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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog (230)

ग़ज़ल : रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

 

जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है

रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

 

पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको

हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है

 

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें

पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है

 

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में

यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है

 

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना

वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 29, 2015 at 6:24pm — 26 Comments

ग़ज़ल : सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं

सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

 

जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले

गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं

 

जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा

जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं

 

कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के

तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं

 

किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की

न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 26, 2015 at 9:16pm — 22 Comments

नवगीत : बूँद बूँद बरसो

बूँद बूँद बरसो

मत धार धार बरसो

 

करते हो

यूँ तो तुम

बारिश कितनी सारी

सागर से

मिल जुलकर

हो जाती सब खारी

 

जितना सोखे धरती

उतना ही बरसो पर

कभी कभी मत बरसो

बार बार बरसो

 

गागर है

जीवन की

बूँद बूँद से भरती

बरसें गर

धाराएँ

टूट फूट कर बहती

 

जब तक मन करता हो

तब तक बरसो लेकिन

ढेर ढेर मत बरसो

सार सार…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 23, 2015 at 12:08pm — 8 Comments

ग़ज़ल : ये प्रेम का दरिया है इसमें

बह्र : 22  22 22 22 22 22 22 22

 

ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए

याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए

 

फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए

पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए

 

इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं

दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये

 

मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई

मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 19, 2015 at 12:50pm — 10 Comments

नवगीत : पत्थर-दिल पूँजी

पत्थर-दिल पूँजी

के दिल पर

मार हथौड़ा

टूटे पत्थर

 

कितनी सारी धरती पर

इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा

विषधर इसके नीचे पलते

किन्तु न उगने देता सब्ज़ा

 

अगर टूट जाता टुकड़ों में

बन जाते

मज़लूमों के घर

 

मौसम अच्छा हो कि बुरा हो

इस पर कोई फ़र्क न पड़ता

चोटी पर हो या खाई में

आसानी से नहीं उखड़ता

 

उखड़ गया तो

कितने ही मर जाते

इसकी ज़द में आकर

 

छूट मिली…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 13, 2015 at 4:15pm — 12 Comments

ग़ज़ल : पैसा जिसे बनाता है

बह्र : २२ २२ २२ २

 

पैसा जिसे बनाता है

उसको समय मिटाता है

 

यहाँ वही बच पाता है

जिसको समय बचाता है

 

चढ़ना सीख न पाये जो

कच्चे आम गिराता है

 

रोता तो वो कभी नहीं

आँसू बहुत बहाता है

 

बच्चा है वो, छोड़ो भी

जो झुनझुना बजाता है

 

चतुर वही इस जग में, जो

सबको मूर्ख बनाता है

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 11, 2015 at 6:54pm — 16 Comments

कहानी : नफ़रत

(१)

दो पहाड़ियों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते

खाई भी जोड़ती है

-   गीत चतुर्वेदी

 

कोई किसी से कितनी नफ़रत कर सकता है? जब नफ़रत ज़्यादा बढ़ जाती है तो आदमी अपने दुश्मन को मरने भी नहीं देता क्योंकि मौत तो दुश्मन को ख़त्म करने का सबसे आसान विकल्प है। शुरू शुरू में जब मेरी नफ़रत इस स्तर तक नहीं पहुँची थी, मैं अक्सर उसकी मृत्यु की कामना करता था। मंगलवार को मैं नियमित रूप से पिताजी के साथ हनुमान मंदिर में प्रसाद चढ़ाने जाता था। प्रसाद पुजारी को देने के…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 16, 2015 at 6:29pm — 14 Comments

ग़ज़ल : मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

 

मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ

 

कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं

खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ

 

इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको

कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ

 

भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ

सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ

 

इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको

इस से पहले कि मैं ये…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 12, 2015 at 12:38pm — 16 Comments

कविता : प्रेम

(१)

 

तुम्हारा शरीर

रेशमी ऊन से बुना हुआ

सबसे मुलायम स्वेटर है

 

मेरा प्यार उस सिरे की तलाश है

जिसे पकड़कर खींचने पर

तुम्हारा शरीर धीरे धीरे अस्तित्वहीन हो जाएगा

और मिल सकेंगे हमारे प्राण

 

(२)

 

तुम्हारे होंठ

ओलों की तरह गिरते हैं मेरे बदन पर

जहाँ जहाँ छूते हैं

ठंडक और दर्द का अहसास एक साथ होता है

 

फिर तुम्हारे प्यार की…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 6, 2015 at 4:00pm — 10 Comments

ग़ज़ल : अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है

गरीबी ही सदा हमको कलेजे से लगाती है

 

भरा हो पेट जिसका ठूँस कर उसको खिलाती पर

जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है

 

अमीरी का दिवाला भर निकलता है सदा लेकिन

गरीबी कर्ज़ से लड़ने में जान अपनी गँवाती है

 

अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा

गरीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है

 

ये दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं इसलिए…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 2, 2015 at 4:13pm — 18 Comments

ग़ज़ल : बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

 

जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे

लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे

 

बिना बुलाए द्वार किसी के क्यूँ जाएँ हम

ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे

 

कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी

बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

 

चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को

अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे

 

काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना

जिनको जल्दी जाना ही है, वो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:30am — 14 Comments

ग़ज़ल : हम इतने चालाक न थे

बह्र : २२ २२ २२ २

 

जीवन में कुछ बन पाते

हम इतने चालाक न थे

 

सच तो इक सा रहता है

मैं बोलूँ या वो बोले

 

पेट भरा था हम सबका

भूख समझ पाते कैसे

हारेंगे मज़लूम सदा

ये जीते या वो जीते

 

देख तुझे जीता हूँ मैं

मर जाता हूँ देख तुझे

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 18, 2015 at 4:49pm — 20 Comments

ग़ज़ल : इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब

इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब

दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब

 

पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब

फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब

 

महलों की चमचागीरी में जुटे रहें हरदम

डीयम-वीयम, यसपी-वसपी, जनरल-वनरल सब

 

समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे

ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब

 

कंकरीट का राक्षस धीरे धीरे खाएगा

बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब

 

जो न बिकेंगे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 12, 2015 at 1:19pm — 18 Comments

नवगीत : चंचल नदी

चंचल नदी

बाँध के आगे

फिर से हार गई

बोला बाँध

यहाँ चलना है

मन को मार, गई

 

टेढ़े चाल चलन के

उस पर थे

इल्ज़ाम लगे

उसकी गति में

थी जो बिजली

उसके दाम लगे

 

पत्थर के आगे

मिन्नत सब

हो बेकार गई

 

टूटी लहरें

छूटी कल कल

झील हरी निकली

शांत सतह पर

लेकिन भीतर

पर्तों में बदली

 

सदा स्वस्थ

रहने वाली

होकर बीमार…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2015 at 1:44pm — 28 Comments

ग़ज़ल : पूँजी की ग्रोथ रेट सवाई हुई तो है

बह्र : 221 2121 1221 212

 

रोटी की रेडियस, जो तिहाई हुई, तो है

पूँजी की ग्रोथ रेट सवाई हुई तो है

 

अपना भी घर जला है तो अब चीखने लगे

ये आग आप ही की लगाई हुई तो है

 

बारिश के इंतजार में सदियाँ गुज़र गईं

महलों के आसपास खुदाई हुई तो है

 

खाली भले है पेट मगर ये भी देखिए

छाती हवा से हम ने फुलाई हुई तो है

 

क्यूँ दर्द बढ़ रहा है मेरा, न्याय ने दवा

ज़ख़्मों के आस पास लगाई हुई तो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2015 at 11:52am — 20 Comments

ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

 

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर

जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

 

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो  

देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

 

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब

इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

 

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2015 at 12:21pm — 17 Comments

ग़ज़ल : नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन

पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन

 

उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन

अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन

 

उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन

जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन

 

पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन

पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन

 

मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2015 at 12:36pm — 23 Comments

ग़ज़ल : ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

 

ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर

 

घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले

जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर

 

जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे

मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर

 

पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में

मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर

 

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ

आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 23, 2015 at 11:54am — 22 Comments

ग़ज़ल : एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२



रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद

दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद

शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद

यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद

कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र

अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद



जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर

फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद



एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई

और क्या कहने को रहता है…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 18, 2015 at 2:30pm — 32 Comments

ग़ज़ल : सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२

 

पड़े चंदन के तरु पर घोसला रखना

तो जड़ के पास भूरा नेवला रखना

 

न जिससे प्रेम हो तुमको, सदा उससे

जरा सा ही सही पर फासला रखना

 

बचा लाया वतन को रंगभेदों से

ख़ुदा अपना हमेशा साँवला रखना

 

नचाना विश्व हो गर ताल पर इनकी

विचारों को हमेशा खोखला रखना

 

अगर पर्वत पे चढ़ना चाहते हो तुम

सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

-------

(मौलिक एवं अप्रकाशित) 

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 5:25pm — 20 Comments

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