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Pragya Srivastava's Blog (20)

सिसकियाँ भरते रहे हम रात भर

सिसकियाँ भरते रहे हम रात भर

चाँद ने भी देखा पर कुछ ना कहा

हवाएँ भी सुनकर चलती रही

दर्द सीने में लहरों सा उठता रहा

चाँदनी बादलों में छुपने लगी

सांस भी रह-रह कर रूकने लगी

सिर्फ बची मैं और मेरी तन्हाईयाँ

यादें करती रही पीछा बनकर परछाइयाँ

घटाओं ने समझा दर्द बस मेरा

बरसती रही वो रात भर

जख्म रिस-रिस कर ऐसे बहने लगे

घाव मरहम की ख्वाहिश में सहने लगे

पिघलकर रूह बिछने लगी

साया भी खुद से सहमने लगा

लौ जलती रही मगर तेल कम था

एक…

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Added by Pragya Srivastava on June 18, 2014 at 5:30pm — 9 Comments

माँ

तेरी गोद में सोकर
कितना सकून मिलता है माँ
प्यार भरा हाथ सहलाती हो जब
दर्द ना जाने कहाँ हो जाता है गुम
तुम हो मेरे पास तो मुझे लगता नही डर
तेरी ममता की छांव मिलती रहे मुझे
मेरी तो बस है इतनी सी तमन्ना

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on May 10, 2014 at 7:32pm — 5 Comments

कैसे भूलाऐ जा पाऐगे

बचपन की वो सुन्दर यादें

गांव की मिट्टी,पेड़ों के झूले

कैसे भूलाए जा पाऐगे

रोना,हसना,और मचलना

गिरना,गिरकर फिर से संभलना

कैसे भूलाए जा पाऐगे

पगडन्डी पर दौड़ लगना

खुली हवा से बातें करना

कैसे भूलाए जा पाऐगे

तितली,बन्दर और गिलहरी

मोदक,मक्खन और जलेबी

कैसे भूलाए जा पाऐगेम

माँ की रोटी,दादी की कहानी

छुटपन की सहेली मीना,रानी

कैसे भूलाऐ जा पाऐगे

बाबू जी का डान्ट लगाना

और प्यार से गोद उठाना

कैसे भूलाऐ जा पाऐगे

सावन के… Continue

Added by Pragya Srivastava on April 14, 2014 at 1:27pm — 12 Comments

मेरी माँ

मेरी माँ है सबसे सुन्दर
फूल सरीखी माँ
श्रृद्धा ,त्याग ,तपस्या की
मूरत मेरी माँ
चन्दन और कुमकुम सी
लगती मेरी माँ
बाधाओं से कभी न हारे
ऐसी मेरी माँ
पूजा की घन्टी सी हरदम
बजती मेरी माँ
गीता,वेद,पुराणों में भी
मिलती मेरी माँ
मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on April 11, 2014 at 11:51pm — 10 Comments

अच्छा लगता है

छोटी खुशियाँ
गम पहाड़ से
फिर भी जीना
अच्छा लगता है
गम से लड़कर खुशियाँ पाना
अच्छा लगता है
दर्द बहुत है जीवन में
पर हाथ कोई मरहम का फेरे
अच्छा लगता है
खाकर तीखा और चटपटा
मीठा कुछ मिल जाए तो
अच्छा लगता है

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on March 14, 2014 at 10:56pm — 2 Comments

मजदूर हूँ मैं किसान हूँ

मजदूर हूँ मैं किसान हूँ

सबके करीब सबसे दूर हूँ

तपती लू के थपेड़ों ने

झुलसाया मुझे बहुत

अनवरत करता रहा भूख प्यास से व्याकुल

होकर भी अपना काम

कभी पाला कभी कोहरा प्रकति…

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Added by Pragya Srivastava on February 4, 2014 at 11:00pm — 5 Comments

भारत तुझे नमन

भारत तुझे नमन

 

जब-जब देखा यहाँ है पाया

एक अनोखा रंग

भारत तुझे नमन

कण-कण मे यहाँ प्यार है बसता

देखो कितनी है समरसता

चाहे हिंदू, चाहे…

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Added by Pragya Srivastava on January 13, 2014 at 10:30pm — 9 Comments

अलादीन का चिराग हूँ मैं

अलादीन का चिराग हूँ मैं

एक हसीन ख्वाब हूँ मैं

 

मचलती सुबह हूँ मैं

खिलखिलाती शाम हूँ मैं

 

हँसी का अंदाज हूँ मैं

प्रीत हूँ प्यार हूँ मैं

 

पहचान मेरी मुझसे है

दो कुलों की शान हूँ  मैं

 

दायरों मे बंधी हूँ मैं

शर्म से सजी हूँ मैं

 

छाया हूँ बाबुल के आंगन की

पिया की परछाई हूँ मैं

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on July 15, 2013 at 8:00pm — 11 Comments

उनको शत-शत नमन

उन शहीदों को मेरा

सलाम है सलाम

जाँ बचाते-बचाते

दे गए अपनी जान

नाज करते हैं हम

उनके जज्बात पर

देश के मान पर

तिरंगे के सम्मान पर

जाँ बचाते रहे

बेखौफ हो निडर

एक जिद थी कि

ज्यादा से ज्याद

बचाते रहें

नेक था इरादा

काम नेक था

विधाता ने लिखा पर

कुछ और लेख था

मौत जीती मगर

हो गए वो अमर

उनको शत-शत नमन

मौलिक व अप्रकाशित

 

Added by Pragya Srivastava on July 9, 2013 at 4:30pm — 7 Comments

मंजिल को पाने की चाह में

मंजिल को पाने की चाह में

इस कदर हम खो गए

मंजिल मिली मगर

तन्हा हम हो गए

 

रास्ते चलते रहे

फांसले बढ़ते गए

 

छूटते इस साथ को

हमने कभी चाहा था बहुत

 

वो हमारे थे मगर

अब किसी और के हो गए

 

 

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on July 2, 2013 at 5:30pm — 9 Comments

मेरा मन

जाने क्यो उदास है

मेरा मन

जाने क्यों निराश है

मेरा मन

जाने क्यों हताश है

मेरा मन

अधरों से फूटते नही बोल

घुटन सी होती है इस मन में

चुभन सी होती है इस तन में

चंचलता से भरा मेरा मन

जाने क्यों उदास है

लगता है ऐसे कोई नही

अपना आस-पास है

अपनों को खोजता ये मन

लिए तड़पन, लिए लगन

आँसूओं की धारा में

गुम-सुम हुआ मेरा मन

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on June 29, 2013 at 11:13am — 15 Comments

सरस्वती वंदना

वंदना हम कर रहे

माँ शारदे माँ शारदे

अज्ञान के अंधेरों से

तू हमें तार दे

हम तो अज्ञानी  हैं

ज्ञान से संवार दे

माँ शारदे------------

.

श्वेत वस्त्र धारणी

कमल पे विराजती

वीणा के तार की

झंकार दे झंकार दे

माँ  शारदे----------

.

चरणों में तेरे हम

शीश को झुका रहे

ज्ञान की ज्योति

हमको उपहार दे

माँ शारदे------------

 

 

मौलिक व अप्रकाशित------

Added by Pragya Srivastava on June 21, 2013 at 11:00am — 9 Comments

वो आवाज

वो आवाज

जो पल भर पहले था कितना खुशहाल

अचानक हुई एक धमाके की आवाज

उस धमाके की आवाज से बंद हुई पलकें

जब खुली तब तक,

खत्म हो चुका था सब कुछ

रह गए थे टूटे हुए बर्तन,

बिखरी हुई चूड़ियाँ, छितराई हुई लाशें,

फैला हुआ खून, ढ़ूढ़ती हुई आँखें,

एक अकेले रोते हुए बच्चे की आवाज

 

 

 

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on June 20, 2013 at 12:34am — 9 Comments

बरसो घन

 

घटाएँ काली-काली हैं

शायद बरसने वाली हैं

वन उपवन हैं प्यासे कब से

तरस रहे हैं पानी बरसे

खेतों और खलिहानों को

मजदूर और किसानों को

आस जगी है अब तो बरसें

बरसों बीत गए हैं बरसे

बरसे तो सबका मन हर्षे

तपन मिटे इस धरती की

हरियाली की चादर फैले

मोर पपीहों का दिल बहले

नाचे लोग घर उपवन में

नव जीवन का संचार हो मन मे

खिलें फूल मुस्काए हर मन

उमड़-घुमड़ कर बरसो…

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Added by Pragya Srivastava on June 17, 2013 at 4:47pm — 16 Comments

कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर

आशा के सहारे इंसान अपनी सारी उम्र गुजार देता हैI यही कि अब अच्छा होने वाला है अब सब सही हो जाएगा1 मैं सोचती हूँ क्या सचमुच सब सही हो जाएगाIजिंदगी की गाड़ी पटरी पर चलने लगेगी1भगवान देता है माना पर मुझे दिया अस्त-व्यस्त बिखरा हुआI अब उसे समेटना हैI यहाँ संभालो तो वहाँ की चिंता,वहाँ संभालो तो यहाँ की चिंता क्या करूं?पता नही कब सब कुछ सही होगा,होगा की नही1 जीवन के इस करूक्षेत्र में आशा और निराशाके इस महाभारत में कहीं कौरव न जीत जाए1भगवान कृष्ण तुम कहाँ हो? सुनते क्यों नही ?पुकारते-पुकारते थक गई…

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Added by Pragya Srivastava on June 15, 2013 at 11:41am — 4 Comments

मन की किताब के कुछ पन्ने

       मन की किताब के कुछ पन्ने

       तुमको सुनाती हूँ मैं

       कहीं पे हैं खुशियाँ खुद को समेटे

       और गम हैं देखो चादर में लिपटे

       सलवटें हजारों दर्द की पड़ी हैं

        आशा की किरण पट खोले खड़ी है

        खिड़कियों से उमंगें पवन बन के आती

        देखो झरोखों से फिर जा रही हैं

       कमरे के कोने में छिपी बैठी चाहत

       लाल सुर्ख साड़ी में मुस्कुराहट शरमा रही है

       हंसी फूलों में खिलखिला रही…

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Added by Pragya Srivastava on June 14, 2013 at 8:00pm — 4 Comments

सच

सच एक सवाल हो गया

झूठ का धमाल हो गया

कमाल हो गया, कमाल हो गया

नोट है तो वोट है

हर चीज में खोट है

चोट पर चोट है, चोट पर चोट है

धूप है छाँव है

अनकहे,अनछुए घाव ही घाव हैं

नोचता ,कचौटता मन को मसौसता

राह का पता नही ढ़ूढ़ता फिर रहा

कोई तो बता दे

ये सच कहाँ रहता है

 

 

 

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Pragya Srivastava on June 13, 2013 at 12:33pm — 7 Comments

प्रकृति

पेड़ पर बैठी चिड़िया बोली

ओ जंगल के राजा

मानव कितना अभिमानी है

इसको तू खाजा

स्वार्थ में आकर छीन रहा था

मेरा घर वो आज

बच्चे मेरे बिलख रहे थे

कैसी गिरी ये गाज

ना जाने क्या सोच कर उसने

ये पेड़ आज नही काटा

पेड़ भी बोला गुस्से से

मारूंगा एक चांटा

छाया देता ,फल भी देता

और आसरा सबको

फिर भला ये मानव

काट रहा क्यों मुझको

सुन कर सारी बातें

शेर जोर से दहाड़ा

आने दो  कल मानव…

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Added by Pragya Srivastava on June 10, 2013 at 11:04am — 5 Comments

प्रेम करें खुद से ही नही इस प्रकृति से भी

भक्ति में शक्ति है1 ईश्वर की भक्ति जीवन का अंतिम लक्ष्य है1  योग साधना है1योग हो या भक्ति दोनों ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम हैं1योग हमारे शरीर, मन –मस्तिष्क को स्वस्थ रखता है और इस साधना के बगैर भक्ति संभव नही1 हम बहुत सौभाग्यशाली हैं कि हमें मनुष्य जीवन मिला1 हम जन्म से लेकर मृत्यु तक सांसारिक बंधनों में लिप्त रहतें हैं1 बल्कि हमारा उदेश्य तो सांसारिकता को छोड़कर ईश्वरीय अराधनाओं में होना चाहिए वही तो सच्चा ज्ञान है1जब तक हम शिक्षित नही होंगे पहचानेगें कैसे कि सच क्या है? हमें इस जीवन का…

Continue

Added by Pragya Srivastava on June 6, 2013 at 5:35pm — 5 Comments

महंगाई

 

आज बढ़ सकते हैं दाम

हाय राम, आम तो आम

बढ़ सकते हैं गुठलियों के भी दाम

ये महँगाई सुरसा के मुहँ की तरह

बढ़ती ही जा रही है

अपनी हरकतों से बाज नही आ रही है

सरकारी नीति यही समझा रही है

जनसंख्या वृद्धि को रोकने मे

महँगाई बहुत बढ़ी भूमिका निभा रही है

भूखे मरेंगे लोग

तरसेगें पीने के लिए जल

आज नही तो कल

जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्या का

अपने आप निकल जाएगा हल

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on June 6, 2013 at 5:12pm — 12 Comments

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