भीड भरे रस्ते पे एक दिन, बरसोँ पुराना दोस्त मिला । चेहरे से मुस्कान थी गायब, स्वर भी कुछ रुखा सा मिला । ।
मैंने पूछा कैसे हो तुम, वो बोला कुछ ठीक नहीं । मैंने पूछा और हाल-ए-इश्क, सोच के बोला ली भीख नही । ।
उसके इस उत्तर से अचम्भित, ठिठक गया मैं चलते-चलते । फिर काँधे पे हाथ रख पूछा, किसी से नहीं क्या मिलते-जुलते… |
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on March 30, 2019 at 7:00pm — 6 Comments
हम तो कहीँ और नहीँ गये हैं बच्चोँ,
अभी भी मौज़ूद हैं ह्म तुम्हारे अंदर ।
ज़ुल्म को देखकर भी चुपचाप कैसे बैठे हो,
क्या धधकता नहीं है ज्वाला तुम्हरे अंदर । ।
हर इक शय में सियासत भरी हुई है…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on March 29, 2019 at 3:00pm — 1 Comment
माँ की लोरी सुनकर सोने वाला शिशु,
बाप की उंगली पकड चलने वाला शिशु,
दादी नानी से नये किस्से सुनने वाला शिशु,
खिलौने के लिए बाज़ार में मचलने वाला शिशु।
बडा हो…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on March 27, 2019 at 1:30pm — 2 Comments
"अंतर्रष्ट्रिय महिला दिवस पर विशेष"
सिर्फ माँ बहन पत्नी बेटी की,
परिभषा में मत उल्झओ ।
सबसे पहले मैं एक स्त्री हूँ,
मुझे मेरा सम्मन दिलवाओ।।
सिर्फ वंश…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on March 8, 2019 at 11:30am — 2 Comments
अपने वतन में बेघर का दर्द क्या जानो
जिन्होने लूटा है खसूटा उनको पहचानो
मेहनत मज़दूरी की तो जी गये बच्चे
संस्कार मिले थे बुजुर्गो से हमें भी अच्छे
लुट गये लेकिन हथियार उठाया ना कभी
वतन पे जान देने का है इरादा अब भी…
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on February 18, 2019 at 6:00pm — 2 Comments
मनुज पशु पक्षी और जंतु,
एक ही सबका जीवन दाता,
धनी हो या फिर निर्धन कोई,
मरघट अंतिम ही सुख् दाता ।
भोर से लेकर सांझ तलक शव,
मरघट में आते रह्ते हैं,
चंद्न लकडी घी पावक मिल,
भस्म उसे करते रहते हैं ।
मूषक पिपिलिका कपोत उपाकर,
व्रीही खाकर जीवीत रहते हैं,
दूषित समझ मनुज जो छोडे,
वो जल पी जीवीत रहते हैं ।
उचित अनुचित तो ये भी जाने,
मनुज के मन को भी पहचाने,
पाप पुण्य का ज्ञान…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on February 4, 2019 at 12:30pm — 4 Comments
जब वो कहता है तो वो कहता है
रोक पाता नहीं उसे कोई ,
उसके आगे ना रंक, राजा है ,
कंठ में कोयल सा उसके वासा है ॥
जब भी कहता है सच ही कहता है
जैसे बच्चा हृदय में रहता है ,
उसके…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 4, 2019 at 1:00pm — 8 Comments
आजकल कोई बुलाता भी नहीं।
आजकल मैं भी कहीं जाता नहीं
आजकल हर ओर है बदली फिज़ा
आजकल गायब है चेहरे से गीज़ा॥
आजकल कुछ भी सुहाता ही नहीं।
आजकल मैं गुनगुनाता भी नहीं
आजकल बदले हुए हालात हैं
आजकल मैं मुस्कुराता भी नहीं॥
आजकल बेकार है सब कोशिशें।
आजकल हैं लग रही बस बंदिशें
आजकल अपने ही छलते हैं यहाँ
आजकल हैं सब बहुत बस परेशां॥
आजकल वादों की ही भरमार है।
आजकल गैरों के सर पे हाथ…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 30, 2018 at 4:00pm — 2 Comments
ज़िंदगी दी है खुदा ने,मुस्कुराने के लिए
भूलना लाज़िम है तुमको,याद आने के लिए
बेखयाली मे कदम फ़िर, खींच लाये है मुझे
मैं नहीं आया किसी का, दिल चुराने के लिए
यूँ ही मिल जाए कोई फ़िर, क़द्र करता ही…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 21, 2018 at 1:00pm — 3 Comments
हिम्मत है तो मुझसे आकर द्वंद करो। वरना यूँ अनर्गल प्रलाप को बंद करो॥
छोरे छोरी में जो भेद करे ऐसे। गाँव की सगरी ऐसी खाप को बंद करो॥… |
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 27, 2018 at 2:00pm — 2 Comments
जुल्म की ये इंतेहा भी कब तलक।
ज़िंदगी के इम्तेहा भी कब तलक॥
आज़ या कल बिखर ही जाऊंगा।
वक़्त होगा मेहरबाँ भी कब तलक॥
ऐब ही जब ऐब तुझमें हैं भरे मैं ।
तुझमें ढूँडू ख़ूबियाँ भी कब तलक॥…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 23, 2018 at 11:30am — 1 Comment
हर घर में एक राम है रहता।
हर घर में एक रावण भी॥
जैसी जिसकी सोच है रहती।
उसको दिखता वो वैसा ही॥
टूट शिला से छोटा टुकड़ा।
लुढ़क रहा मंदिर की ओर॥
कोई देखता उसको पत्थर।
कोई देखता भगवन को॥
आस्था और विश्वास जहां हो।
तर्क नहीं देते कुछ काम॥
मानो या न मानो लेकिन।
बनते सबके बिगड़े काम॥
धर्म-अधर्म सब अंदर अपने।
पीर पड़े लगे राम को जपने॥
वर्षो से यही रीत चल रही।
इच्छाओं की गति…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 22, 2018 at 5:30pm — 1 Comment
मुश्किलों में मुस्कुराना सीख लो।
ज़िंदगी से दिल लगाना सीख लो ॥
शौक़ पीने का तुम्हें माना मगर।
दूसरों को भी पिलाना सीख लो॥
ढूँढने हैं मायने गर जीस्त के।
तो राग तुम कोई पुराना सीख लो॥…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 20, 2018 at 5:30pm — 2 Comments
ये क्या हो रहा मेरे प्यारे शहर को,
कहीं क़त्ल-ओ-गारत कहीं ख़ून के छीटें,
के घायल हैं चंदर कहीं पे सिकंदर,
के हर ओर फैले हुए अस्थि पंजर,
के तुम ही कहो कैसे देखूँ ये मंजर,
के आँखों के सूखे पड़े हैं समंदर ।।…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 12, 2018 at 3:00pm — 3 Comments
आज फिर बापू को हमने याद दिल से कर लिया ।
और सारे साल फिर इनसे किनारा कर लिया ।।
फूल चरणों में चढ़ाकर सोचते सब ठीक है ।
रूप बगुले का बशर ने फिर तिबारा कर लिया।।
परचम-ए-खादी तिरंगे में लिपटकर…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 2, 2018 at 9:00am — 5 Comments
बेवजह खुर्शीद पर, उँगली उठाया मत करो।
ख़ाक हो जाओगे तुम, नज़रें मिलाया मत करो।।
चलना है तो साथ चल वरना कदम पीछे हटा।
दोस्ती की राह में काँटे बिछाया मत करो।।
मुश्किलें आती रहेंगी जब तलक जीवन है…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 30, 2018 at 6:30pm — 1 Comment
माया-काया के चक्कर मे, उलझे जाने कितने लोग।
दूर तमाशा देख रहे हैं, हम जैसे अनजाने लोग॥
ठगनी माया कब ठहरी है,एक जगह तू सोच ज़रा।
बौराए से फिरते रहते, कुछ जाने पहचाने लोग॥
हँसना-रोना, खोना –पाना, जीवन के हैं रंग कई।
दुख से…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 26, 2018 at 1:00pm — 3 Comments
तुम या तो बन जाओ किसी के, या उसको अपना बना के देखो, जीवन महकेगा फूलों सा, प्रेम सुधा तुम पीकर देखो ।। क्या खोया है क्या पाया… |
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 19, 2018 at 6:00pm — 4 Comments
सबके लिए है कुछ न कुछ, मुंबई मे ज़रूर ।
एक बार सही मुंबई में बस आइए ज़रूर॥
निर्विघ्न हो जब हाथ है सर पे विघ्नहर्ता का।
श्रद्धा तू रख ये होंगे सिद्ध एक दिन ज़रूर।।
खाली नहीं लौटा है बशर, हाजी-अली…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 13, 2018 at 12:00pm — 2 Comments
पल में तोला है पल में माशा है
ये ज़िन्दगी है या एक तमाशा है
मय को पीकर इधर उधर गिरना
ये मयकशी है या एक तमाशा है
दब गए बोल सारे साज़ों में
ये मौसिक़ी है या एक तमाशा है
दिख रहे ख़ुश बिना तब्बसुम के
ये ख़ुशी है या एक तमाशा है
इश्क़ को कर रहा रुसवा कबसे
ये आशिक़ी है या एक तमाशा है
दरिया में रह के नीर की चाहत
ये तिश्नगी है या एक तमाशा है
तू जल रहा फिर…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 1, 2018 at 1:14pm — 1 Comment
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