छोड़ा
धैर्य ने भी…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 27, 2013 at 12:30pm — 26 Comments
पथिक !!!
चल दिये कहाँ ?
क्या कंटक पथ देख
विचलित हो उठे तुम
चिलचिलाती धूप की तपन मे
सुलग उठे तुम
ढूँढने छाँव, तड़प कर
चल दिये कहाँ ?
स्वप्नों की टूटी गागर
व्यथित आकुल मन
हारी हुईं अभिलाषायेँ
बिखरा कर तुम
ढूँढने नव उजास
चल दिये कहाँ ?
रेतीले !!!!
ये गर्द भरे रास्ते
मरुथल मे जल की बूंद
मृग मरीचिका मे कस्तूरी
ढूँढने नन्दन वन
चल दिये कहाँ ?
अप्रकाशित…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 1:45pm — 21 Comments
उमा दादी ने जब बड़े प्यार से सभी कन्याओं को चरण धो धो कर जमीन पर बिछे आसन पर बैठाया और रोली कुमकुम का टीका लगा कर सभी कन्याओं को चुनरी ओढ़ाई और भोजन परोस कर वही बगल मे हाथ जोड़ कर बैठ गईं - “भोजन जिमों मेरी माता रानी ।"
अचानक उनके बीच मे बैठी उमा दादी की पोती उठ खड़ी हुई - “ आप गंदी हो दादी ! आज कितने प्यार से खिला रही हो रोज तो माँ को कहती हो बेटी पैदा करके रख दी । अब बताओ अगर बेटियाँ नहीं पैदा होती तो तुम कन्या कहाँ से लाती और किसको खिलाती, कैसे कन्या पूजन करती…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 20, 2013 at 1:00pm — 29 Comments
अपना टूटा चश्मा विनोद की ओर बढ़ाते हुए जमना लाल जी ने कहा – “बेटा मेरा चश्मा कई दिनों से टूटा है , और ये पर्चा लो दवाइयाँ भी “.............। विनोद झुँझला गया – “ क्या पिता जी रोज रोज खिट खिट करते रहते हो मेरे पास इन सब फालतू कामों के लिए बिलकुल समय नहीं है , मै नौकरी करूँ उसकी टेंशन झेलूँ कि आपकी समस्या देखूँ ।” जमना लाल जी कहते रह गए कि – “ बेटा ............. । ”
पर बेटे ने न सुना न उनकी ओर देखा बस अपनी धुन मे चलता चला गया । आज वे थोड़ी थोड़ी लकड़ियां ला ला कर इकट्ठी कर रहे थे । बेटा और…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 16, 2013 at 7:00pm — 35 Comments
एक शाम
उदास सी थी
निस्तेज , निशब्द , निस्पंदित
निहारती सी
दूर तलक शून्य मे।
कर्तव्य विहीन, कर्म विहीन
अचेतन जड़ हो गए जो
पुकारती सी
दूर तलक शून्य मे ।
नेपथ्य से कुछ सरसराहट
वैचारिक या मौन
विजयी पर प्रसन्न नहीं
श्रोता सी
दूर तलक शून्य मे ।
अन्तर्मन के क्रंदन को
छिपा मुख मण्डल पर खेलती जो
अलौकिक आभा थी
दूर तलक शून्य मे ............... ।
अप्रकाशित…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 13, 2013 at 5:39pm — 26 Comments
अंधकार गहरा चला अब
सितारों से भर चला नभ
चाँद हौले से मुस्का दिया
अप्रतिम अलौकिक सुंदरता ...................
सुंदरी की खुली अलकें सी
चाँदनी भी छिटकने लगी
कण कण दुग्ध मे नहाया सा
प्रफुल्लित हो चला मन
लगता था जो पराया सा ........................
तप्त धरा सी वो
पाई जिसने शीतलता
नीरवता तोड़ता विहग
आवरण जो असत्य का ,
अंधकार वो अहम का
हौले हौले…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 5, 2013 at 7:00pm — 24 Comments
“दादी ये पराया घर क्या होता है ?” नन्ही जूही ने मचलते हुए दादी से पूछा । दादी ने प्यार से समझते हुए कहा “जब तुम बड़ी हो जाओगी खूब पढ़ लिख जाओगी तब हम तुम्हारा ब्याह एक अच्छे से राजकुमार से कर देंगे वो तुम्हें अपने घर ले जाएगा, उसी को कहते है पराया घर ।” उसने पूछा - " तो दादी जैसे आप भी पराए घर मे हो और माँ भी । बुआ को भी आपने पराये घर भेज दिया ।” दादी ने स्वीकृति मे सिर हिला दिया । उसकी उत्सुकता शांत नहीं हुई थी उसने फिर पूछा - “क्या भैया भी पराए घर जाएगा , दादा जी भी गए थे और…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 3, 2013 at 6:00pm — 32 Comments
शब्द नहीं आते है
देख दुर्दशा
सुन कर व्यथा
गूँजता करुण क्रंदन
न पिघला मानव मन
कुछ कहने को शब्द नहीं आते है ....
लुट रही अस्मिता
मिट रहा सुहाग
छिन रहे माँओ के लाल
रक्तरंजित हो रही धरा
व्यथा सुनाने को शब्द नहीं आते है .......
जन्मांध न होकर भी जो
बन चुके धृतराष्ट्र
हलक तक शुष्क हो चला
जिह्वा चिपक गई तालु से
पुकार लगाने को शब्द नहीं आते हैं…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 12:30pm — 16 Comments
बड़े साहब की गाड़ी जैसे ही चौराहे पर सिग्नल के लिए रुकी एक चौदह पंद्रह वर्षीय बालक हाथ मे कपड़े का टुकड़ा लिए उनकी गाड़ी की तरफ लपका और फटाफट शीशे चमकाने लगा । शायद ये लोग कुछ पैसों की खातिर अपनी जान को जोखिम मे डाले फिरते है । क्या करे पेट की आग और गरीबी की मार कुछ भी करवाती है । बड़े साहब ने नई मर्सिडीज़ खरीदी थी उस पर उस बच्चे के गंदे हाथ देख तिलमिला गए , उतरे और एक झन्नाटे दार थप्पड़ उसके कोमल गाल पर जड़ दिया , - “ यू रासकल्स ! गंदी नाली के कीड़े ! तेरी हिम्मत कैसे हुई गाड़ी को हाथ लगाने की ।”…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 12:00pm — 30 Comments
रात के बारह बज रहे थे , रोहित नशे हालत मे घर मे दाखिल हुआ उसकी भी पत्नी साथ मे ही थी । पिता दुर्गा प्रसाद कडक कर बोले – “ ये क्या तरीका है घर मे आने का , कैसे बाप हो तुम जिसको बच्चों का भी ख्याल नहीं । और ये तुम्हारी पत्नी , इसको भी कोई कष्ट नहीं ।” रोहित तमतमा उठा न जाने क्या क्या उनको कह डाला । वे बेटे के पलटवार के लिए तैयार न थे वह भी बहू और बच्चों के सामने । सिर झुकाये सुनते रहे कुछ बोल नहीं पाये । एक वाक्य ही उन्होने अपनी पत्नी से कहा ,” हमारी परवरिश मे खोट है । ” वे कमरे मे जाकर…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 29, 2013 at 12:34pm — 24 Comments
बहू बनाम बेटी
राधा जी घर मे अकेली थी , बेटा बहू के साथ उसकी बीमार माँ को देखने चला गया था । उसने कुछ पूछा भी नहीं बस आकार बोला – माँ हम लोग जरा कृतिका की माँ को देखने जा रहे है शाम तक आ जाएँगे । आपका खाना कृतिका ने टेबल पर लगा दिया है टाइम पर खा लेना , तुम्हारी दवाएं भी वही रखी है खा लेना भूलना मत ,और दरवाजा अच्छे से बंद कर लेना ।” कहता हुआ वो कृतिका के साथ बाहर निकल गया । पर बहू ने एक शब्द भी न कहा । “क्या वो कहती तो क्या मै मना कर देती । बहुयेँ कभी बेटी नहीं बन सकती आखिर…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 26, 2013 at 12:30pm — 21 Comments
उषा आज फिर देर से आई । मै कुछ पूछने को लपकी ही थी कि उसका चेहरा देख रुक गई, वह सिर पर पल्लू रखे चेहरे को छुपाने का प्रयास कर रही थी । वह अंदर आई और चुपचाप बर्तन उठाये और धोने बैठ गई । उसकी एक आँख पूरी काली थी चेहरे पर और गर्दन पर कई निशान थे । कुछ न पूछना ही मुझे ठीक लगा । काम निपटा कर वह अंदर आई । मुझसे रहा न गया मैंने पूंछ ही लिया – “उषा क्या बात है आज फिर तुम्हारे पति ने तुम्हें .......” बात पूरी भी न हो पाई कि वह बीच मे ही काट कर बोली – “ नहीं भाभी ये तो देवता का परसाद है ,…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 23, 2013 at 6:00pm — 36 Comments
वह पुराना बरगद
कहते है वह गवाह
उन शूर वीरों का
जो मर मिटे देश पर
इसकी आन औ शान
बचाने की खातिर
जाने कितने यूं ही
लटका दिये गये उन
शाखों पर जो देती
थीं दुलार प्यार व
हरे पत्तों की ठंडी
छाँव, ताजी हवा तब
वह बरगद जवां था
मजबूती से खड़ा हो
देखता सोचता था
अधर्मी पापियों एक
दिन वो भी आयेगा
जब तू भी यूं ही
मिटाया जाएगा
मै यहाँ खड़ा हो
देखूँगा तेरा भी…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 18, 2013 at 6:53pm — 14 Comments
मनुष्य स्वभावतः उत्सव प्रिय एवं प्रकृति प्रेमी है । ग्रीष्म ऋतु के अवसान के पश्चात जब आषाढ़ और सावन आकाश मे काले काले घुमड़ते बादल झमझमाती बारिश लेकर आते है तब शुष्क और तपती हुई धरा धीरे धीरे तृप्त होती जाती है । सावन का महीना लगते ही हरियाली हरियाली ही दिखाई देती है । इस ऋतु परिवर्तन पर प्रकृति की मन भावन सुषमा एवं सुंदर परिवेश को पाकर मानव मन आन्नादित हो उठता है और ऋतुओं के अनुसार पर्व एवं त्योहार भी आरंभ हो जाते है । सावन के महीने मे ही तीज , नागपंचमी और सावन का अंत श्रावणी पूर्णिमा यानि…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 14, 2013 at 7:30pm — 1 Comment
यदि होती नेता मै
सिंहासन पर बैठती
अगल बगल प्यादे
लंबी मोटर कार होती
तिजोरी भर धन होता
यहाँ कुछ वहाँ होता
षटरस व्यंजन खाती
गिनती एक न करती
देना तो दूर की बात
सब छीन ले आती
भूखे कितने भी भूखे
दो रोटी की थाली
बनवाती संग मे
चावल , कटोरी दाल
बोनस कह कद्दू देती
उन्नति का ठेंगा
पड़े रहते सब नेता
जो बिचारे फिरते है
वोट मांगते रहते है
अंत मे मौन रहे साध
आँख…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 12, 2013 at 10:30pm — 15 Comments
साहित्य अपने आप मे एक बहुत बड़ा विषय है इस पर जितनी भी चर्चा की जाए कम ही होगी । साहित्य का शाब्दिक अर्थ स+ हित अर्थात हित के साथ या लोक हित मे जो भी लिखा जाय या रचा जाए वह साहित्य होता है। और धर्मिता का शाब्दिक अर्थ है ध + रम यहाँ ध अक्षर संस्कृत के धृ धातु का विक्षिन्न रूप है जिसका अर्थ है धारण करना और रम भी संस्कृत के रम् धातु से उद्भासित है जिसका अर्थ है रम जाना या तल्लीन हो जाना । इसी को धर्मिता कहते हैं । लोक हित को धारण कर उसी मे रम जाना ये हुई साहित्य धर्मिता। अब प्रश्न यहाँ यह उठता…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 5, 2013 at 6:55pm — 4 Comments
प्रिय ! कुछ अव्यक्त पीड़ा
तुम समझ पाते
यदि तुमसे कह दूँ
ये मेरा प्रेम न होगा
अन्तर्मन कर रहा यह
सस्वर करुण पुकार
तुम से छिपा कर
कुछ जख्म सी लिए हैं
कुछ अभी भी बाकी है
स्नेह मरहम रख देते
उन जख्मों पर
सपनों को सँजो लेते
मिल कर बुने थे जो
बनाने को नवनीड़
सुनीड़ दुर्लभ सा
मांग लूँ तुमसे
ये मेरा प्रेम न होगा
प्रिय ! कुछ अव्यकत पीड़ा ......... अन्नपूर्णा बाजपेई
मौलिक…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 1, 2013 at 7:18pm — 10 Comments
शब्दों के घेरे
घेर लेते है मुझे
किसी चिड़िया की
मानिंद आ बैठते हैं
हृदय रूपी वृक्ष द्वार पर
कल्पनाओं की टहनी पर
फुदक फुदक कर
बनाते है नई रचनाये
गीत कवित्त कविताएं
कल्पनाओं की उड़ान
को देते हैं हर बार
नए पंख लगा बैठते
हर बार टहनी टहनी
मेरे नए जीवन की
हर सुबह को देते
एक सूरज नया । ............ अन्न्पूर्णा बाजपेई
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by annapurna bajpai on July 30, 2013 at 2:00pm — 11 Comments
जब तुम साथ न थे
प्रेम सुप्त पड़ा था
दिल मे दर्द बड़ा था
मरहम था तेरे पास
जब तुम साथ न थे ...............
हर रोज एक आशा
कब होगे मेरे पास,
मेरा दिल तेरे पास
तेरा दिल मेरे पास
जब तुम साथ न थे ..............
राह तकती थी अँखियाँ
सूनी सी थी पगडंडियाँ
न महकती थी फुलवारियाँ
बढ़ती जाती थी दुश्वारियाँ
जब तुम साथ न थे ....................
तेरा मुझको…
ContinueAdded by annapurna bajpai on July 25, 2013 at 5:00pm — 9 Comments
फिर वही गीत दुहराओ प्रिय
मन की सूखी धरती पर
कुछ बूंद प्रेम जल छलकाओ प्रिय
वीरान हो चला है हृदय
कुछ प्रेम पुष खिलाओ प्रिय
फिर वही गीत दुहराओ....................
भग्न हदय सुप्त मन प्राण
अभिशापित सा हो चला जीवन
गहराती धुंध के बादल
कुछ रशमियां बिखराओ प्रिय
फिर वही गीत दुहराओ...............अन्नपूर्णा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by annapurna bajpai on July 24, 2013 at 11:00am — 19 Comments
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