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३ कह मुकरियाँ

(१)

जब आए - तो रस बरसाए

न आए - तो बड़ा सताए

कोई न ऐसा मनभावन 

ऐ सखी साजन?? न सखी सावन ।


(२)

मोरे पास - तो करे मगन

दूजे के संग - देत जलन 

न जग मे कोई वाके जैसा 

ऐ सखी साजन?? न सखी पैसा |

 

(३)

हमरे जीवन कै आधार

वो ही तो सगरा संसार

बड़ा सोच के रचिन रचैया 

ऐ सखी साजन?? न सखी मैया

Added by Vikram Srivastava on September 23, 2011 at 3:00pm — 13 Comments

कविता : सामान्य वर्ग के सामान्य बाप का सामान्य बेटा

मैं हूँ सामान्य वर्ग का एक सामान्य अधेड़

न, न, अभी उम्र पचास की नहीं हुई

केवल पैंतीस की ही है

मगर अधेड़ जैसा लगने लगा हूँ



मेरी गलती यही है

कि मैं विलक्षण प्रतिभा का स्वामी नहीं हूँ

न ही किसी पुराने जमींदार की औलाद हूँ

एक सामान्य से किसान का बेटा हूँ मैं



बचपन में न मेरे बापू ने मेरी पढ़ाई पर ध्यान दिया

न मैंने

नौंवी कक्षा में मुझे समझ में आया

कि इस दुनिया में मेरे लिए कहीं आशा बाकी है

तो वह पढ़ाई में ही है

तब मैंने पढ़ना…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 22, 2011 at 3:38pm — 17 Comments

नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)

 

नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

--------------- अंक - तीन  ---------------------

वह बड़ी हो चुकी थी. सदैव की भाँती एक दिन वह आकर मेरे बगल में बैठ गयी . मैं कुछ परेशान था .

"मुझसे नाराज है अंकल?" उसने पूछा .

"नहीं तो . सर में हल्का दर्द है ."  मैंने यूं ही उसे टालने के ख्याल से…

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Added by satish mapatpuri on September 21, 2011 at 11:26pm — 3 Comments

फिराक़ गोरखपुरी

फिराक़ गोरखपुरी का असल नाम था रघुपति सहाय। 28 अगस्‍त 1896 को उत्‍तर प्रदेश के शहर गोरखपुर में पैदा हुए। उनके पिता का नाम था, बाबू गोरखप्रसाद और वह आस पास के इलाके के सबसे दीवानी के बडे़ वकील थे। रघुपति सहाय का लालन पालन बहुत ही ठाठ बाट के साथ हुआ था। 1913 में गोरखपुर के जुबली स्‍कूल से हाई स्‍कूल पास किया। इसके पश्‍चात इलाहबाद के सेंट्रल कालेज में दाखिला लिया। इंटरमीडेएट करने के दौरान ही उनकी मनमर्जी के विरूद्ध उनके पिता ने रघपति सहाय की शादी करा दी गई। यह विवाह उनकी जिंदगी में अत्‍यंत…

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Added by prabhat kumar roy on September 15, 2011 at 8:30pm — 5 Comments

आदमी क्यों इस क़दर मग़रूर है।

क्यों वह ताक़त के नशे में चूर है

आदमी क्यों इस क़दर मग़रूर है।



गुलसितां जिस में था रंगो नूर कल 

आज क्यों बेरुंग है बेनूर है।



मेरे अपनों का करम है क्या कहूं

यह जो दिल में इक बड़ा नासूर है।



जानकर खाता है उल्फ़त में फरेब

दिल के आगे आदमी मजबूर है।



उसको "मजनूँ" की नज़र से देखिये

यूँ लगेगा जैसे "लैला" हूर है।



आप मेरी हर ख़ुशी ले लीजिये

मुझ को हर ग़म आप का मंज़ूर है।



जुर्म यह था मैं ने सच…

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Added by siyasachdev on September 15, 2011 at 9:10pm — 19 Comments

हिंदी प्रसार

हिंदी प्रसार

है लक्ष्य यह हमारा, हिंदी का हो पसारा |
हिंदी के दीप से ही, सम्भव है उजियारा ||
हमें मात्रभाषा को ही, है बनाना राष्ट्र- भाषा |
इससे ही बढ सकेगी, साक्षरता  की आशा ||
हिंदी में काम करना, हमें चाहिए अब सारा ||है लक्ष्य यह…
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Added by Shashi Mehra on September 15, 2011 at 9:00am — 3 Comments

मुक्तिका: अब हिंदी के देश में --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

अब हिंदी के देश में

संजीव 'सलिल'

*

करो न चिंता, हिंदी बोलो अब हिंदी के देश में.

गाँठ बँधी अंग्रेजी, खोलो अब हिंदी के देश में..



ममी-डैड का पीछा छोड़ो, पाँव पड़ो माँ-बापू के...

शू तज पहन पन्हैया डोलो, अब हिंदी के देश में



बहुत लड़ाया राजनीति ने भाषाओँ के नाम पर.

मिलकर गले प्रेम रस घोलो अब हिंदी के देश में..



'जैक एंड जिल' को नहीं समझते, 'चंदा मामा' भाता है.

नहीं टेम्स गंगा से तोलो अब हिंदी के देश में..…



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Added by sanjiv verma 'salil' on September 14, 2011 at 8:30am — 8 Comments

सरस्वती वंदना

 

शुभ्र वस्त्र शांत रूप, नैनन में ज्ञानदृष्टि,

देवी हंसवाहिनी को हाथ जोड़ ध्याइये.…

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Added by Er. Ambarish Srivastava on July 7, 2011 at 2:00am — 8 Comments

विरह गीत भाग (१)

हो गगन के चन्द्रमा तुम क्यों अगन बरसा रहे

देख कर बिरही अकेला क्यों मगन मुस्का रहे



मेरी धरती ने तुम्हे आकाश पर पहुंचा दिया

तुम भटकते ही रहे अब तक न तुमने कुछ किया

आज कर लो व्यंग्य कल तुम देख कर जल जाओगे

आज हूँ परदेश में कल पार्श्व में होगी प्रिया

इसलिए आगे बढ़ो जाओ जहाँ तुम जा रहे हो

हो गगन के चन्द्रमा ...........................



विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं

कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी…

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Added by Yogendra B. Singh Alok Sitapuri on September 11, 2011 at 4:05pm — 4 Comments

कोई आया है

 



रमिया बड़ी खुश थी । शहर जो जा रही थी - अपने पोते को देखने जाने का आखिर उसे मौका मिल ही गया था । यह अवसर बनने में समय लग गया और देखते देखते उसका पोता सात साल का हो गया था । महानगर की भागम-भाग भरी जिन्दगी में से न तो उसका बेटा ही समय निकाल पा रहा था और ना ही रमिया गाँव की अपनी खेती गृहस्थी में से समय निकाल पा रही थी । या यूँ कहें कि कुछ अधिक ही व्यस्त थे दोनों ही माँ-बेटे । और रमिया का पोता…

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Added by Neelam Upadhyaya on September 11, 2011 at 8:30pm — 13 Comments

सृजनहार ,तुम्हारी नगरी कितनी सुन्दर

आज

मुर्गे की बांग के साथ ही

प्रवेश किया मैंनें तुम्हारी नगरी में .

रुपहरी भोर ,सुनहरी प्रभात से ,

गले लग रही थी

लताओं से बने तोरणद्वार को पारकर आगे बढ़ी,

कलियाँ चटक रही थीं,

फूलों का लिबास…

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Added by mohinichordia on September 11, 2011 at 2:00pm — 10 Comments

कविता - जीव - गणित

कविता -  जीव - गणित
घाट
घाट की सीढियां
सीढ़ियों पर काबिज़…
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Added by Abhinav Arun on September 5, 2011 at 9:45pm — 14 Comments

मैं शिक्षक हूँ.......... (शिक्षक -दिवस पर विशेष )

शिक्षा ही सबसे उत्तम धन,और ना धन कोई दूजा है.
शिक्षक होते वन्दनीय, और गुरु -श्रद्धा ही पूजा है.
जिस समाज में शिक्षक का,सम्मान नहीं होता है.
उस समाज में उन्नति और, उत्थान नहीं होता…
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Added by satish mapatpuri on September 6, 2011 at 12:30am — 5 Comments

ग़ज़ल

आँखों में आँख डाल रहे जो गुमान की,
यारों है उनको फिक्र जमीं आसमान की.

 

जिंदादिली का राज कलेजे में है छिपा,
खुद पे है ऐतबार खुशी है जहान की.

 

आयी जो मस्त याद चली झूमती हवा,

नज़रें मिली तो तीर चले बात आन की.

 

घायल हुए जो ताज दिखा संगमरमरी,

आई है यार आज घड़ी इम्तहान की.

 

आखिर वही हुआ जो लगी इश्क की झड़ी, 

कुरबां वतन पे आज हुई जां जवान की.

 

--अम्बरीष श्रीवास्तव

Added by Er. Ambarish Srivastava on September 4, 2011 at 11:53pm — 27 Comments


मुख्य प्रबंधक
हाइगा : एक प्रयास

(चित्र गुगल से साभार)

हाइगा एक परिचय :- हाइगा साहित्य की जापानी विधा है जो १७ वी शताब्दी में शुरू की गई थी, हाइगा मूलतः दो जापानी शब्द से मिलकर बना है,

हाइगा = हाइ + गा ,

हाइ (हाइकु) = कविता ,

गा   = रंग चित्र या चित्रकला

अर्थात, हाइगा, हाइकु  और रंग चित्र के संयोजन से सृजित किया जाता है, उस समय रंग…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 4, 2011 at 9:00pm — 25 Comments

प्यार की बाँसुरी

 

तुम्हारे प्यार की फुहार से 

इस कदर भीगा तन-मन, कि, 

जीवन में फैले शुष्क रेगिस्तान की तपन 

झुलसा न सकी…

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Added by mohinichordia on August 23, 2011 at 9:00pm — 8 Comments

लघुकथा : बहू-बेटी

लघुकथा : बहू-बेटी



“अम्मा ! तुम भी घर का कोई काम किया करो, नहीं तो इस तरह तुम्हारे हाथ-पैर जुड़ जाएंगें।” घुटनों के दर्द से करहाती अपनी माँ की दुर्दशा देखकर ससुराल से आई बेटी ने कहा।

“ हाँ बेटी ! तू ठीक ही कहती है, किया करूंगी कुछ काम....”

“ हाँ दीदी, मैने भी कई बार अम्मा जी से कहा है कि आप भी कुछ काम किया करें .......” पास बैठी बहू ने कहा

” काम किया करूँ, तो तुझे ब्याह कर लाने का मुझे क्या फायदा........... काम किया करो....” सास ने बहू की बात को बीच में ही काटते हुए तीखे…

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Added by Ravi Prabhakar on August 21, 2011 at 1:00pm — 7 Comments


मुख्य प्रबंधक
अपने मित्रों को ओ बी ओ सदस्यता हेतु कैसे आमंत्रित करें ?

साथियों,

कई मित्रों का प्रश्न  है कि "मैं अपने मित्रों को जो जीमेल, याहू , हॉटमेल आदि में है उनको कैसे ओ बी ओ पर आमंत्रित करूँ ?

इसका सरल उपाय ओ बी ओ पर है, मैं चित्र (स्क्रीन शोट) के माध्यम से बताना चाहता हूँ , उम्मीद है प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा, उसके पश्चात् भी यदि कुछ प्रश्न उठ रहे हो तो नीचे कमेंट्स बॉक्स में लिखे ....मैं हूँ ना :-)

 

 …

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 20, 2011 at 5:00pm — 4 Comments

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